Monday, 4 March 2019

भारत का हजारो साल पुराना इतिहास

जानिए भारत का हजारो साल पुराना इतिहास –

पाषाण काल –
illustration of detailed map of India, Asia with all states and country boundary
मध्य भारत में हमें पुरापाषाण काल की मौजूदगी दिखाई देती है। पुरातत्ववेत्ता का भी ऐसा मानना है की वे भारत में 2,00,000 से 5,00,000 साल पहले रहते थे। यह काल ही पूरापाषाण काल के नाम से जाना जाता था। इसके विकास के भुपटन में हमें चार मंच दिखायी देते है और चौथा मंच ही चारो भागो का मंच के नाम से जाना जाता है जिसे और दो भाग प्लीस्टोसन और होलोसेन में बाँटा गया है।
इस जगह की सबसे प्राचीन पुरातात्विक जगह पूरापाषाण होमिनिड है, जो सोन नदी घाटी पर स्थित है। सोनियन जगह हमें सिवाल्किक क्षेत्र जैसे भारत, पकिस्तान और नेपाल में दिखाई देते है।
 सोन नदी घाटी
सोन नद या सोनभद्र नद भारत के मध्य प्रदेश राज्य से निकल कर उत्तर प्रदेशझारखंड के पहाड़ियों से गुजरते हुए पटना के समीप जाकर गंगा नदी में मिल जाती है। यह म.प्र. की एक प्रमुख नदी है। इस नदी का नाम सोन पड़ा क्योंकि इस नदी के बालू (रेत) पीले रंग के हैँ जो सोने कि तरह चमकते हैँ। इस नदी के रेत भवन निर्माण आदी के लिए बहुत उपयोगी हैं यह रेत पूरे बिहार में भवन निर्माण के लिए उपयोग में लाया जाता है तथा यह रेत उत्तर प्रदेशके कुछ शहरों में भी निर्यात किया जाता है। सोन नद का उल्लेख रामायण आदि पुराणो में आता है ।

परिचय[संपादित करें]

Bateliers sur la rivière Son, Umaria district, MP, Inde.jpg
गंगा की सहायक नदियों में सोन का प्रमुख स्थान है। इसका पुराना नाम संभवत: 'सोहन' था जो पीछे बिगड़कर सोन बन गया। यह नदी मध्यप्रदेश के अमरकंटक नामक पहाड़ से निकलकर 350 मील का चक्कर काटती हुई पटना से पश्चिम गंगा में मिलती है। इस नदी का पानी मीठा, निर्मल और स्वास्थ्यवर्धक होता है। इसके तटों पर अनेक प्राकृतिक दृश्य बड़े मनोरम हैं। अनेक फारसी, उर्दू और हिंदी कवियों ने नदी और नदी के जल का वर्णन किया है। इस नदी में डिहरी-आन-सोन पर बाँध बाँधकर 296 मील लंबी नहर निकाली गई है जिसके जल से शाहाबाद, गया और पटना जिलों के लगभग सात लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होती है। यह बाँध 1874 ई. में तैयार हो गया था। इस नदी पर ही एक लंबा पुल, लगभग 3 मील लंबा, डिहरी-ऑन-सोन पर बना हुआ है।
दूसरा पुल पटना और आरा के बीच कोइलवर नामक स्थान पर है। कोइलवर पुल रेल-सह-सड़क पुल है। ऊपर रेलगाड़ियाँ और नीचे बस, मोटर और बैलगाड़ियाँ आदि चलती हैं। इसी नदी पर एक तीसरा पुल भी ग्रैंड ट्रंक रोड पर बनाया गया है। 1965 ई. में यह पुल तैयार हो गया था।
ऐसे यह नदी शांत रहती है। इसका तल अपेक्षया छिछला है और पानी कम ही रहता है पर बरसात में इसका रूप विकराल हो जाता है, पानी मटियाले रंग का, लहरें भयंकर और झाग से भरी हो जाती हैं। तब इसकी धारा तीव्र गति और बड़े जोर शोर से बहती है।

सोन जल विवाद

देखें मुख्य लेख सोन जल विवाद
सोन नदी के बँटवारे को लेकर इसके संबंधित राज्यों में लंबे समय से विवाद रहा है। सरयु राय द्वारा दायर जनहित याचिका पर पटना उच्च न्यायालय ने सोन नदी के विवाद के समाधान के लिए केंद्र सरकार को सितंबर २०११ में न्यायाधिकरण गठित करने का आदेश दिया।
मध्य पाषाण –
आधुनिक मानव आज से तक़रीबन 12,000 साल पहले ही भारतीय उपमहाद्वीप में स्थापित हो गया था। उस समय अंतिम हिम युग समाप्ति पर ही था और मौसम भी गर्म और सुखा बन चूका था। भारत में मानवी समाज का पहला समझौता भारत में भोपाल के पास ही की जगह भीमबेटका पाषाण आश्रय स्थल में दिखाई देता है। मध्य पाषाण कालीन लोग शिकार करते, मछली पकड़ते और अनाज को इकठ्ठा करने में लगे रहते।

भीमबेटका शैलाश्रय

भीमबेटका (भीमबैठका) भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त के रायसेन जिले में स्थित एक पुरापाषाणिक आवासीय पुरास्थल है। यह आदि-मानव द्वारा बनाये गए शैलचित्रों और शैलाश्रयों के लिए प्रसिद्ध है। इन चित्रों को पुरापाषाण काल से मध्यपाषाण काल के समय का माना जाता है। ये चित्र भारतीय उपमहाद्वीप में मानव जीवन के प्राचीनतम चिह्न हैं। यह स्थल मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से ४५ किमी दक्षिणपूर्व में स्थित है। इनकी खोज वर्ष १९५७-१९५८ में डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर द्वारा की गई थी।
भीमबेटका क्षेत्र को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षणभोपाल मंडल ने अगस्त १९९० में राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया। इसके बाद जुलाई २००३ में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया।
यहाँ पर अन्य पुरावशेष भी मिले हैं जिनमें प्राचीन किले की दीवार, लघुस्तूप, पाषाण निर्मित भवन, शुंग-गुप्त कालीन अभिलेख, शंख अभिलेख और परमार कालीन मंदिर के अवशेष सम्मिलित हैं।
ऐसा माना जाता है कि यह स्थान महाभारत के चरित्र भीम से संबन्धित है एवं इसी से इसका नाम भीमबैठका (कालांतर में भीमबेटका) पड़ा। ये गुफाएँ मध्य भारत के पठारके दक्षिणी किनारे पर स्थित विन्ध्याचल की पहाड़ियों के निचले छोर पर हैं। इसके दक्षिण में सतपुड़ा की पहाड़ियाँ आरम्भ हो जाती हैं।

