Sunday, 31 March 2019

राजस्थान - थार का मरुस्थल

थार मरुस्थल

थार मरुस्थल भारत के उत्तरपश्चिम में तथा पाकिस्तान के दक्षिणपूर्व में स्थितहै। यह अधिकांश तो राजस्थान में स्थित है परन्तु कुछ भाग हरियाणा,पंजाब,गुजरात और पाकिस्तान के सिंध और पंजाब प्रांतों में भी फैला है। अरावली पहाड़ी के पश्चिमी किनारे पर थार मरुस्थल स्थित है। यह मरुस्थल बालू के टिब्बों से ढँका हुआ एक तरंगित मैदान है।
थार डेसर्ट, राजस्थान का मैप

जलवायु[संपादित करें]

थार मरुस्थल अद्भुत है। गर्मियों में यहां की रेत उबलती है। इस मरुभूमि में 52 डिग्री सेल्शियस तक तापमान रिकार्ड किया गया है। जबकि सर्दियों में तापमान शून्य से नीचे चला जाता है। जिसका मुख्य कारण हैं यहाँ की बालू रेत जो जल्दी गर्म और जल्दी ठंडी हो जाती है। गरमियों में मरुस्थल की तेज गर्म हवाएं चलती है जिन्हें "लू" कहते हैं तथा रेत के टीलों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती हैं और टीलों को नई आकृतियां प्रदान करती हैं। गर्मी ऋतु में यहां पर तेज आंधियां चलती है जो रेत के बड़े-बड़े टीलों को दूसरे स्थानों पर धकेल देती है जिससे यहां मरुस्थलीकरण की समस्या बढ़ती जाती है आंधियों के दिनों में चोरी करने वाले लोग आसानी से अपना काम निपटा लेते हैं क्योंकि उनके पैरों के निशान तेज आंधी के कारण मिट जाते हैं तो लोगों को चोरों की यथासंभव दिशा का पता नहीं चल पाता है कि चोर कौन सी दिशा में गया है

जन-जीवन[संपादित करें]

जन-जीवन के नाम पर मरुस्थल में मीलों दूर कोई-कोई गांव मिलता है। थार के मरुस्थल में अगर कोई शहर विकसित हुआ है तो वह शहर जोधपुर शहर है यहां हिंदू एवम मुसलमान धर्म के लोग ही निवास करते हैं प्रकृति की मार को सहन करते हुए भी यहां पर कुछ जातियां समृद्धि के चरम को छू रही है उदाहरण के लिए बिश्नोई समाज । इस समाज के लोगों ने यहां पर खूब तरक्की की है बिश्नोई समाज के लोग वन एवं पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करते हुए पाए जाते हैं । थार के मरुस्थल में रहने वाले लोग वीर एवं साहसी होते हैं लोगों में देश प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी होती है पशुपालन यहां का मुख्य व्यवसाय है पशुओं में गाय बैल भैंस बकरी भेड़ घोड़े गधे इत्यादि जानवरों को पाला जाता है

मरू समारोह[संपादित करें]

लौहयुगीन वैदिक भारत में थार मरुस्थल की स्थिति (नारंगी रंग में)
राजस्थान में मरू समारोह (फरवरी में) - फरवरी में पूर्णमासी के दिन पड़ने वाला एक मनोहर समारोह है। तीन दिन तक चलने वाले इस समारोह में प्रदेश की समृद्ध संस्कृति का प्रदर्शन किया जाता है।
प्रसिद्ध गैर व अग्नि नर्तक इस समारोह का मुख्य आकर्षण होते है। पगड़ी बांधने व मरू श्री की प्रतियोगिताएं समारोह के उत्साह को दुगना कर देती है। सम बालु के टीलों की यात्रा पर समापन होता है, वहां ऊंट की सवारी का आनंद उठा सकते हैं और पूर्णमासी की चांदनी रात में टीलों की सुरम्य पृष्ठभूमि में लोक कलाकारों का उत्कृष्ट कार्यक्रम होता है।

रेगिस्तान क्या हैं?

वैसे तो रेगिस्तान से हम सभी परिचित हैं किंतु वैज्ञानिक रूप से इसे परिभाषित करना आसान नहीं है। इसका कारण यह है कि वैज्ञानिकों ने भी इसकी अनेक परिभाषाएं प्रस्तुत की हैं। रेगिस्तान शब्द स्थलाकृति की विभिन्न विविधिताओं को समेटे हुए है। यहां हम पर्यावरण की विभिन्न स्थितियों को देख सकते हैं।

भुगोलशास्त्र में रेगिस्तान को ऐसी स्थलाकृति के रूप में परिभाषित किया गया है जहां वर्षा (बौछार, हिम, बर्फ आदि रूपों में) बहुत कम लगभग 250 मि.मी. होती हो। एक मान्य परिभाषा के अनुसार रेगिस्तान एक बंजर, शुष्क क्षेत्र है जहां वनस्पति नहीं के बराबर होती है, यहां केवल वही पौधे पनप सकते हैं जिनमें जल संचय करने की अथवा धरती के बहुत नीचे से जल प्राप्त करने की अदभुत क्षमता हो। मिट्टी की पतली चादर जो वायु के तीव्र वेग से पलटती रहती है और जिसमें कि खाद-मिट्टी (हयूमस) का अभाव हो, वह उपजाऊ नहीं होती। इन क्षेत्रों में वाष्पीकरण की क्रिया से वाष्पित जल, वर्षा से प्राप्त कुल जल से अधिक हो जाता है, तथा यहां वर्षा बहुत कम और कहीं-कहीं ही हो पाती है। अंटार्कटिका क्षेत्र को छोड़कर अन्य स्थानों पर सूखे की अवधि एक साल या अधिक भी हो सकती है। इस क्षेत्र में बेहद शुष्क व गर्म स्थिति किसी भी पैदावार के लिए उपयुक्त नहीं होती है।

गर्म रेगिस्तान व ठंडे रेगिस्तान


विश्व में जितने प्रकार के रेगिस्तान हैं लगभग उतने ही प्रकार की उनकी वर्गीकरण पद्धतियां प्रचलित हैं। रेगिस्तान ठंडे व गर्म होते हैं।नेवाडा के लुनर क्रेटर के समीप स्थित ग्रेट बेसिन नामक ठंडा रेगिस्ताननेवाडा के लुनर क्रेटर के समीप स्थित ग्रेट बेसिन नामक ठंडा रेगिस्तान धरती पर तरह-तरह के गर्म व ठंडे रेगिस्तान हैं। जिस क्षेत्र का औसत तापमान तीस डिग्री सेल्सियस से अधिक होता है, उन्हें गर्म रेगिस्तान कहा जाता है। प्रायः अध्रुवीय क्षेत्रों के रेगिस्तान गर्म होते हैं। अध्रुवीय रेगिस्तानों में पानी बहुत ही कम होता है इसलिए ये क्षेत्र गर्म होते हैं।

प्रायः शुष्क और अत्यधिक शुष्क भूमि वास्तव में रेगिस्तान को और अर्धशुष्क भूमि घास के मैदानों को दर्शाती हैं।

जिन क्षेत्रों में शीत ऋतु का औसत तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से कम होता है वे इलाके ठंडे रेगिस्तान या शीत रेगिस्तान कहलाते हैं। ध्रुवीय क्षेत्र के रेगिस्तान ठंडे होते हैं तथा वर्ष भर बर्फ से ढके रहते हैं। यहां वर्षा नगण्य होती है तथा धरती की सतह पर सदैव बर्फ की चादर सी बिछी रहती है। जिन क्षेत्रों में जमाव बिंदु (फ्रीजिंग) एक विशेष मौसम में ही होता है, उन ठंडे रेगिस्तानों को ‘टुंड्रा’ कहते हैं। जहां पूरे वर्ष तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से कम रहता है, ऐसे स्थान सदैव बर्फ आच्छादित रहते हैं। ध्रुवीय प्रदेश के अलावा अन्य क्षेत्रों में जल की उपस्थिति बहुत कम होने के कारण रेगिस्तान गर्म होते हैं।

रेगिस्तान में बारिश


प्रायः रेगिस्तान का निर्धारण वार्षिक वर्षा की मात्रा, वर्षा के कुल दिनों, तापमान, नमी आदि कारकों के द्वारा किया जाता है। इस संबंध में सन् 1953 में यूनेस्को के लिए पेवरिल मीग्स द्वारा किया गया वर्गीकरण लगभग सर्वमान्य है। उन्होंने वार्षिक वर्षा के आधार पर विश्व के रेगिस्तानों को 3 विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया है।

1. अति शुष्क भूमि जहां लगातार 12 महीनों तक वर्षा न होती हो तथा कुल वार्षिक वर्षा का औसत 25 मि.मी. से कम हो।

2. शुष्क भूमि जहां पर वर्षा 250 मि.मी. प्रति वर्ष से कम हो।

3. अर्धशुष्क भूमि जहां पर औसत वार्षिक वर्षा 250 से 500 मि.मी. से कम हो।

फिर भी केवल वर्षा की कमी ही किसी क्षेत्र को रेगिस्तान के रूप में निर्धारित नहीं कर सकती है। उदाहरण के लिए फोनिक्स व एरीजोना क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा का स्तर 250 मि.मी. से कम होता है लेकिन उन क्षेत्रों को रेगिस्तान की मान्यता प्राप्त है। दूसरी ओर अलास्का ब्रोक रेंज के उत्तरी ढलान, में भी वार्षिक वर्षा का स्तर भी 250 मि.मी. से कम होता है, परंतु इन क्षेत्रों को रेगिस्तान नहीं माना जाता है।

कोप्पेन जलवायु वर्गीकरण प्रणाली और रेगिस्तान


कोप्पेन जलवायु वर्गीकरण प्रणाली विश्व की सामान्य जलवायु परिस्थितियों को दर्शाती है। इस प्रणाली को जर्मन जलवायु विज्ञानी ब्लादीमीर कोप्पेन (1846-1940) ने विकसित किया था। उन्होंने इस प्रणाली को सन् 1928 में उनके विद्यार्थी रूडोल्फ गाइजर के साथ सुव्यस्थित मानचित्र द्वारा प्रस्तुत किया। कोप्पेन तंत्र द्वारा जलवायु के वर्गीकरण में रेगिस्तान को वनस्पति और जीवों के संदर्भ में परिभाषित किया गया है इसके अनुसार रेगिस्तान में वाष्पीकरण द्वारा जल की हानि कुल वर्षा से अधिक होती है।

रेगिस्तान का वर्गीकरण तापमान को मापदंड मानकर भी किया जाता है। जिसमें 300 सेल्सियस औसत तापमान वाले क्षेत्र गर्म रेगिस्तान तथा शून्य डिग्री सेल्सियस से कम तापमान वाले क्षेत्र ठंडे रेगिस्तान के रूप में वर्गीक्त किए गए हैं। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी के कुल रेगिस्तानी क्षेत्र का 43 प्रतिशत हिस्सा गर्म रेगिस्तान तथा 24 प्रतिशत हिस्सा ठंडे रेगिस्तान के अंतर्गत आता है।

रेगिस्तान का मौसम और भौगोलिक वितरण


भूमंडलीय स्थिति तथा मौसम के प्रभाव के आधार पर भी रेगिस्तान को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है:
1. व्यापारिक पवन (ट्रेड विंड) रेगिस्तान
2. मध्य अक्षांश (मिड लेटीट्यूड) रेगिस्तान
3. वर्षावृष्टि (रेन शैडो) रेगिस्तान
4. तटीय रेगिस्तान
5. मानसूनी रेगिस्तान
6. ध्रुवीय रेगिस्तान

रेगिस्तान और मुख्य स्थलाकृति


रेगिस्तानी भूमि को किसी विशेष रेगिस्तान प्रारूप के आधार पर भी वर्गीकृत किया जाता है - सामान्यतः इस वर्गीकरण के अनुसार रेगिस्तान 6 प्रकार के होते हैं।

1. पर्वतीय और द्रोणी (बेसिन) रेगिस्तान
2. शैली (हैमाडा) रेगिस्तान - जो पठार जैसी स्थलाकृति रखता है
3. रेग्स - चट्टानी क्षेत्र
4. अर्गस - जो रेत के अथाह समुद्र से निर्मित होते हैं
5. अंतरापर्वतीय द्रोणियां (इंटरमाउंटेन बेसिन) 
6. उत्खात भूमि (बैडलेंड) 

पर्वत और द्रोणी रेगिस्तान


पर्वतीय रेगिस्तान बहुत शुष्क होने के साथ ऊंचाई पर स्थित होते हैं। इनके महत्वपूर्ण उदाहरण के रूप में हिमालय के उत्तरी क्षेत्र, पश्चिमी चीन के कुनलुन पर्वत के कुछ क्षेत्र (तिब्बत तथा जिनज्यांग राज्य के मध्य) तथा तिब्बत का पठार आदि क्षेत्रों को लिया जा सकता है। इनमें से अनेक क्षेत्र 3,000 मीटर अथवा 9,843 फीट से भी ऊंचे होते हैं। 40 मि.मी. से भी कम वार्षिक वर्षा वाले ये सभी क्षेत्र शुष्क होते हैं तथा जल के किसी भी स्रोत से कहीं अधिक दूर स्थित होते हैं।

शैली (हैमाडा) रेगिस्तान


हैमाडा शब्द से आश्रय पथरीले रेगिस्तान से है। हैमाडा रेगिस्तान तेज हवाओं से प्रभावित पथरीला व चट्टानी पठार है जहां की धरती पर रेत की पतली तह तथा छोटे-छोटे गोलाकार पत्थर होते हैं। सबसे बड़ा हैमाडा क्षेत्र उत्तर-पश्चिमी सहारा रेगिस्तान का डू ड्रा क्षेत्र है।

रेग्स


वह रेगिस्तान जिनकी धरती की सतह पर पत्थर जड़े हुए से प्रतीत होते हैं (पेवमेंटस्) तथा उस सतह के नीचे महीन बालू होती है, उसे ‘रेग्स’ कहते हैं। किसी भी उर्वर और शुष्क भूमि पर जहां मिट्टी का काफी क्षरण हो चुका हो और नीचे की पथरीली सतह वायु के प्रवाह के कारण उभर कर स्पष्ट हो जाए, तब रेग्स का निर्माण होता है। जहां केवल बजरी और पत्थर (जिन्हें चर्ट और फ्लिंट कहते हैं) लगभग समतल भूभाग निर्मित करें और यह पत्थर एक-दूसरे से भली-भांति जुड़े हुए से हों, तब ये रेग्स की रचना करते हैं। रेग्स एक कठोर आवरण के रूप में, मरुभूमि की रक्षा करने में सक्षम होते हैं।

अर्गस्


रेगिस्तान में अर्ग वात मार्जित बालू से घिरा ऐसा क्षेत्र होता है जहां वनस्पतियां बहुत ही कम होती हैं। अर्ग शब्द अरबी भाषा से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ ‘टिब्बा (कनदम) या रेतीला टीला’ है। उत्तरी तथा दक्षिणी अफ्रीका, मध्य और पश्चिमी अफ्रीका एवं मध्य आस्ट्रेलिया में विश्व के कुछ विशाल अर्ग स्थित हैं।

अंतरापर्वतीय द्रोणियां


पर्वतीय श्रृंखलाओं के बीच स्थित रेगिस्तान को अंतरापर्वतीय द्रोणियां कहते हैं।

उत्खात भूमि (बैडलैंड)


उत्खात भूमि चिकनी मिट्टी से भरपूर रूक्ष क्षेत्र होता है। उत्खात भूमि में सामान्य रूप से गंभीर खड्ड (केनियन), अवनालिकाएं और खड्ड एवं अन्य प्रकार की स्थलाकृतियां मिलती हैं। इन क्षेत्रों में सीधी ढालें, शिथिल शुष्क भूमि, चिकनी मिट्टी और गहरी बालू स्थानांतरित होती रहती है जिससे इनके चारों ओर का वातावरण अन्य उपयोगों के लिए अनुपयुक्त हो जाता है। वैसे तो उत्खात भूमि रूक्ष क्षेत्र है लेकिन बारिश की तेज फुहार, वनस्पतियों की विरलता और मृदु अवसाद इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर क्षरण का सिद्ध होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में उत्खात भूमि देखी जा सकती है।

रेगिस्तान के अन्य प्रकार


रेगिस्तान के अन्य प्रकार भी हैं। यह क्षेत्र वनस्पतियों के स्थिरीकरण के कारण असक्रिय होकर रेतीले क्षेत्र में बदल गये हैं। वनस्पतियों के स्थिरीकरण से बना रेगिस्तानवनस्पतियों के स्थिरीकरण से बना रेगिस्तानइसी प्रकार के कुछ रेतीले और असक्रिय क्षेत्र पीलोडेजर्ट कहलाते हैं। कुछ पीलोडेजर्ट अब के कोर रेगिस्तानों के किनारों से अधिक फैले हुए हैं जैसे सहारा रेगिस्तान। आज का सहारा रेगिस्तान उर्वर सवाना और रेगिस्तान के बीच परिवर्तन से बना है।