शैलकला एवं शैलचित्र

यहाँ 600 शैलाश्रय हैं जिनमें 275 शैलाश्रय चित्रों द्वारा सज्जित हैं। पूर्व पाषाण काल से मध्य ऐतिहासिक काल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का केंद्र रहा।[1] यह बहुमूल्य धरोहर अब पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। भीमबेटका क्षेत्र में प्रवेश करते हुए शिलाओं पर लिखी कई जानकारियाँ मिलती हैं। यहाँ के शैल चित्रों के विषय मुख्यतया सामूहिक नृत्य, रेखांकित मानवाकृति, शिकार, पशु-पक्षी, युद्ध और प्राचीन मानव जीवन के दैनिक क्रियाकलापों से जुड़े हैं। चित्रों में प्रयोग किये गए खनिज रंगों में मुख्य रूप से गेरुआलाल और सफेद हैं और कहीं-कहींपीला और हरा रंग भी प्रयोग हुआ है।[2]
भीमबैठका शैलचित्र
शैलाश्रयों की अंदरूनी सतहों में उत्कीर्ण प्यालेनुमा निशान एक लाख वर्ष पुराने हैं। इन कृतियों में दैनिक जीवन की घटनाओं से लिए गए विषय चित्रित हैं। ये हज़ारों वर्ष पहले का जीवन दर्शाते हैं। यहाँ बनाए गए चित्र मुख्यतः नृत्य, संगीत, आखेट, घोड़ों और हाथियों की सवारी, आभूषणों को सजाने तथा शहद जमा करने के बारे में हैं। इनके अलावा बाघसिंह,जंगली सुअरहाथियोंकुत्तों और घडियालों जैसे जानवरों को भी इन तस्वीरों में चित्रित किया गया है यहाँ की दीवारें धार्मिक संकेतों से सजी हुई है, जो पूर्व ऐतिहासिक कलाकारों के बीच लोकप्रिय थे।[2] इस प्रकार भीम बैठका के प्राचीन मानव के संज्ञानात्मक विकास का कालक्रम विश्व के अन्य प्राचीन समानांतर स्थलों से हजारों वर्ष पूर्व हुआ था। इस प्रकार से यह स्थल मानव विकास का आरंभिक स्थान भी माना जा सकता है।

निकटवर्ती पुरातात्विक स्थल

इस प्रकार के प्रागैतिहासिक शैलचित्र रायगढ़ जिले के सिंघनपुर के निकट कबरा पहाड़ की गुफाओं में[3]होशंगाबाद के निकट आदमगढ़ में, छतरपुर जिले के बिजावर के निकटस्थ पहाड़ियों पर तथा रायसेन जिले में बरेली तहसील के पाटनी गाँव में मृगेंद्रनाथ की गुफा के शैलचित्र एवं भोपाल-रायसेन मार्ग पर भोपाल के निकट पहाड़ियों पर (चिडिया टोल) में भी मिले हैं। हाल में ही होशंगाबाद के पास बुधनी की एक पत्थर खदान में भी शैल चित्र पाए गए हैं। भीमबेटका से ५ किलोमीटर की दूरी पर पेंगावन में ३५ शैलाश्रय पाए गए है ये शैल चित्र अति दुर्लभ माने गए हैं। इन सभी शैलचित्रों की प्राचीनता १०,००० से ३५,००० वर्ष की आंकी गयी है।[4]
निओलिथिक –
निओलिथिक खेती तक़रीबन 7000 साल पहले इंडस वैली क्षेत्र में फैली हुई थी और निचली गंगेटिक वैली में 5000 साल पहले फैली थी। बाद में, दक्षिण भारत और मालवा में 3800 साल पर आयी थी।
नियोलिथिक क्रांति
नियोलिथिक युग, काल, या अवधि, या नव पाषाण युग मानव प्रौद्योगिकी के विकास की एक अवधि थी जिसकी शुरुआत मध्य पूर्व[1] में 9500 ई.पू. के आसपास हुई थी, जिसे पारंपरिक रूप से पाषाण युग का अंतिम हिस्सा माना जाता है। नियोलिथिक युग का आगमन सीमावर्ती होलोसीन एपिपेलियोलिथिक अवधि के बाद कृषि की शुरुआत के साथ हुआ और इसने "नियोलिथिक क्रांति" को जन्म दिया; इसका अंत भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर धातु के औजारों के ताम्र युग (चालकोलिथिक) या कांस्य युग में सर्वव्यापी होने या सीधे लौह युग में विकसित होने के साथ हुआ। नियोलिथिक कोई विशिष्ट कालानुक्रमिक अवधि नहीं है बल्कि यह व्यावहारिक और सांस्कृतिक विशेषताओं का एक समूह है जिसमें जंगली और घरेलू फसलों का उपयोग और पालतू जानवरों का इस्तेमाल शामिल है।[2]
नई खोजों से पता चला है कि नियोलिथिक संस्कृति का आरम्भ एलेप्पो से 25 किमी उत्तर की तरफ उत्तरी सीरिया में टेल कैरामेल में 10,700 से 9,400 ई.पू. के आसपास हुआ था।[3] पुरातात्विक समुदाय के भीतर उन निष्कर्षों को अपनाए जाने तक नियोलिथिक संस्कृति का आरम्भ लेवंत (जेरिको, वर्तमानकालीन वेस्ट बैंक) में लगभग 9,500 ई.पू. के आसपास माना जाता है। क्षेत्र में इसका विकास सीधे एपिपेलियोलिथिक नैचुफियन संस्कृति से हुआ था जिसके लोगों ने जंगली अनाजों के इस्तेमाल का मार्ग प्रशस्त किया जो बाद में सही मायने में कृषि के रूप में विकसित हुआ। इस प्रकार नैचुफियन को "प्रोटो-नियोलिथिक" (12,500–9500 ई.पू. या 12,000–9500 ई.पू.[1]) कहा जा सकता है। चूंकि नैचुफियन अपने आहार में जंगली अनाजों पर निर्भर हो गए थे और उनके बीच एक तरह की सुस्त जीवन शैली का आरम्भ हो गया था इसलिए यंगर ड्रायस से जुड़े जलवायु परिवर्तनों ने संभवतः लोगों को खेती का विकास करने पर मजबूर कर दिया होगा। 9500-9000 ई.पू. तक लेवंत में कृषक समुदाय का जन्म हुआ और वे एशिया माइनर, उत्तर अफ्रीका और उत्तर मेसोपोटामिया में फ़ैल गए। आरंभिक नियोलिथिक खेती केवल कुछ पौधों तक ही सीमित थी जिनमें जंगली और घरेलू दोनों तरह के पौधे शामिल थे जिनमें एंकोर्न गेहूं, बाजरा और स्पेल्ट (जर्मन गेहूं) और कुत्ता, भेड़ और बकरीपालन शामिल था। लगभग 8000 ई.पू. तक इसमें पालतू मवेशी और सूअर शामिल हुए और स्थायी रूप से या मौसम के अनुसार बस्तियां बसाई गई और बर्तन का इस्तेमाल शुरू हुआ।[4]
नियोलिथिक की सभी सांस्कृतिक तत्व संबंधी विशेषताएं हर जगह एक ही क्रम में दिखाई नहीं दी: निकट पूर्व में आरंभिक कृषक समाज में बर्तनों का इस्तेमाल नहीं होता था और ब्रिटेन में यह बात अस्पष्ट रही है कि आरंभिक नियोलिथिक काल में किस हद तक पौधों का इस्तेमाल हुआ था या स्थायी रूप से बसे हुए समुदायों का भी वजूद था या नहीं। दुनिया के अन्य हिस्सों जैसे अफ्रीकादक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में स्वतंत्र सभ्यीकरण कार्यक्रमों के फलस्वरूप उनकी अपनी क्षेत्र विशिष्ट नियोलिथिक संस्कृतियों का जन्म हुआ जो यूरोप और दक्षिण पश्चिम एशिया की संस्कृतियों से बिल्कुल अलग था। आरंभिक जापानी समाजों में खेती के विकास से पहले मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता था।[5][6][7]
पेलियोलिथिक के विपरीत जहां एक से अधिक मानव समाजों का वजूद था, केवल एक मानव प्रजाति (होमो सैपियंस) नियोलिथिक तक पहुंचने में कामयाब हुई थी। हो सकता है कि होमो फ्लोरेसिएंसिस लगभग 12,000 साल पहले नियोलिथिक के बिल्कुल प्रारंभ में बचे रह गए हों.
नियोलिथिक शब्द की व्युत्पत्ति यूनानी शब्द νεολιθικόςनियोलिथिकोस से हुई है जिसका विच्छेदन करने पर νέος का मतलब "नियोस " अर्थात् 'नया' और λίθος का अर्थ "लिथोस " अर्थात् 'पत्थर' है और इस तरह का इसका शाब्दिक अर्थ "नव पाषाण युग" है। इस शब्द का आविष्कार 1865 में सर जॉन लुबोक द्वारा एक त्रियुगीन प्रणाली के एक शोधन के रूप में किया गया था।