अन्य ग्रहों पर स्थित रेगिस्तानों को भौमेतर (एक्सट्राटेरिस्ट्रियल) रेगिस्तान कहते हैं।










राजस्थान - थार का मरुस्थल

पानी है तो सब कुछ है। और जहां पानी नही है वहां क्या है? आओ अपने देश के उस सब से सूखे हिस्से को देखे जहां बहुत ही कम पानी बरसता है। यह है राजस्थान प्रांत के पश्चिम का मैदानी भाग जो थार मरुस्थल कहलाता है।

लूनी नदी राजस्थान के पश्चिमी भाग में बहने वाली एक ही बड़ी नदी है। इसमें भी साल भर पानी नहीं बहता। लूनी के और पश्चिम में पड़ने वाले इलाके में तो कोई नदी दिखती ही नहीं है।

वर्षा


भारत में वर्षा का मानचित्र देखो और समझो कि राजस्थान में किस तरह पूर्व से पश्चिम की ओर जाने पर वर्षा कम होती जाती है।

थार के मरुस्थल में बहुत कम वर्षा तो होती ही है, पर कई साल ऐसे भी गुजर जाते है जब एक बूंद पानी नहीं बरसता।

कई वर्षों बाद कभी-कभी एकाएक काफी बारिश हो जाती है तो अचानक सूखे नदी-नालों में बाढ़ आ जाती है। पर जल्दी ही यह पानी सूख जाता है। इतना पानी भी नहीं होता कि नदी या नाले दूर तक बह सकें। आओ ऐसे सूखे इलाके के जीवन को समझें।

मरुस्थल में लोगों का जीवन


मरुस्थल का मतलब है मृत्यु इलाका- जहां प्यास लोगों, जानवरों और पौधों को मार सकती है। पानी की भंयकर कमी के समय अगर लोग जानवर यहां से कूच न कर जाएं तो उन्हें मृत्यु का सामना करना पड़ सकता है। यहां के लोगों का जीवन ऐसे संकट से बचे रहने के उपाय करते हुए बीतता है।

वनस्पति और आबादी


पानी की कमी के कारण ही मरुस्थल में दूर-दूर तक पेड़ नहीं दिखते। कई तरह की छोटी कंटीली झाड़ियां और घास उगती हैं। बस कहीं-कहीं इक्के दुक्के खेजड़ी के पेड़ नजर आ जाते हैं। मरुस्थल के अधिकांश गांव बहुत छोटे हैं, जिनमें 500 से कम लोग रहते है। तुम भारत की जनसंख्या के मानचित्र में देख सकते हो कि मरुस्थल में आबादी कितनी कम है।

भेड़ पालन


यहां गांव के लोग बड़ी संख्या में भेड़ बकरी पालते हैं। पानी की कमी के वक्त घास और कंटीली झाड़ियों के सहारे ही ये जानवर गुजारा कर पाते हैं। भेड़ों की ऊन और मांस के लिए भेड़ों व बकरियों की बिक्री अच्छी होती है। दिल्ली, बंबई जैसे बड़े शहरों में मांस की मांग बढ़ती जा रही है। ऊन की कई चीजे बनती है जो देश-विदेश में बिकती है।

खेती


मरुस्थल के लोगों के लिए भेड़पालन का धंधा महत्वपूर्ण है। यहां पानी की कमी के कारण खेती बहुत कम होती है। साल में किसी तरह एक फसल हो जाए तो बहुत समझो। गांव के लोग बरसात में बाजरा बोते हैं। बाजरा यहां की रेतीली मिट्टी और कम पानी में भी उग जाता है। जुलाई में बाजरा बोया और अक्टूबर में काट लिया।

इसके बाद अगली बरसात तक खेत सूने पड़े रहते हैं। बाजरे की थोड़ी सी फसल से साल भर का काम तो नहीं चल पाता। इसलिए भेड़पालन का धंधा बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन भेड़ पालन का धंधा भी मरुस्थल में रह कर नहीं किया जा सकता।

यहां इतनी हरियाली कहां कि बड़ी संख्या में भेड़ बकरियां चराई जा सके? इस स्थिति में मरुस्थल के लोग साल भर अपना काम कैसे चलाते है? उनकी बरसाते, गर्मियां और सर्दियां कैसे कटती हैं- यह हम आगे पढ़ेंगे।

बरसात के दिन


मरुस्थल में थोड़ी-सी बरसात में भी बहुत घास उग आती है। खास कर सेवन घास, जो भेड़ों के लिए अच्छा चारा है। बरसात के दिनों में तो भेड़ों को गांव के आसपास चरा लिया जाता है। इन्हीं दिनों बाजरे की खेती का काम भी रहता है।

बरसात में ही पानी जमा करने के लिए कई इंतजाम देखने होते हैं क्योंकिे साल भर फिर पानी का और कोई साधन नहीं होता है।

कई घरों में बीच के आंगन में पक्के टांके (टंकी) होते हैं जिनमें बरसात का पानी इकट्ठा हो जाता है। छत से बहने वाले पानी का निकास ऐसा बनाया जाता है कि पानी टांके में ही गिरे। फिर महीनों तक इस पानी को बहुत बचा-बचा के इस्तेमाल किया जाता है। इस पानी से मनुष्य का काम भी चलता है और जानवरों का भी। कई जगह लोग चारपाई पर बैठकर नहाते हैं और चारपाई के नीचे रखे एक बरतन में इस पानी को इकट्ठा कर लेते हैं। यह पानी घर साफ करने व जानवरों को पिलाने के काम में आ जाता है। यहां लोग सूखी रेत से ही बर्तन मांज लेते हैं। रेत की रगड़ से पीतल के बर्तन को खूब चमका भी देते हैं।

रेतीले मैदान में यहां-वहां पाए जाने वाले गड्ढों या तालाबों में भी बरसात का पानी इकट्ठा होता है। इन छोटे तालाबों का पानी धीरे-धीरे चारों तरफ रिसता रहता है। यह रिसता हुआ पानी बेकार न चला जाए, इसके लिए लोग तालाब के चारों तरफ 25-30 फीट गहरी कुंइयां या बेरियां खोदते हैं। तालाब से रिसता पानी इन कुंइयों में इकट्ठा होता रहता है। जब महीनों बाद तालाब का पानी खत्म हो जाता है तब भी लोगों को अपनी कुंइयों में पानी मिल जाता है।

जहां तालाब व गड्ढे नहीं होते हैं, वहां लोग खुद आसपास की ढाल को देखते हुए जमीन खोदकर पक्की कुंइयां और कुंड बनाते हैं ताकि चारों तरफ गिरा बरसात का पानी इनमें इकट्ठा होता जाए। बरसात के पानी को इकट्ठा करके रखने के ये इंतजाम बहुत जरूरी हैं क्योंकि मरुस्थल में भूजल बहुत नीचे मिलता है। कुंओं में बहुत नीचे व बहुत कम पानी मिलता है। कई कुंओं का पानी खारा होता है।

सारे इंतजामों के बावजूद कई गांवों में लोगों को मीलों चल कर पानी लाना पड़ता है। कहीं औरतें मीलों तक सिर पर घड़े उठाए चलती हैं, तो कहीं ऊंट और गधों पर घड़े लाद के लाए जाते है।

सर्दियां


अक्टूबर में बाजरा कट जाता है। तब खेतों में बाजरे के डंठल खड़े होते है और भेड़ों को चराने के काम आते हैं। इन दिनों भेड़ों पर अच्छी मात्रा में ऊन होता है। क्योंकि उन्हें बरसात में चारा ठीक से मिला था (सिर्फ उन सालों में जब बारिश हुई हो, कई साल तो बारिश ही नहीं होती)।

गांव के सारे परिवार अपनी-अपनी भेड़ों का ऊन काटते हैं। काटने से पहले भेड़ों को धो कर साफ भी कर लेते हैं। ऊन में फंसे कांटे भी निकाल लेते हैं। ऐसे साफ ऊन की कीमत ज्यादा मिलती है। व्यापारी गांव आ कर ऊन खरीद ले जाते हैं।

गांव से दूर जाने की तैयारी


बाजरा कट चुका है। भेड़ों से ऊन भी उतर चुका है। अब सर्दियों के दिन आ ही गए हैं। गांव के आसपास बरसात में उगी घास भेड़े चर चुकी हैं और खेतों में खड़े डंठल भी। अब गांव में रह कर चारा नहीं मिलेगा। सर्दियों और गर्मियों भर जानवरों को क्या खिलांएगे- यह सवाल सब के सामने खड़ा हो जाता है। लोग चारे की तलाश में दूर-दूर तक जाने की तैयारी करने लगते हैं।

मरुस्थल के भेड़ पालक हर साल जाते हैं और कई सालों से जाते रहे हैं।इसलिए अब इनके बंधे-बंधाए रास्ते हैं, जहां चारा मिलने का पूरा भरोसा रहता है। यहां दिए नक्शे में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब राज्य दिखाए गए है। राजस्थान के जैलसमेर और बीकानेर के मरुस्थली क्षेत्रों से भेड़पालक कहां-कहां जाते हैं, यह तीरों से दिखाया गया है।

भेड़पालकों के साथ यात्रा


चलो, भेड़पालकों के एक झुंड के साथ हो लें व देखें कि उनके सफर में क्या-क्या होता है.....