सिंधु घाटी सभ्यता

सिंधु घाटी सभ्यता (3300 ईसापूर्व से 1700 ईसापूर्व तक,परिपक्व काल: 2600 ई.पू. से 1900 ई.पू.)[1] विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता है।[2] जो मुख्य रूप से दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में, जो आज तक उत्तर पूर्व अफगानिस्तान ,पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम और उत्तर भारत में फैली है।[3] प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यता के साथ, यह प्राचीन दुनिया की सभ्यताओं के तीन शुरुआती कालक्रमों में से एक थी, और इन तीन में से, सबसे व्यापक तथा सबसे चर्चित। सम्मानित पत्रिका नेचर में प्रकाशित शोध के अनुसार यह सभ्यता कम से कम 8000 वर्ष पुरानी है। यह हड़प्पा सभ्यता और 'सिंधु-सरस्वती सभ्यता' के नाम से भी जानी जाती है।
इसका विकास सिंधु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ।[4][5] मोहनजोदड़ोकालीबंगालोथलधोलावीराराखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थे। दिसम्बर २०१४ में भिरड़ाणा को सिंधु घाटी सभ्यता का अब तक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया है। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं।
7वी शताब्दी में पहली बार जब लोगो ने पंजाब प्रांत में ईटो के लिए मिट्टी की खुदाई की तब उन्हें वहां से बनी बनाई इटे मिली जिसे लोगो ने भगवान का चमत्कार माना और उनका उपयोग घर बनाने में किया उसके बाद 1826 में चार्ल्स मैसेन ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा। कनिंघम ने 1856 में इस सभ्यता के बारे में सर्वेक्षण किया। 1856 में कराची से लाहौर के मध्य रेलवे लाइन के निर्माण के दौरान बर्टन बंधुओं द्वारा हड़प्पा स्थल की सूचना सरकार को दी। इसी क्रम में 1861 में एलेक्जेंडर कनिंघम के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना की। 1902 में लार्ड कर्जन द्वारा जॉन मार्शल को भारतीय पुरातात्विक विभाग (ASI) (Archaeological Survey of India) का महानिदे।.शक बनाया गया। फ्लीट ने इस पुरानी सभ्यता के बारे में एक लेख लिखा। १९२१ में दयाराम साहनीने हड़प्पा का उत्खनन किया। इस प्रकार इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया व दयाराम साहनी को इसका खोजकर्ता माना गया। यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी में फैली हुई थी इसलिए इसका नाम सिन्धु घाटी सभ्यता रखा गया। प्रथम बार नगरों के उदय के कारण इसे प्रथम नगरीकरण भी कहा जाता है। प्रथम बार कांस्य के प्रयोग के कारण इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता के १४०० केन्द्रों को खोजा जा सका है जिसमें से ९२५ केन्द्र भारत में है। ८० प्रतिशत स्थल सरस्वती नदी और उसकी सहायक नदियों के आस-पास है। अभी तक कुल खोजों में से ३ प्रतिशत स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है।

नामोत्पत्ति[संपादित करें]

सिन्धु घाटी सभ्यता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था।[6] हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले हैं।[7] अतः विद्वानों ने इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया, क्योंकि यह क्षेत्र सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में आते हैं, पर बाद में रोपड़लोथलकालीबंगा, वनमाली, रंगापुर आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले जो सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। अतः कई इतिहासकार इस सभ्यता का प्रमुख केन्द्र हड़प्पा होने के कारण इस सभ्यता को "हड़प्पा सभ्यता" नाम देना अधिक उचित मानते हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक जॉन मार्शल ने 1924 में सिन्धु सभ्यता के बारे में तीन महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे।

विभिन्न काल[संपादित करें]

समय (बी.सी.ई.)कालयुग
7570-3300पूर्व हड़प्पा (नवपाषाण युग,ताम्र पाषाण युग)
7570–6200 BCEभिरड़ाणाप्रारंभिक खाद्य उत्पादक युग
7000–5500 BCEमेहरगढ़ एक (पूर्व मृद्भाण्ड नवपाषाण काल)
5500-3300मेहरगढ़ दो-छः (मृद्भाण्ड नवपाषाण काल)क्षेत्रीयकरण युग
3300-2600प्रारम्भिक हड़प्पा (आरंभिक कांस्य युग)
3300-2800हड़प्पा 1 (रवि भाग)
2800-2600हड़प्पा 2 (कोट डीजी भाग, नौशारों एक, मेहरगढ़ सात)
2600-1900परिपक्व हड़प्पा (मध्य कांस्य युग)एकीकरण युग
2600-2450हड़प्पा 3A (नौशारों दो)
2450-2200हड़प्पा 3B
2200-1900हड़प्पा 3C
1900-1300उत्तर हड़प्पा (समाधी एचउत्तरी कांस्य युग)प्रवास युग
1900-1700हड़प्पा 4
1700-1300हड़प्पा 5