जैसलमेर के दो गांवों से 50 भेड़पालक 6,000 भेड़ों और 20-22 ऊंटों के साथ निकले हैं। दोनों गांवों के लगभग सभी घरों से एक-एक दो-दो लोग अपनी-अपनी भेड़ और ऊंट ले के चले हैं। किसी परिवार के पास 70-80 भेड़ हैं। किसी के पास 100-200 भेड़ हैं और कुछ के पास 300 भेड़ भी हैं- गांव में जिन परिवारों के पास जिन परिवारों के पास 40-50 भेंड़ तक हैं- वे इस साल बाहर नहीं जा रहे हैं। वे आसपास थोड़ी दूर तक घूम कर अपनी भेड़ चरा लेंगे।

गांव में औरतें, बच्चे और बूढ़े रह गए हैं। हां, कुछ भेड़पालकों के साथ उनकी औरतें और बच्चे भी चल रहे है। ऊंटो पर सामान लाद दिया गया है और लोग अपने लंबे सफर पर चल पड़े हैं।

पूर्व दिशा में अधिक वर्षा वाले इलाके हैं। भेड़ों को रास्ते में पड़ने वाले बाजरे के कटे खेतों पर चराते हुए लोग जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं तो खेजड़ी और बबूल के पेड़ ज्यादा संख्या में दिखाई देने लगते हैं। इन पेड़ो की पत्तियां और फलियां भेड़ों के लिए बहुत अच्छा चारा है। हमारे भेड़पालक साथी इन पेड़ों की टहनियां काट-काट कर अपनी भेड़ों को खिला रहे हैं। पूर्वी इलाकों में कुछ अधिक वर्षा के कारण ज्यादा जमीन पर खेती होती है, इसलिए खेतों में खड़े डंठल भी ज्यादा मिल रहे हैं।

भेड़ों की देखभाल


हमारे भेड़ पालक साथी रास्ते भर कई चिंताओ से जूझते हैं। महीने भर से चलते-चलते उनकी भेड़ें थक रही हैं। रास्ते में कई बार चारा ठीक से नहीं मिला। ठंड भी बहुत तेज है। भेड़े बीमार पड़ रही है। कई लोग उधार लेने की सोच रहे हैं। रास्ते में पड़ने वाले छोटे शहर में ऊन का व्यापारी रहता है। वह पहचान का आदमी है। लोग उससे पैसे उधार लेते हैं। बाजार से बाजरे का आटा, गुड़ और तेल खरीदते हैं। इन चीजों को मिलाकर रोज भेड़ों को खिलाएंगे। बाजार से दवाई भी खरीदनी पड़ रही है।

दिन भर चलते-चलते जब शाम हो जाती है तो कहीं खेत में, या खुले में डेरा डाल दिया जाता है। ऊंटो से सामान उतारा जाता है और पट खाना पकाने की तैयारी शुरू होती है। बाजरे की रोटी और दाल बनाई जाती है और मिर्ची-प्याज के साथ खाई जाती है। सुबह उठकर भेड़ के दूध की चाय पीकर एक बार फिर बाजरे की रोटी बनाई जाती है। और यह मिर्च व प्याज के साथ खाई जाती है। तब लोग सामान बांध कर दिन भर के सफर के लिए निकल पड़ते हैं।

भेड़ों की हालत नाजुक होने से पहले ही उनके लिए खुराक और दवा का इंतजाम न किया तो नुकसान बहुत होता है। जानवर रास्ते में मरने लगते हैं। बीमार जानवरों को भी लंबे रास्ते भर हांक के ले जाना मुश्किल होता है। इसलिए, अक्सर बीमार जानवर को रास्ते में ही बेच दिया जाता है। बीमार जानवर की बिक्री की बहुत अच्छी कीमत तो नहीं मिलती, पर फिर भी कुछ रकम तो वसूल हो ही जाती है। इस रकम से बाकी भेड़ों के लिए खुराक व दवाएं खरीदने में मदद मिलती है।

अरावली पहाड़ियों के पास


चलते-चलते दो महीने बीत गए। लो, अब पूर्व में अरावली की पहाड़ियां दिखने लगी है।

अरावली के आसपास के इस इलाके में कई किसान ट्यूबवेल से सिंचाई करने लगे है। वे सर्दियों में गेंहू और चने की फसल लेने लगे है। ऐसे सिंचित खेतों में भेड़ चराना संभव नहीं है। वे असिंचित खाली खेतों में ही जानवर बिठा सकते है। खेतों के मालिक खेत में उगे पेड़ों की पत्तियां जानवरों को खिलाने देते हैं। कई बार, वे भेड़ पालको को कुछ पैसे भी देते हैं।

सर्दियों के महीने इसी तरह मुश्किल से कटते हैं। 4-5 महीनों में भेड़ों पर फिर ऊन हो गया है। घर से दूर, यात्रा के बीच, भेड़ों को साफ करने और खुद उनका ऊन काटने का साधन भी नहीं है और समय भी नहीं है। इसलिए डेरे पर पास के शहर या गांव से ऊन काटने वालों को बुला कर उन्हें पैसे देकर ऊन कटवाई गई। ये लोग एक भेड़ की ऊन काटने का 50 पैसे से 1 रुपया तक लेते हैं।

ऊन व्यापारी की दुकान रास्ते में पड़ने वाले सभी कस्बो-शहरों में है। व्यापारी खुद डेरे पर आकर लोगों से संपर्क साध लेते हैं और ऊन खरीद ले जाते है। सर्दियों के अंत में काटी गई यह ऊन, मात्रा में कम है और साफ भी नहीं है। ऊन की मात्रा कम है क्योंकि सर्दियों भर भेड़ों को अच्छे से चरने को नहीं मिला है। इसलिए इस ऊन से ज्यादा आमदनी नहीं मिलती।

ऊन बेच कर जो पैसे मिले हैं उससे हमारे भेड़पालक साथियों ने व्यापारी का उधार चुकाया है क्योंकि सर्दियों के शुरू में उसी से खुराक और दवाई के लिए पैसे उधार लिए थे। बची हुई रकम गांव भेजी है। गांव में परिवार के लोगों के पास अनाज खत्म हो रहा होगा और वहां गुजारा करना मुश्किल हो रहा होगा। इसलिए उन्हें पैसे भेजना जरूरी है।

गर्मियां


मार्च-अप्रैल का महीना आया। अब लोग हरियाणा की ओर चल दिए हैं। हरियाणा में नदी से निकली नहरों से सिंचाई होती है। रबी में लगभग सभी खेतों में गेंहू है और मार्च में कटता है। अब सभी खेतों में गेहूं के भरपूर डंठल खड़े मिलेंगे। इनमें भेड़े जी भर के चरेंगी।

हरियाणा में चारों तरफ देशी बबूल भी बहुत उगता है। इसकी पत्तियां और फलियां भेड़ों के लिए अच्छा भोजन हैं। हां, यह ध्यान रखना पड़ता है कि भेड़ विलायती बबूल की फलियां न खा ले - ये भेड़ों के लिए जहरीली होती है। अप्रैल मई जून भर हरियाणा के खेतों में चरने को मिलता है।

वापसी यात्रा


गर्मियां निकल गई। अब बरसात के दिन आने वाले है। हरियाणा के खेतों में भी हल चलेंगे। बोनी की तैयारियां होगी। यहां अब भेड़ों को चराना संभव नहीं होगा। हमारे भेड़पालक साथियों को भी मरुस्थल के अपने गांव लौटना है। वहां बरसात में घास उग आएगी।

इसलिए जून-जुलाई में वापसी का रास्ता पकड़ लिया जाता है। गर्मियों में वापसी की लंबी यात्रा भी कठिनाई भरी होती है। रास्ते में सभी खेतों पर बरसात की बोनी की तैयारियां हो रही होती हैं। सिर्फ सड़क किनारे उगी घास व पेड़ों की पत्तियों से ही भेड़ों को पेट भरना पड़ता है। जब तक गांव लौटेंगे, तब तक बारिश हो जाएगी तो चारा मिलेगा- इस उम्मीद में वापसी यात्रा पूरी होती है। इस तरह हमारे भेड़ पालक साथी साल-दर-साल अपना जीवन बिताते है। ऐसे में अगर गांव लौटे और बरसात के महीने सूखे बीत जाएं तो?

सूखा


1987 में यही संकट आ घिरा। घर लौटे और एक बूंद पानी नहीं बरसा, न घास उगी, न बाजरा। झाड़ियों की थोड़ी बहुत पत्तियां कुछ दिनों में चर के खा ली गई। अब कहां जाएं? यह सवाल था। पूरे पश्चिम राजस्थान में सूखा था। हरियाणा वापस तो नहीं जा सकते थे- वहां तो खेतों में फसल खड़ी थी। गांवों पर ही रहे - तो जानवरों को मरने से बचाएं कैसे? जानवर भी मर जाएं तो खुद का गुजारा किस के सहारे करें? खेती तो पहले ही साथ छोड़ चुकी थी।

जानते हो इस हालत में मरुस्थल के सैकड़ों भेड़ पालकों ने क्या किया? पैसे उधार लिए - ट्रक किराए पर लिए और ट्रकों में अपनी भेड़े लाद के मध्य प्रदेश के जंगलों की ओर रवाना हुए। भेड़ो को हांक के लाते तो रास्ते भर उन्हें चरने को नहीं मिलता और भेड़े दम तोड़ देती। इसीलिए ट्रक पे चढ़ा के लाना पड़ा। जंगल में चराना जरूरी हो गया क्योंकि उस समय खेतों में चराया नहीं जा सकता था।

जंगल में हजारों की संख्या में भेड़े चरने आ गई। वन विभाग ने इस पर रोक लगाने की कोशिश की और भेड़ पालकों को बहुत जुर्माना देना पड़ा। वे पहले ही परेशान थे, अब सरकारी रोक-टोक के कारण और परेशान हुए।

रेत के टीले
मरुस्थल में जगह-जगह रेत के बड़े-बड़े टीले हैं। तेज हवाओं के साथ टीलों की रेत उड़कर आगे चली जाती है और इस तरह दूसरी जगह टीला बन जाता है। गर्मियों के बिलकुल सूखे महीनों में रेत की आंधियां चलती हैं। घर के बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है।

जैसलमेरबीकानेरगंगानगर में जगह-जगह रेत के टीले देखे जा सकते हैं। गंगानगर की सिंचित खेती में रेत के टीलों और आंधियों ने बहुत कठिनाई पैदा की है। सिंचाई की नालियां बार-बार रेत से बंद हो जाती है। खेत में बोई गई फसल पर रेत जम जाती है और छोटे पौधे दब जाते हैं। खेत में कई बार बखरना और बोना पड़ता है। बीच-बीच में नालों सेपौधों से रेत हटानी पड़ती है।

खिसकते हुए रेत के टीलों पर घास व झाड़िया भी नहीं उग पाती। इसलिए ये चराई के काम भी नहीं आते। टीलों पर झाड़ियां लगाकर उन्हें स्थाई बनाने की कोशिश की जा रही हैताकि उनसे रेत न उड़े और उन पर उगी झाड़ियों से जलाऊ लकड़ी और जानवरों का चारा मिलने लगे।

इस तरह हम समझ सकते हैं कि सूखे इलाकों के लोगों के जीवन की कई कठिन समस्याएं हैं और उनका निदान भी आसान नहीं है।


जंगल में बड़ी संख्या में भेड़ों को चरने देने के लिए ऐसी कोई व्यवस्था करनी होगी ताकि जंगल को नुकसान न हो। यह इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि आज राजस्थान के सैकड़ों भेड़पालक 15-20 लाख भेड़ों को लेकर अपने गांव पूरी तरह छोड़ चुके है। वे अब बरसात में भी वापस नही जाते क्योंकि कई सालों से सूखा पड़ रहा है। वे पूर्वी राजस्थान और मध्य प्रदेश के जंगलों और मध्य प्रदेश के खेतों के बीच घूमते रहते है।

भेड़पालकों के साथ अपनी यात्रा हम यही समाप्त करे। यात्रा उनके जीवन का नियम है। वे जहां रहते हैं, वहां के हालात उन्हें एक जगह बस कर नहीं रहने देते। इसीलिए उनका जीवन तुम्हारे यहां के लोगों के जीवन से इतना फर्क है।

ऊंट

रेगिस्तान का जहाज है ऊंटयह तुमने जरूर पढ़ा होगा। कुछ लोग यह सोचते हैं कि ऊंट की कूबड़ में पानी भरा रहता है इसलिए ऊंट कई दिनों तक बिना पानी पीए रह लेता है। दरअसल ऊंट की कूबड़ में चर्बी जमा रहती है। जब ऊंट को अच्छा चारा मिलता है तब उसकी कूबड़ में चर्बी चढ़ जाती है। जब कड़की का समय आता है तो ऊंट इसी चर्बी को खर्च करता रहता है और दुबला हो जाता है। हमारे साथ भी यही बात होती है। यह जरूर है कि चर्बी में हाइड्रोजन के कण है जो सांस में ली गई ऑक्सीजन के साथ मिलकर पानी बन जाते हैं। ऊंट के गद्दीदार पैर भी रेत में धंसते नहीं हैं और रेत पर तेजी से जल पाते हैं। अच्छे ऊंट एक घंटे में16 किलोमीटर तक चल लेते हैं।


सूखे में हरियाली लाने की कोशिश


मरुस्थल में सिंचाई


पश्चिमी राजस्थान में नदियां नहीं हैं। पर ठीक इसके उत्तर में पंजाब राज्य है। वहां सतलज, व्यास, रावी नदियों में साल भर काफी पानी रहता है। 1958 में सतलज नदी से 649 किलोमीटर लंबी नहर पहुंचाने की एक योजना शुरू हुई। यह राजस्थान नहर परियोजना है। इससे मरुस्थल के उत्तरी हिस्सों में सिंचाई होने लगी है। खासकर गंगानगर जिले में। यहां बिलकुल सूखे, रेतीले इलाके में साल भर नहर का पानी बहता है। इससे गंगासागर के सिंचित इलाकों को हुलिया ही बदल गया है।

यहां बाजरे की एक फसल की जगह साल में दो फसलें ली जाती है। गेहूं, चना, कपास, ग्वार, गन्ना, मूंगफली, जीरा, धनिया, मिर्च-कितनी फसलें ली जाने लगी है बीच रेगिस्तान में।

गंगानगर में पहले आबादी बहुत कम थी। नहर आने के बाद सरकार ने पंजाब-हरियाणा के कई किसानों को गंगानगर में बसाया। ये किसान सघन खेती करने में अनुभवी थे। राजस्थान के भी कई किसानों ने सिंचित सघन खेती अपनाई। साल भर सिंचित खेती के होने से, पशुपालन में कठिनाइयां आने लगी। हल व ट्रैक्टर से, सेवन घास उखाड़ दी गई। चारों ओर साल भर खेतों में फसल खड़ी रहती है, तो जानवर चराना मुश्किल हो गया। कई लोगों ने जानवर बेच डाले।

सिंचित खेती के कुछ ही सालों में ऐसी गंभीर समस्या खड़ी होने लगी। रेतीली जमीन में पानी देने से जमीन के नीचे पानी का स्तर ऊंचा होने लगा। यह इसलिए हुआ क्योंकि जमीन से सिर्फ 5 से 20 फीट की गहराई पर खड़िया मिट्टी की कड़ी परत थी। इस परत के ऊपर ही ऊपर नहरों से रिसा पानी इकट्ठा होने लगा और भूजल का स्तर उठने लगा। लगभग 500 वर्ग किलोमीटर का इलाका दलदल बन जाने की स्थिति में है और जमीन भी खारी होती जा रही है। इससे सिंचित खेती को बहुत खतरा है।