विस्तार[संपादित करें]

हड़प्पा संस्कृति के स्थल
इस सभ्यता का क्षेत्र संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से अनेक गुना बड़ा और विशाल था।[8] इस परिपक्व सभ्यता के केन्द्र-स्थल पंजाब तथा सिन्ध में था। तत्पश्चात इसका विस्तार दक्षिण और पूर्व की दिशा में हुआ। इस प्रकार हड़प्पा संस्कृति के अन्तर्गत पंजाब, सिन्ध और बलूचिस्तान के भाग ही नहीं, बल्कि गुजरातराजस्थान,हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमान्त भाग भी थे। इसका फैलाव उत्तर में रहमानढेरी से लेकर दक्षिण में दैमाबाद (महाराष्ट्र) तक और पश्चिम में बलूचिस्तान केमकरान समुद्र तट के सुत्कागेनडोर से लेकर उत्तर पूर्व में मेरठ और कुरुक्षेत्र तक था। प्रारंभिक विस्तार जो प्राप्त था उसमें सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुजाकार था (उत्तर में जम्मू के माण्डा से लेकर दक्षिण में गुजरात के भोगत्रार तक और पश्चिम में अफगानिस्तान के सुत्कागेनडोर से पूर्व में उत्तर प्रदेश के मेरठ तक था और इसका क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग किलोमीटर था।) इस तरह यह क्षेत्र आधुनिक पाकिस्तान से तो बड़ा है ही, प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया से भी बड़ा है। ईसा पूर्व तीसरी और दूसरी सहस्त्राब्दी में संसार भर में किसी भी सभ्यता का क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति से बड़ा नहीं था। अब तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस संस्कृति के कुल 1000स्थलों का पता चल चुका है। इनमें से कुछ आरंभिक अवस्था के हैं तो कुछ परिपक्व अवस्था के और कुछ उत्तरवर्ती अवस्था के। परिपक्व अवस्था वाले कम जगह ही हैं। इनमें से आधे दर्जनों को ही नगर की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें से दो नगर बहुत ही महत्वपूर्ण हैं - पंजाब का हड़प्पा तथा सिन्ध का मोहें जो दड़ो (शाब्दिक अर्थ - प्रेतों का टीला)। दोनो ही स्थल वर्तमान पाकिस्तान में हैं। दोनो एक दूसरे से 483 किमी दूर थे और सिंधु नदी द्वारा जुड़े हुए थे। तीसरा नगर मोहें जो दड़ो से 130 किमी दक्षिण में चन्हुदड़ो स्थल पर था तो चौथा नगर गुजरातके खंभात की खाड़ी के ऊपर लोथल नामक स्थल पर। इसके अतिरिक्त राजस्थान के उत्तरी भाग में कालीबंगा (शाब्दिक अर्थ -काले रंग की चूड़ियां) तथा हरियाणा केहिसार जिले का बनावली। इन सभी स्थलों पर परिपक्व तथा उन्नत हड़प्पा संस्कृति के दर्शन होते हैं। सुतकागेंडोर तथा सुरकोतड़ा के समुद्रतटीय नगरों में भी इस संस्कृति की परिपक्व अवस्था दिखाई देती है। इन दोनों की विशेषता है एक एक नगर दुर्ग का होना। उत्तर हड़प्पा अवस्था गुजरात के कठियावाड़ प्रायद्वीप में रंगपुर और रोजड़ी स्थलों पर भी पाई गई है। इस सभ्यता की जानकारी सबसे पहले १८२६ में चार्ल्स मैन को प्राप्त हुई।

प्रमुख शहर[संपादित करें]

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख शहर तीन देशों में इस प्रकार है:-

हिन्दुकुश पर्वतमाला के पार अफगानिस्तान में[संपादित करें]

  1. शोर्तुगोयी - यहाँ से नहरों के प्रमाण मिले है
  2. मुन्दिगाक जो महत्वपूर्ण है

भारत में[संपादित करें]

भारत के विभिन्न राज्यों में सिंधु घाटी सभ्यता के निम्न शहर है:-

गुजरात[संपादित करें]

  1. लोथल
  2. सुरकोटदा
  3. रंगपुर
  4. रोजदी
  5. मालवड
  6. देसलपुर
  7. धोलावीरा
  8. प्रभाषपाटन
  9. भगतराव

हरियाणा[संपादित करें]

  1. राखीगढ़ी
  2. भिरड़ाणा
  3. बनावली
  4. कुणाल
  5. मीताथल

पंजाब[संपादित करें]

  1. रोपड़ (पंजाब)
  2. बाड़ा
  3. संघोंल (जिला फतेहगढ़, पंजाब)

महाराष्ट्र[संपादित करें]

  1. दायमाबाद.

धौलपुर[संपादित करें]

धौलावीरा
  1. रावण उर्फ़ बड़ागांव
  2. अम्बखेड़ी
  3. हुलास
जम्मू कश्मीर
  1. मांदा
राजस्थान
  1. कालीबंगा

नगर निर्माण योजना[संपादित करें]

Dholavira1.JPG
इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहन् जोदड़ो दोनो नगरों के अपने दुर्ग थे जहां शासक वर्ग का परिवार रहता था। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक उससे निम्न स्तर का शहर था जहां ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहाँ के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहाँ के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देख कर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान थे।
मोहनजोदड़ो का अब तक का सबसे प्रसिद्ध स्थल है विशाल सार्वजनिक स्नानागार, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। यह ईंटो के स्थापत्य का एक सुन्दर उदाहरण है। यह 11.88 मीटर लंबा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा है। दोनो सिरों पर तल तक जाने की सीढ़ियां लगी हैं। बगल में कपड़े बदलने के कमरे हैं। स्नानागार का फर्श पकी ईंटों का बना है। पास के कमरे में एक बड़ा सा कुंआ है जिसका पानी निकाल कर होज़ में डाला जाता था। हौज़ के कोने में एक निर्गम (Outlet) है जिससे पानी बहकर नाले में जाता था। ऐसा माना जाता है कि यह विशाल स्नानागार धर्मानुष्ठान सम्बंधी स्नान के लिए बना होगा जो भारत में पारंपरिक रूप से धार्मिक कार्यों के लिए आवश्यक रहा है। मोहन जोदड़ो की सबसे बड़ा संरचना है - अनाज रखने का कोठार, जो 45.71 मीटर लंबा और 15.23 मीटर चौड़ा है। हड़प्पा के दुर्ग में छः कोठार मिले हैं जो ईंटों के चबूतरे पर दो पांतों में खड़े हैं। हर एक कोठार 15.23 मी. लंबा तथा 6.09 मी. चौड़ा है और नदी के किनारे से कुछ एक मीटर की दूरी पर है। इन बारह इकाईयों का तलक्षेत्र लगभग 838.125 वर्ग मी. है जो लगभग उतना ही होता है जितना मोहन जोदड़ो के कोठार का। हड़प्पा के कोठारों के दक्षिण में खुला फर्श है और इसपर दो कतारों में ईंट के वृत्ताकार चबूतरे बने हुए हैं। फर्श की दरारों में गेहूँ और जौ के दाने मिले हैं। इससे प्रतीत होता है कि इन चबूतरों पर फ़सल की दवनी होती थी। हड़प्पा में दो कमरों वाले बैरक भी मिले हैं जो शायद मजदूरों के रहने के लिए बने थे। कालीबंगां में भी नगर के दक्षिण भाग में ईंटों के चबूतरे बने हैं जो शायद कोठारों के लिए बने होंगे। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि कोठार हड़प्पा संस्कृति के अभिन्न अंग थे।
हड़प्पा संस्कृति के नगरों में ईंट का इस्तेमाल एक विशेष बात है, क्योंकि इसी समय के मिस्र के भवनों में धूप में सूखी ईंट का ही प्रयोग हुआ था। समकालीन मेसोपेटामिया में पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता तो है पर इतने बड़े पैमाने पर नहीं जितना सिन्धु घाटी सभ्यता में। मोहन जोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़े मकान में प्रांगण और स्नानागार होता था। कालीबंगां के अनेक घरों में अपने-अपने कुएं थे। घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहां इनके नीचे मोरियां (नालियां) बनी थीं। अक्सर ये मोरियां ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकीं होती थीं। सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे भी बने होते थे। सड़कों और मोरियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं।