कई लोग का सुझाव है कि मरुस्थल में सिंचाई से खेती को बढ़ाने की अपेक्षा पशुपालन को ही बढ़ाना चाहिए। सिंचाई के पानी से घास, झाड़ियां आदि उगानी चाहिए। इससे दलदल की समस्या कम होगी और लोगों की जीविका का पुराना तरीका पशुपालन प्रगति करेगा। सरकार ने घोषणा भी की है कि अब मरुस्थल में नहर से चारागाहों का विकास करने पर जोर दिया जाएगा।

Friday, 29 March 2019

राजस्थान का इतिहास

राजस्थान का इतिहास

पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार राजस्थान का इतिहास पूर्व पाषाणकाल से प्रारंभ होता है। आज से करीब एक लाख वर्ष पहले मनुष्य मुख्यतः बनास नदी के किनारे या अरावली के उस पार की नदियों के किनारे निवास करता था। आदिम मनुष्य अपने पत्थर के औजारों की मदद से भोजन की तलाश में हमेशा एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते थे, इन औजारों के कुछ नमूने बैराठ, रैध और भानगढ़ के आसपास पाए गए हैं।
अतिप्राचीनकाल में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान वैसा बीहड़ मरुस्थल नहीं था जैसा वह आज है। इस क्षेत्र से होकर सरस्वती और दृशद्वती जैसी विशाल नदियां बहा करती थीं। इन नदी घाटियों में हड़प्पा, ‘ग्रे-वैयर’ और रंगमहल जैसी संस्कृतियां फली-फूलीं। यहां की गई खुदाइयों से खासकरकालीबंग के पास, पांच हजार साल पुरानी एक विकसित नगर सभ्यता का पता चला है। हड़प्पा, ‘ग्रे-वेयर’ और रंगमहल संस्कृतियां सैकडों किलोमीटर दक्षिण तक राजस्थान के एक बहुत बड़े इलाके में फैली हुई थीं।
इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि ईसा पूर्व चौथी सदी और उसके पहले यह क्षेत्र कई छोटे-छोटे गणराज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से दो गणराज्य मालवा और सिवि इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने सिकंदर महान को पंजाब से सिंध की ओर लौटने के लिए बाध्य कर दिया था। उस समय उत्तरी बीकानेर पर एक गणराज्यीय योद्धा कबीले यौधेयत का अधिकार था। महाभारत में उल्लिखित मत्स्य पूर्वी राजस्थान और जयपुर के एक बड़े हिस्से पर शासन करते थे। जयपुर से 80 कि॰मी॰ उत्तर में बैराठ, जो तब 'विराटनगर' कहलाता था, उनकी राजधानी थी। इस क्षेत्र की प्राचीनता का पता अशोक के दो शिलालेखों और चौथी पांचवी सदी के बौद्ध मठ के भग्नावशेषों से भी चलता है।
भरतपुरधौलपुर और करौली उस समय सूरसेन जनपद के अंश थे जिसकी राजधानी मथुरा थी। भरतपुर के नोह नामक स्थान में अनेक उत्तर-मौर्यकालीन मूर्तियां और बर्तन खुदाई में मिले हैं। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि कुषाणकाल तथा कुषाणोत्तर तृतीय सदी में उत्तरी एवं मध्यवर्ती राजस्थान काफी समृद्ध इलाका था। राजस्थान के प्राचीन गणराज्यों ने अपने को पुनर्स्थापित किया और वे मालवा गणराज्य के हिस्से बन गए। मालवा गणराज्य हूणों के आक्रमण के पहले काफी स्वायत्त् और समृद्ध था। अंततः छठी सदी में तोरामण के नेतृत्तव में हूणों ने इस क्षेत्र में काफी लूट-पाट मचाई और मालवा पर अधिकार जमा लिया। लेकिन फिर यशोधर्मन ने हूणों को परास्त कर दिया और दक्षिण पूर्वी राजस्थान में गुप्तवंश का प्रभाव फिर कायम हो गया। सातवीं सदी में पुराने गणराज्य धीरे-धीरे अपने को स्वतंत्र राज्यों के रूप में स्थापित करने लगे। इनमें से मौर्यों के समय में चित्तौड़ गुबिलाओं के द्वारा मेवाड़ और गुर्जरोंके अधीन पश्चिमी राजस्थान का गुर्जरात्र प्रमुख राज्य थे।
लगातार होने वाले विदेशी आक्रमणों के कारण यहां एक मिली-जुली संस्कृति का विकास हो रहा था। रूढ़िवादी हिंदुओं की नजर में इस अपवित्रता को रोकने के लिए कुछ करने की आवश्यकता थी। सन् 647 में हर्ष की मृत्यु के बाद किसी मजबूत केंद्रीय शक्ति के अभाव में स्थानीय स्तर पर ही अनेक तरह की परिस्थितियों से निबटा जाता रहा। इन्हीं मजबूरियों के तहत पनपे नए स्थानीय नेतृत्व में जाति-व्यवस्था और भी कठोर हो गई।

मध्यकाल

राजा रवि वर्मा कृत महाराणा प्रताप
राजस्थान में प्राचीन सभ्यताओं के केन्द्र:
  • कालीबंगा, हनुमानगढ
  • रंगमहल, हनुमानगढ
  • आहड, उदयपुर
  • बालाथल, उदयपुर
  • गणेश्वर, सीकर
  • बागोर [1], भीलवाडा
  • बरोर, अनूपगढ़
राजस्थान भारत के उत्तर-पश्चिम में बसा हुआ राज्य है। राज्य में पर्यटकों का मुख्य आकर्षण विशाल थार रेगिस्तान और दुनिया की प्राचीनतम स्मारक रेंज, अरावली है। यहाँ के मंदिरों, किलो और महलों में दिखने वाली राजपुताना विरासत की स्थापना राजपूत राजा जैसे बाप्पा रावल, राणा कुम्भा, राणा सांगा और राणा प्रताप ने की है।
राजस्थान राज्य का इतिहास 5000 वर्ष पुराना है। राजस्थान के इतिहास को तीन भागो में विभाजित किया जा सकता है – प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक।
प्राचीन काल, 1200 AD तक :
राजपूत वंश की उत्पत्ति हुई और 700 AD से ही वे राजस्थान के विविध भागो में रहने लगे थे। इससे पहले, राजस्थान बहुत से गणराज्यो का भाग रह चूका था। यह मौर्य साम्राज्य का भी भाग रह चूका था। इस क्षेत्र पर कब्ज़ा करने वाले मुख्य गणराज्यो में मालवा, अर्जुन्या, योध्या, कुशान, सका सत्रप, गुप्ता और हंस शामिल थे।
भारतीय इतिहास में राजपूतों का प्रभुत्व आठवी और बारहवी शताब्दी AD के समय देखा गया था। 750 से 1000 AD के समय में प्रतिहार ने राजस्थान और उत्तरी भारत के ज्यादातर क्षेत्र पर शासन किया था। 1000 से 1200 AD के बीच राजस्थान को चालुक्य, परमार और चौहान के बीच संघर्ष करना पड़ा।
मध्यकालीन समय, 1201-1707 :
इसवी सन 1200 AD में राजस्थान का कुछ भाग मुस्लिम शासको के कब्जे में आ गया था। उनकी शक्ति के केंद्रीय स्थानों में नागौर और अजमेर शामिल थे। रण थम्बोर भी अधीनता के तहत ही था। 13 वी शताब्दी AD के शुरू में, राजस्थान का सबसे मुख्य और शक्तिशाली राज्य, मेवाड़ था।
आधुनिक समय, 1707-1947 :
मुग़ल सम्राट के कब्ज़ा करने से पहले राजस्थान कभी भी राजनितिक रूप से एकता के सूत्र में नही बंधा। मुग़ल सम्राट अकबर ने राजस्थान में एकीकृत सिद्धता का निर्माण करवाया। 1707 के बाद मुग़ल शक्तियां कम होने लगी और उनका प्रभाव भी कम होने लगा। मुग़ल साम्राज्य के पतन होते ही मराठा साम्राज्य ने राजस्थान पर आँख जमा ली। 1755 में उन्होंने अजमेर पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद 19 वी शताब्दी के शुरू में पिंडारी द्वारा हमला किया गया।

राजस्थान की भाषा – Rajasthan language

हिंदी राज्य की सर्वाधिक बोली जाने वाली और अधिकारिक भाषा है। और साथ ही लोग उर्दु/ सिन्धी, पंजाबी, संस्कृत और गुजराती भाषा का भी उपयोग करते हैं।