आर्थिक जीवन[संपादित करें]

सिंधु सभ्यता की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी, किंतु व्यापार एव पशुपालन भी प्रचलन में था।

कृषि एवं पशुपालन[9][संपादित करें]

आज के मुकाबले सिन्धु प्रदेश पूर्व में बहुत उपजाऊ था। ईसा-पूर्व चौथी सदी में सिकन्दर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिन्ध इस देश के उपजाऊ क्षेत्रों में गिना जाता था। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पति बहुत थीं जिसके कारण यहां अच्छी वर्षा होती थी। यहां के वनों से ईंटे पकाने और इमारत बनाने के लिए लकड़ी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई गई जिसके कारण धीरे धीरे वनों का विस्तार सिमटता गया। सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ भी थी। गाँव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की दीवार इंगित करती है बाढ़ हर साल आती थी। यहां के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ और जौ की फ़सल काट लेते थे। यहाँ कोई फावड़ा या फाल तो नहीं मिला है लेकिन कालीबंगां की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के जो कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास होता है कि राजस्थान में इस काल में हल जोते जाते थे।
सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहूजौराईमटरज्वार आदि अनाज पैदा करते थे। वे दो किस्म की गेँहू पैदा करते थे। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। इसके अलावा वे तिल और सरसों भी उपजाते थे। सबसे पहले कपास भी यहीं पैदा की गई। इसी के नाम पर यूनान के लोग इस सिन्डन (Sindon) कहने लगे। हड़प्पा योंतो एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहां के लोग पशुपालन भी करते थे। बैल-गायभैंसबकरीभेड़ और सूअर पाला जाता था। हड़प्पाई लोगों को हाथी तथा गैंडे का ज्ञान था।

पशु-पालन[संपादित करें]

हड़प्पा सभ्यता के लोगों का दूसरा व्यवसाय पशु-पालना था। यह लोग दूध,मांस उनके कृषि के कार्य और भार को ढूंढने के लिए इनका प्रयोग किया करते थे।
  • यह लोग गाय,भैंस,भेड़,बकरी,बैल,कुत्ते,बिल्ली,मोर,हिरण,हाथी शुगर,बकरी,मुर्गियां पाला करते थे। इन लोगों को घोड़े और लोहे की जानकारी नहीं थी।[9]

उद्योग-धंधे[संपादित करें]

यहाँ के नगरों में अनेक व्यवसाय-धन्धे प्रचलित थे। मिट्टी के बर्तन बनाने में ये लोग बहुत कुशल थे। मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग से भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्र बनाये जाते थे। कपड़ा बनाने का व्यवसाय उन्नत अवस्था में था। उसका विदेशों में भी निर्यात होता था। जौहरी का काम भी उन्नत अवस्था में था। मनके और ताबीज बनाने का कार्य भी लोकप्रिय था,अभी तक लोहे की कोई वस्तु नहीं मिली है। अतः सिद्ध होता है कि इन्हें लोहे का ज्ञान नहीं था।

व्यापार[संपादित करें]

यहां के लोग आपस में पत्थर, धातु शल्क (हड्डी) आदि का व्यापार करते थे। एक बड़े भूभाग में ढेर सारी सील (मृन्मुद्रा), एकरूप लिपि और मानकीकृत माप तौल के प्रमाण मिले हैं। वे चक्के से परिचित थे और संभवतः आजकल के इक्के (रथ) जैसा कोई वाहन प्रयोग करते थे। ये अफ़ग़ानिस्तान और ईरान (फ़ारस) से व्यापार करते थे। उन्होंने उत्तरी अफ़गानिस्तान में एक वाणिज्यिक उपनिवेश स्थापित किया जिससे उन्हें व्यापार में सहूलियत होती थी। बहुत सी हड़प्पाई सील मेसोपोटामिया में मिली हैं जिनसे लगता है कि मेसोपोटामिया से भी उनका व्यापार सम्बंध था। मेसोपोटामिया के अभिलेखों में मेलुहा के साथ व्यापार के प्रमाण मिले हैं साथ ही दो मध्यवर्ती व्यापार केन्द्रों का भी उल्लेख मिलता है - दलमुन और माकन। दिलमुन की पहचान शायद फ़ारस की खाड़ी के बहरीन के की जा सकती है।

राजनैतिक जीवन[संपादित करें]

इतना तो स्पष्ट है कि हड़प्पा की विकसित नगर निर्माण प्रणाली, विशाल सार्वजनिक स्नानागारों का अस्तित्व और विदेशों से व्यापारिक संबंध किसी बड़ी राजनैतिक सत्ता के बिना नहीं हुआ होगा पर इसके पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं कि यहां के शासक कैसे थे और शासन प्रणाली का स्वरूप क्या था। लेकिन नगर व्यवस्था को देखकर लगता है कि कोई नगर निगम जैसी स्थानीय स्वशासन वाली संस्था थी।

धार्मिक जीवन[संपादित करें]