राजस्थान की संस्कृति – Culture of Rajasthan

राजस्थान सांस्कृतिक रूप से समृद्ध है और इसके प्राचीन इतिहास का प्रभाव इसकी कलात्मक और सांस्कृतिक परंपरा पर दिखाई देता है। यहाँ अलग-अलग प्रकार की समृद्ध लोक संस्कृति है, जिसे अक्सर राज्य का प्रतिक भी माना जाता है।
खेती और शास्त्रीय संगीत के विविध प्रकार राजस्थान की सांस्कृतिक परंपरा के भाग है। यहाँ के संगीत में वह गीत है जो दैनिक संबंध और काम को चित्रित करते है, यहाँ के गीतों में अक्सर कुओ और तालाब से जल निकालने की क्रिया पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
राजस्थान का नृत्य – Dance of rajasthan
जोधपुर मारवाड़ के घूमर नृत्य और जैसलमेर के कालबेलिया नृत्य ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना रखी है। लोक संगीत राजस्थान की संस्कृति का विशाल भाग है। कठपुतली, भोपा, चांग, तेराताली, घिंद्र, कच्छी घोरी और तेजाजी पारंपरिक राजस्थानी संस्कृति के उदाहरण है। लोक गीतों में सामान्यतः बलाड शामिल है, जो वीर विलेख और प्रेम कथाओ से सम्बंधित है और धार्मिक और भक्तिगीतो को भजन और बाणी के नाम से जाना जाता है, जिन्हें अक्सर ढोलक, सितार और सारंगी का उपयोग कर गाया जाता है।
राजस्थान की कला – Art of Rajasthan
राजस्थान अपनी पारंपरिक और रंगीन कला के लिए जाना जाता है। ब्लॉक प्रिंट, टाई और डाई प्रिंट, बगरू प्रिंट, संगनेर प्रिंट और ज़री कढाई राजस्थान से निर्यात किये जाने वाले मुख्य उत्पादों में से एक है। हस्तशिल्प वस्तुए जैसे लकड़ी के फर्नीचर और शिल्प, कारपेट और मिट्टी के बर्तन हमें यहाँ देखने मिलते है। खरीददारी यहाँ की रंगीन संस्कृति को दर्शाती है। राजस्थानी कपड़ो में बहुत सारा दर्पण काम और कढाई की हुई होती है। यहाँ के लहेंगा और चनिया चोली काफी प्रसिद्ध है। सिर को ढकने के लिए कपडे के टुकड़े का उपयोग किया जाता है। राजस्थान पोशाख ज्यादातर गहरे रंग जैसे नीले, पीले और केसरियां रंग में बने होते है।
राजस्थान के मुख्य धार्मिक महोत्सव – Rajasthan’s main religious festival
राजस्थान के मुख्य धार्मिक महोत्सवो में दीपावली, गणगौर, तीज, गोगाजी,होली, श्री देवनारायण जयंती, मकर संक्रांति और जन्माष्टमी शामिल है। राजस्थान रेगिस्तान महोत्सव का आयोजन हर साल ठंड के मौसम में किया जाता है। पारंपरिक वेशभूषा में लोग रेगिस्तान नृत्य करते है बलाड गीत गाते है। साथ ही यहाँ मेले का भी आयोजन किया जाता है। इन महोत्सव में ऊँट मुख्य भूमिका निभाते है।
राजस्थान के आकर्षक करने वाले स्थल – Places of interest to Rajasthan
राजस्थान भारत के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से एक है। यदि आप भारतीय विरासत और शाही ठाठ के दर्शन पास से करना चाहते है तो राजस्थान आपके लिए सर्वोतम गंतव्य है। यहाँ बहुत से प्राकृतिक और मानव निर्मित पर्यटन स्थल है। जिनमे मुख्यतः निम्न शामिल है :
राजस्थान का खाना – Food of Rajasthan
यहाँ का खाना साधारणतः मसालेदार होता है। देश के इस भाग में दैनिक मिष्टान्न काफी प्रसिद्ध है। यहाँ ज्यादातर शाकाहारी रेस्टोरेंट है। अच्छी गुणवत्ता वाले मासाहारी रेस्टोरेंट ढूंड पानी काफी मुश्किल है।
पारंपरिक राजस्थानी डिश में दाल-बाटी-चूरमा शामिल है।
अतः भारत में स्थित राजस्थान राज्य एक यादगार गंतव्य है, यहां आप जरूर आइये यहाँ कोई न कोई ऐसी चीज जरूर होगी जो आपकी यात्रा को यादगार बना देगी।

भारत की स्वतंत्रता के बाद राजस्थान का एकीकरण

राजस्थान भारत का एक महत्वपूर्ण प्रांत है। यह 30 मार्च 1949 को भारत का एक ऐसा प्रांत बना, जिसमें तत्कालीन राजपूताना की ताकतवर रियासतें विलीन हुईं। भरतपुर के जाट शासक ने भी अपनी रियासत के विलय राजस्थान में किया था। राजस्थान शब्द का अर्थ है: 'राजाओं का स्थान' क्योंकि यहां अहीर,गुर्जर, राजपूत, मौर्य, जाट आदि ने पहले राज किया था। भारत के संवैधानिक-इतिहास में राजस्थान का निर्माण एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत को आजाद करने की घोषणा करने के बाद जब सत्ता-हस्तांतरण की कार्यवाही शुरू की, तभी लग गया था कि आजाद भारत का राजस्थान प्रांत बनना और राजपूताना के तत्कालीन हिस्से का भारत में विलय एक दूभर कार्य साबित हो सकता है। आजादी की घोषणा के साथ ही राजपूताना के देशी रियासतों के मुखियाओं में स्वतंत्र राज्य में भी अपनी सत्ता बरकरार रखने की होड़ सी मच गयी थी, उस समय वर्तमान राजस्थान की भौगालिक स्थिति के नजरिये से देखें तो राजपूताना के इस भूभाग में कुल 19 देशी रियासतें, 3 ठिकाने व एक केंद्र शासित प्रदेश था।केन्द्र शासित प्रदेश का नाम अजमेर मेरवाडा था जो सीधे केन्द्र यानि अग्रेजों के अधिन था। इनमें एक रियासत अजमेर मेरवाडा प्रांत को छोड़ कर शेष देशी रियासतों पर देशी राजा महाराजाओं का ही राज था। अजमेर-मेरवाडा प्रांत पर ब्रिटिश शासकों का कब्जा था; इस कारण यह तो सीघे ही स्वतंत्र भारत में आ जाती, मगर शेष 19 रियासतों का विलय होना यानि एकीकरण कर 'राजस्थान' नामक प्रांत बनाया जाना था। सत्ता की होड़ के चलते यह बड़ा ही दूभर लग रहा था क्योंकि इन देशी रियासतों के शासक अपनी रियासतों के स्वतंत्र भारत में विलय को दूसरी प्राथमिकता के रूप में देख रहे थे। उनकी मांग थी कि वे सालों से खुद अपने राज्यों का शासन चलाते आ रहे हैं, उन्हें इसका दीर्घकालीन अनुभव है, इस कारण उनकी रियासत को 'स्वतंत्र राज्य' का दर्जा दे दिया जाए। करीब एक दशक की ऊहापोह के बीच 18 मार्च 1948 को शुरू हुई राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया कुल सात चरणों में एक नवंबर 1956 को पूरी हुई। इसमें भारत सरकार के तत्कालीन देशी रियासत और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी. पी. मेनन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। इनकी सूझबूझ से ही राजस्थान के वर्तमान स्वरुप का निर्माण हो सका।

राजस्थान एकीकरण से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण बातें------
      राज. के एकीकरण में कुल 8 वर्ष 7 माह 14 दिन या 3144 दिन लगें।
      भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की 8 वी धारा या 8 वें अनुच्छेद में देशी रियासतों को आत्म निर्णय का अधिकार दिया गया था।
      एकीकरण हेतु 5 जुलाई 1947 कांे रियासते सचिवालय की स्थापना करवाई गयी थी।
      इसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल व सचिव वी पी मेनन थे।
      रियासती सचिव द्वारा रियासतों के सामने स्वतंत्र रहने की निम्न शर्त रखी।
     1. जनसंख्या 10 लाख से अधिक होनी चाहिये।
     2. वार्षिक आय 1 करोड से अधिक होनी चाहिये।
    उपर्युक्त शर्तो को पूरा करने वाली राज. में केवल 4 रियासतें थी।
   जयपुर,  जोधपुर,  उदयपुर, बीकानेर