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हड़प्पा में पकी मिट्टी की स्त्री मूर्तिकाएं भारी संख्या में मिली हैं। एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। विद्वानों के मत में यह पृथ्वी देवी की प्रतिमा है और इसका निकट संबंध पौधों के जन्म और वृद्धि से रहा होगा। इसलिए मालूम होता है कि यहां के लोग धरती को उर्वरता की देवी समझते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस् की। लेकिन प्राचीन मिस्र की तरह यहां का समाज भी मातृ प्रधान था कि नहीं यह कहना मुश्किल है। कुछ वैदिक सूक्तों में पृथ्वी माता की स्तुति है, धोलावीरा के दुर्ग में एक कुआँ मिला है इसमें नीचे की तरफ जाती सीढ़ियाँ है और उसमें एक खिड़की थी जहा दीपक जलाने के सबूत मिलते है। उस कुएँ में सरस्वती नदी का पानी आता था, तो शायद सिंधु घाटी के लोग उस कुएँ के जरिये सरस्वती की पूजा करते थे।
सिंधु घाटी सभ्यता के नगरों में एक सील पाया जाता है जिसमें एक योगी का चित्र है 3 या 4 मुख वाला, कई विद्वान मानते है कि यह योगी शिव है। मेवाड़ जो कभी सिंधु घाटी सभ्यता की सीमा में था वहाँ आज भी 4 मुख वाले शिव के अवतार एकलिंगनाथ जी की पूजा होती है। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग अपने शवों को जलाया करते थे,मोहन जोदड़ो और हड़प्पा जैसे नगरों की आबादी करीब 50 हज़ार थी पर फिर भी वहाँ से केवल 100 के आसपास ही कब्रे मिली है जो इस बात की और इशारा करता है वे शव जलाते थे। लोथल, कालीबंगा आदि जगहों पर हवन कुंद मिले है जो की उनके वैदिक होने का प्रमाण है। यहाँ स्वास्तिक के चित्र भी मिले है।
कुछ विद्वान मानते है कि हिंदू धर्म द्रविड़ो का मूल धर्म था और शिव द्रविड़ो के देवता थे जिन्हें आर्यों ने अपना लिया। कुछ जैन और बौद्ध विद्वान यह भी मानते है कि सिंधु घाटी सभ्यता जैन या बौद्ध धर्म के थे, पर मुख्यधारा के इतिहासकारों ने यह बात नकार दी और इसके अधिक प्रमाण भी नहीं है।
प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में पुरातत्वविदों को कई मंदिरों के अवशेष मिले है पर सिंंधु घाटी में आज तक कोई मंदिर नहीं मिला, मार्शल आदि कई इतिहासकार मानते है कि सिंधु घाटी के लोग अपने घरो में, खेतो में या नदी किनारे पूजा किया करते थे, पर अभी तक केवल बृहत्स्नानागार या विशाल स्नानघर ही एक ऐसा स्मारक है जिसे पूजास्थल माना गया है। जैसे आज हिंदू गंगा में नहाने जाते है वैसे ही सैन्धव लोग यहाँ नहाकर पवित्र हुआ करते थे।

शिल्प और तकनीकी ज्ञान[संपादित करें]

मोहेन्जोदाड़ो में पाई गई एक मूर्ति - कराँची के राष्ट्रीय संग्रहालय से
सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के दस वर्ण जोधोलावीरा के उत्तरी गेट के निकट सन् २००० ईसवी में खोजे गये हैं
यद्यपि इस युग के लोग पत्थरों के बहुत सारे औजार तथा उपकरण प्रयोग करते थे पर वे कांसे के निर्माण से भली भांति परिचित थे। तांबे तथा टिन मिलाकर धातुशिल्पी कांस्य का निर्माण करते थे। हालांकि यहां दोनो में से कोई भी खनिज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं था। सूती कपड़े भी बुने जाते थे। लोग नाव भी बनाते थे। मुद्रा निर्माण, मूर्ति का निर्माण के साथ बरतन बनाना भी प्रमुख शिल्प था।
प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह यहां के लोगों ने भी लेखन कला का आविष्कार किया था। हड़प्पाई लिपि का पहला नमूना 1853 ईस्वी में मिला था और 1923 में पूरी लिपि प्रकाश में आई परन्तु अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है। लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण निजी सम्पत्ति का लेखा-जोखा आसान हो गया। व्यापार के लिए उन्हें माप तौल की आवश्यकता हुई और उन्होनें इसका प्रयोग भी किया। बाट के तरह की कई वस्तुएँ मिली हैं। उनसे पता चलता है कि तौल में 16 या उसके आवर्तकों (जैसे - 16, 32, 48, 64, 160, 320, 640, 1280 इत्यादि) का उपयोग होता था। दिलचस्प बात ये है कि आधुनिक काल तक भारत में 1 रुपया 16 आने का होता था। 1 किलो में 4 पाव होते थे और हर पाव में 4 कनवां यानि एक किलो में कुल 16 कनवां।

अवसान(The expiration)[संपादित करें]

यह सभ्यता मुख्यतः 2600 ई.पू. से 1900 ई. पू. तक रही। ऐसा आभास होता है कि यह सभ्यता अपने अंतिम चरण में ह्रासोन्मुख थी। इस समय मकानों में पुरानी ईंटों के प्रयोग की जानकारी मिलती है। इसके विनाश के कारणों पर विद्वान सहमत नहीं हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे विभिन्न तर्क दिये जाते हैं जैसे: आक्रमण, जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असंतुलन, बाढ तथा भू-तात्विक परिवर्तन, महामारी, आर्थिक कारण। ऐसा लगता है कि इस सभ्यता के पतन का कोई एक कारण नहीं था बल्कि विभिन्न कारणों के मेल से ऐसा हुआ। जो अलग अलग समय में या एक साथ होने कि सम्भावना है। मोहेन्जो दरो में नग‍र और जल निकास कि व्यवस्था से महामारी कि सम्भावना कम लगती है। भीषण अग्निकान्ड के भी प्रमाण प्राप्त हुए है। मोहेन्जोदरो के एक कमरे से १४ नर कंकाल मिले है जो आक्रमण, आगजनी, महामारी के संकेत है
गंगेटिक वैली
गंगा ( संस्कृतगंंगा ; बांग्लाগঙ্গা ) भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। यह भारत और बांग्लादेश में कुल मिलाकर 2510 किलोमीटर (कि॰मी॰) की दूरी तय करती हुई उत्तराखण्ड में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुन्दरवन तक विशाल भू-भाग को सींचती है। देश की प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। २,०७१ कि॰मी॰ तक भारत तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट (३१ मी॰) की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ तथा देवी के रूप में की जाती है। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौन्दर्य और महत्त्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किये गये हैं।
इस नदी में मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियाँ तो पायी ही जाती हैं, मीठे पानी वाले दुर्लभ डॉलफिन भी पाये जाते हैं। यह कृषिपर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है तथा अपने तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी करती है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बांध और नदी परियोजनाएँ भारत की बिजली, पानी और कृषि से सम्बन्धित ज़रूरतों को पूरा करती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं[कृपया उद्धरण जोड़ें] कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। गंगा की इस अनुपम शुद्धीकरण क्षमता तथा सामाजिक श्रद्धा के बावजूद इसको प्रदूषित होने से रोका नहीं जा सका है। फिर भी इसके प्रयत्न जारी हैं और सफ़ाई की अनेक परियोजनाओं के क्रम में नवम्बर,२००८ में भारत सरकार द्वारा इसे भारत की राष्ट्रीय नदी[1][2] तथा प्रयागराज (इलाहाबाद) और हल्दिया के बीच (१६०० किलोमीटर) गंगा नदी जलमार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया है।

उद्गम[संपादित करें]

गंगा नदी की प्रधान शाखा भागीरथी है जो कुमायूँ में हिमालय के गौमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद(GURUKUL) से निकलती हैं।[4] गंगा के इस उद्गम स्थल की ऊँचाई ३१४० मीटर है। यहाँ गंगा जी को समर्पित एक मंदिर है। गंगोत्री तीर्थ, शहर से १९ कि॰मी॰ उत्तर की ओर ३८९२ मी॰ (१२,७७० फीट) की ऊँचाई पर इस हिमनद का मुख है। यह हिमनद २५ कि॰मी॰ लम्बा व ४ कि॰मी॰ चौड़ा और लगभग ४० मीटर ऊँचा है। इसी ग्लेशियर से भागीरथी एक छोटे से गुफानुमा मुख पर अवतरित होती हैं। इसका जल स्रोत ५००० मीटर ऊँचाई पर स्थित एक घाटी है। इस घाटी का मूल पश्चिमी ढलान की सन्तोपन्थ की चोटियों में है। गौमुख के रास्ते में ३६०० मीटर ऊँचे चिरबासा ग्राम से विशाल गौमुख हिमनद के दर्शन होते हैं।[5] इस हिमनद में नन्दा देवीकामत पर्वत एवंत्रिशूल पर्वत का हिम पिघल कर आता है। यद्यपि गंगा के आकार लेने में अनेक छोटी धाराओं का योगदान है, लेकिन ६ बड़ी और उनकी सहायक ५ छोटी धाराओं का भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्त्व अधिक है। अलकनन्दा की सहायक नदी धौलीविष्णु गंगा तथा मन्दाकिनी है। धौली गंगा का अलकनन्दा से विष्णु प्रयाग में संगम होता है। यह १३७२ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। फिर २८०५ मीटर ऊँचे नन्द प्रयाग में अलकनन्दा का नन्दाकिनी नदी से संगम होता है। इसके बाद कर्ण प्रयाग में अलकनन्दा का कर्ण गंगा या पिंडर नदी से संगम होता है। फिर ऋषिकेश से १३९ कि॰मी॰ दूर स्थित रुद्र प्रयाग में अलकनन्दा मन्दाकिनी से मिलती है। इसके बाद भागीरथी व अलकनन्दा १५०० फीट पर स्थित देव प्रयाग में संगम करती हैं यहाँ से यह सम्मिलित जल-धारा गंगा नदी के नाम से आगे प्रवाहित होती है। इन पाँच प्रयागों को सम्मिलित रूप से पंच प्रयाग कहा जाता है।[4] इस प्रकार २०० कि॰मी॰ का सँकरा पहाड़ी रास्ता तय करके गंगा नदी ऋषिकेश होते हुए प्रथम बार मैदानों का स्पर्श हरिद्वार में करती हैं।

गंगा का मैदान[संपादित करें]

हरिद्वार से लगभग ८०० कि॰मी॰ मैदानी यात्रा करते हुए गढ़मुक्तेश्वर, सोरों, फर्रुखाबादकन्नौजबिठूरकानपुर होते हुए गंगा इलाहाबाद (प्रयाग) पहुँचती है। यहाँ इसका संगम यमुना नदी से होता है। यह संगम स्थल हिन्दुओं का एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ है। इसे तीर्थराज प्रयाग कहा जाता है। इसके बाद हिन्दू धर्म की प्रमुख मोक्षदायिनी नगरी काशी(वाराणसी) में गंगा एक वक्र लेती है, जिससे यहाँ उत्तरवाहिनी कहलाती है। यहाँ से मीरजापुरपटनाभागलपुर होते हुए पाकुर पहुँचती है। इस बीच इसमें बहुत-सी सहायक नदियाँ, जैसे सोनगण्डकघाघराकोसी आदि मिल जाती हैं। भागलपुर में राजमहल की पहाड़ियों से यह दक्षिणवर्ती होती है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के गिरिया स्थान के पास गंगा नदी दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है— भागीरथी और पद्मा। भागीरथी नदी गिरिया से दक्षिण की ओर बहने लगती है जबकि पद्मा नदी दक्षिण-पूर्व की ओर बहती फरक्का बैराज (१९७४ निर्मित) से छनते हुई बंग्ला देश में प्रवेश करती है। यहाँ से गंगा का डेल्टाई भाग शुरू हो जाता है। मुर्शिदाबाद शहर से हुगली शहर तक गंगा का नाम भागीरथी नदी तथा हुगली शहर से मुहाने तक गंगा का नाम हुगली नदी है। गंगा का यह मैदान मूलत: एक भू-अभिनति गर्त है जिसका निर्माण मुख्य रूप से हिमालय पर्वतमाला निर्माण प्रक्रिया के तीसरे चरण में लगभग ३-४ करोड़ वर्ष पहले हुआ था। तब से इसे हिमालय और प्रायद्वीप से निकलने वाली नदियाँ अपने साथ लाये हुए अवसादों से पाट रही हैं। इन मैदानों में जलोढ़ की औसत गहराई १००० से २००० मीटर है। इस मैदान में नदी की प्रौढ़ावस्था में बनने वाली अपरदनी और निक्षेपण स्थलाकृतियाँ, जैसे— बालू-रोधका, विसर्प, गोखुर झीलें और गुम्फित नदियाँ पायी जाती हैं।[6]
गंगा की इस घाटी में एक ऐसी सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ जिसका प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवमयी व वैभवशाली है। जहाँ ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारत, बल्कि समस्त संसार आलोकित हुआ। पाषाण या प्रस्तर युग का जन्म और विकास यहाँ होने के अनेक साक्ष्य मिले हैं। इसी घाटी में रामायण और महाभारत कालीन युग का उद्भव और विलय हुआ। शतपथ ब्राह्मणपंचविश ब्राह्मणगौपथ ब्राह्मणऐतरेय आरण्यककौशितकी आरण्यकसांख्यायन आरण्यकवाजसनेयी संहिता औरमहाभारत इत्यादि में वर्णित घटनाओं से उत्तर वैदिककालीन गंगा घाटी की जानकारी मिलती है। प्राचीन मगध महाजनपद का उद्भव गंगा घाटी में ही हुआ, जहाँ से गणराज्यों की परम्परा विश्व में पहली बार प्रारम्भ हुई। यहीं भारत का वह स्वर्ण युग विकसित हुआ जब मौर्य और गुप्त वंशीय राजाओं ने यहाँ शासन किया।[7]