पहला चरण- 18 मार्च 1948
सबसे पहले अलवर, भरतपुर, धौलपुर, व करौली नामक देशी रियासतों का विलय कर तत्कालीन भारत सरकार ने फरवरी 1948 में अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर 'मत्स्य यूनियन' के नाम से पहला संघ बनाया। यह राजस्थान के निर्माण की दिशा में पहला कदम था। इनमें अलवर व भरतपुर पर आरोप था कि उनके शासक राष्टृविरोधी गतिविधियों में लिप्त थे। इस कारण सबसे पहले उनके राज करने के अधिकार छीन लिए गए व उनकी रियासत का कामकाज देखने के लिए प्रशासक नियुक्त कर दिया गया। इसी की वजह से राजस्थान के एकीकरण की दिशा में पहला संघ बन पाया। यदि प्रशासक न होते और राजकाज का काम पहले की तरह राजा ही देखते तो इनका विलय असंभव था क्योंकि इन राज्यों के राजा विलय का विरोध कर रहे थे। 18 मार्च 1948 को मत्स्य संघ का उद़घाटन हुआ और धौलपुर के तत्कालीन महाराजा उदयसिंह को इसका राजप्रमुख मनाया गया। इसकी राजधानी अलवर रखी गयी थी। मत्स्य संघ नामक इस नए राज्य का क्षेत्रफल करीब तीस हजार किलोमीटर था, जनसंख्या लगभग 19 लाख और सालाना-आय एक करोड 83 लाख रूपए थी। जब मत्स्य संघ बनाया गया तभी विलय-पत्र में लिख दिया गया कि बाद में इस संघ का 'राजस्थान' में विलय कर दिया जाएगा।
दूसरा चरण 25 मार्च 1948
राजस्थान के एकीकरण का दूसरा चरण पच्चीस मार्च 1948 को स्वतंत्र देशी रियासतों कोटा, बूंदी, झालावाड, टौंक, डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ, किशनगढ और शाहपुरा को मिलाकर बने राजस्थान संघ के बाद पूरा हुआ। राजस्थान संघ में विलय हुई रियासतों में कोटा बड़ी रियासत थी, इस कारण इसके तत्कालीन महाराजा महाराव भीमसिंह को राजप्रमुख बनाया गया। बूंदी के तत्कालीन महाराव बहादुर सिंह राजस्थान संघ के राजप्रमुख भीमसिंह के बड़े भाई थे, इस कारण उन्हें यह बात अखरी कि छोटे भाई की 'राजप्रमुखता' में वे काम कर रहे है। इस ईर्ष्या की परिणति तीसरे चरण के रूप में सामने आयी।
तीसरा चरण 18 अप्रैल 1948
बूंदी के महाराव बहादुर सिंह नहीं चाहते थें कि उन्हें अपने छोटे भाई महाराव भीमसिंह की राजप्रमुखता में काम करना पडे, मगर बड़े राज्य की वजह से भीमसिंह को राजप्रमुख बनाना तत्कालीन भारत सरकार की मजबूरी थी। जब बात नहीं बनी तो बूंदी के महाराव बहादुर सिंह ने उदयपुर रियासत को पटाया और राजस्थान संघ में विलय के लिए राजी कर लिया। इसके पीछे मंशा यह थी कि बडी रियासत होने के कारण उदयपुर के महाराणा को राजप्रमुख बनाया जाएगा और बूंदी के महाराव बहादुर सिंह अपने छोटे भाई महाराव भीम सिंह के अधीन रहने की मजबूरी से बच जाएगे और इतिहास के पन्नों में यह दर्ज होने से बच जाएगा कि छोटे भाई के राज में बड़े भाई ने काम किया। 18 अप्रेल 1948 को राजस्थान के एकीकरण के तीसरे चरण में उदयपुर रियासत का राजस्थान संघ में विलय हुआ और इसका नया नाम हुआ 'संयुक्त राजस्थान संघ'। माणिक्य लाल वर्मा के नेतृत्व में बने इसके मंत्रिमंडल में उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह को राजप्रमुख बनाया गया, कोटा के महाराव भीमसिंह को वरिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। और कुछ इस तरह बूंदी के महाराजा की चाल भी सफल हो गयी।
चौथा चरण तीस मार्च 1949
इससे पहले बने संयुक्त राजस्थान संघ के निर्माण के बाद तत्कालीन भारत सरकार ने अपना ध्यान देशी रियासतों जोधपुर, जयपुर, जैसलमेर और बीकानेर पर केन्द्रित किया और इसमें सफलता भी हाथ लगी और इन चारों रियासतो का विलय करवाकर तत्कालीन भारत सरकार ने तीस मार्च 1949 को वृहत्तर राजस्थान संघ का निर्माण किया, जिसका उदघाटन भारत सरकार के तत्कालीन रियासती और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। बीकानेर रियासत ने सर्वप्रथम भारत में विलय किया। यही ३० मार्च आज राजस्थान की स्थापना का दिन माना जाता है। इस कारण इस दिन को हर साल राजस्थान दिवस के रूप में मनाया जाता है। हालांकि अभी तक चार देशी रियासतो का विलय होना बाकी था, मगर इस विलय को इतना महत्व नहीं दिया जाता, क्योंकि जो रियासते बची थी वे पहले चरण में ही 'मत्स्य संघ' के नाम से स्वतंत्र भारत में विलय हो चुकी थी। अलवर, भतरपुर, धौलपुर व करौली नामक इन रियासतो पर भारत सरकार का ही आधिपत्य था इस कारण इनके राजस्थान में विलय की तो मात्र औपचारिकता ही होनी थी।
पांचवा चरण 15 मई 1949
पन्द्रह मई 1949 को मत्स्य संध का विलय ग्रेटर राजस्थान में करने की औपचारिकता भी भारत सरकार ने निभा दी। भारत सरकार ने 18 मार्च 1948 को जब मत्स्य संघ बनाया था तभी विलय पत्र में लिख दिया गया था कि बाद में इस संघ का राजस्थान में विलय कर दिया जाएगा। इस कारण भी यह चरण औपचारिकता मात्र माना गया।
छठा चरण 26 जनवरी 1950
भारत का संविधान लागू होने के दिन 26 जनवरी 1950 को सिरोही रियासत का भी विलय ग्रेटर राजस्थान में कर दिया गया। इस विलय को भी औपचारिकता माना जाता है क्योंकि यहां भी भारत सरकार का नियंत्रण पहले से ही था। दरअसल जब राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया चल रही थी, तब सिरोही रियासत के शासक नाबालिग थे। इस कारण सिरोही रियासत का कामकाज दोवागढ की महारानी की अध्यक्षता में एजेंसी कौंसिल ही देख रही थी जिसका गठन भारत की सत्ता हस्तांतरण के लिए किया गया था। सिरोही रियासत के एक हिस्से आबू देलवाडा को लेकर विवाद के कारण इस चरण में आबू देलवाडा तहसील को बंबई और शेष रियासत विलय राजस्थान में किया गया।
सांतवा चरण एक नवंबर 1956
अब तक अलग चल रहे आबू देलवाडा तहसील को राजस्थान के लोग खोना नहीं चाहते थे, क्योंकि इसी तहसील में राजस्थान का कश्मीर कहा जाने वाला आबूपर्वत भी आता था, दूसरे राजस्थानी, बच चुके सिरोही वासियों के रिश्तेदार और कईयों की तो जमीन भी दूसरे राज्य में जा चुकी थी। आंदोलन हो रहे थे, आंदोलन कारियों के जायज कारण को भारत सरकार को मानना पड़ा और आबू देलवाडा तहसील का भी राजस्थान में विलय कर दिया गया। इस चरण में कुछ भाग इधर उधर कर भौगोलिक और सामाजिक त्रुटि भी सुधारी गया। इसके तहत मध्यप्रदेश में शामिल हो चुके सुनेल थापा क्षेत्र को राजस्थान में मिलाया गया और झालावाड जिले के उप जिला सिरनौज को मध्यप्रदेश को दे दिया गया।
इसी के साथ आज से राजस्थान का निर्माण या एकीकरण पूरा हुआ। जो राजस्थान के इतिहास का एक अति महत्ती कार्य था १ नवम्बर १९५६ को राजप्रमुख का पद समाप्त कर राज्यपाल का पद सृजित किया गया था। कलाल चोपदार मुस्लिम थे

Low grant sanctions, disbursement: India wants to promote FPOs but where are the funds? Eligibility threshold for FPOs should be reduced or support provided to meet the criteria, experts feel

  Farmer producer organisations (FPO) figure prominently in government policies and the ambitious plan to double farmers’ income by 2022. Bu...