सुंदरवन डेल्टा[संपादित करें]

सुंदरवन-विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा-गंगा का मुहाना-बंगाल की खाड़ी में
हुगली नदी कोलकाताहावड़ा होते हुए सुन्दरवन के भारतीय भाग में सागर से संगम करती है। पद्मा में ब्रह्मपुत्र से निकली शाखा नदी जमुना नदी एवम् मेघना नदी मिलती हैं। अंततः ये ३५० कि॰मी॰ चौड़े सुन्दरवन डेल्टा में जाकर बंगाल की खाड़ी में सागर संगम करती है। यह डेल्टा गंगा एवम् उसकी सहायक नदियों द्वारा लायी गयी नवीन जलोढ़ से १,००० वर्षों में निर्मित समतल तथा निम्न मैदान है। यहाँ गंगा और बंगाल की खाड़ी के संगम पर एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ है जिसे गंगा-सागर-संगम कहते हैं।[8]विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा (सुन्दरवन) बहुत-सी प्रसिद्ध वनस्पतियों और प्रसिद्ध बंगाल टाईगर का निवास स्थान है।[8] यह डेल्टा धीरे-धीरे सागर की ओर बढ़ रहा है। कुछ समय पहले कोलकाता सागर तट पर ही स्थित था और सागर का विस्तार राजमहल तथा सिलहट तक था, परन्तु अब यह तट से १५-२० मील (२४-३२ किलोमीटर) दूर स्थित लगभग १,८०,००० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। जब डेल्टा का सागर की ओर निरन्तर विस्तार होता है तो उसे प्रगतिशील डेल्टा कहते हैं।[9] सुन्दरवन डेल्टा में भूमि का ढाल अत्यन्त कम होने के कारण यहाँ गंगा अत्यन्त धीमी गति से बहती है और अपने साथ लायी गयी मिट्टी को मुहाने पर जमा कर देती है, जिससे डेल्टा का आकार बढ़ता जाता है और नदी की कई धाराएँ तथा उपधाराएँ बन जाती हैं। इस प्रकार बनी हुई गंगा की प्रमुख शाखा नदियाँ जालंगी नदीइच्छामती नदीभैरव नदी,विद्याधरी नदी और कालिन्दी नदी हैं। नदियों के वक्र गति से बहने के कारण दक्षिणी भाग में कई धनुषाकार झीलें बन गयी हैं। ढाल उत्तर से दक्षिण है, अतः अधिकांश नदियाँ उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हैं। ज्वार के समय इन नदियों में ज्वार का पानी भर जाने के कारण इन्हें ज्वारीय नदियाँ भी कहते हैं। डेल्टा के सुदूर दक्षिणी भाग में समुद्र का खारा पानी पहुँचने का कारण यह भाग नीचा, नमकीन एवं दलदली है तथा यहाँ आसानी से पनपने वाले मैंग्रोव जाति के वनों से भरा पड़ा है। यह डेल्टा चावल की कृषि के लिए अधिक विख्यात है। यहाँ विश्व में सबसे अधिक कच्चे जूट का उत्पादन होता है। कटका अभ्यारण्य सुन्दरवन के उन इलाकों में से है जहाँ का रास्ता छोटी-छोटी नहरों से होकर गुजरता है। यहाँ बड़ी तादाद में सुन्दरी पेड़ मिलते हैं जिसके कारण इन वनों का नाम सुन्दरवन पड़ा है। इसके अलावा यहाँ पर देवाकेवड़ातर्मजाआमलोपी और गोरान वृक्षों की ऐसी प्रजातियाँ हैं, जो सुन्दरवन में पायी जाती हैं। यहाँ के वनों की एक खास बात यह है कि यहाँ वही पेड़ पनपते या बच सकते हैं, जो मीठे और खारे पानी के मिश्रण में रह सकते हों।[10]

सहायक नदियाँ[संपादित करें]

देवप्रयाग में भागीरथी (बाएँ) एवं अलकनंदा (दाएँ) मिलकर गंगा का निर्माण करती हुईं
गंगा में उत्तर की ओर से आकर मिलने वाली प्रमुख सहायक नदियाँ यमुना, रामगंगा, करनाली (घाघरा), ताप्ती, गंडक, कोसी और काक्षी हैं तथा दक्षिण के पठार से आकर इसमें मिलने वाली प्रमुख नदियाँ चम्बल, सोन, बेतवा, केन, दक्षिणी टोस आदि हैं। यमुना, गंगा की सबसे प्रमुख सहायक नदी है जो हिमालय की बन्दरपूँछ चोटी के आधार पर यमुनोत्री हिमखण्ड से निकली है।[11][12] हिमालय के ऊपरी भाग में इसमें टोंस[13] तथा बाद में लघु हिमालय में आने पर इसमें गिरि और आसन नदियाँ मिलती हैं। चम्बल, बेतवा, शारदा और केन यमुना की सहायक नदियाँ हैं। चम्बल इटावा के पास तथा बेतवा हमीरपुर के पास यमुना में मिलती हैं। यमुना इलाहाबाद के निकट बायीं ओर से गंगा नदी में जा मिलती है। रामगंगा मुख्य हिमालय के दक्षिणी भाग नैनीताल के निकट से निकलकर बिजनौर जिले से बहती हुई कन्नौज के पास गंगा में मिलती है। करनाली नदी मप्सातुंग नामक हिमनद से निकलकर अयोध्याफैजाबाद होती हुई बलिया जिले के सीमा के पास गंगा में मिल जाती है। इस नदी को पर्वतीय भाग में कौरियाला तथा मैदानी भाग में घाघरा कहा जाता है। गंडक हिमालय से निकलकर नेपाल में शालीग्राम नाम से बहती हुई मैदानी भाग में नारायणी नदी का नाम पाती है। यह काली गंडक और त्रिशूल नदियों का जल लेकर प्रवाहित होती हुई सोनपुर के पास गंगा में मिलती है। कोसी की मुख्यधारा अरुण है जो गोसाई धाम के उत्तर से निकलती है। ब्रह्मपुत्र के घाटी के दक्षिण से सर्पाकार रूप में अरुण नदी बहती है, जहाँ यारू नामक नदी इससे मिलती है। इसके बाद एवरेस्ट के कंचनजंघा शिखरों के बीच से बहती हुई यह दक्षिण की ओर ९० किलोमीटर बहती है, जहाँ पश्चिम से सूनकोसी तथा पूरब से तामूर कोसी नामक नदियाँ इसमें मिलती हैं। इसके बाद कोसी नदी के नाम से यहशिवालिक को पार करके मैदान में उतरती है तथा बिहार राज्य से बहती हुई गंगा में मिल जाती है। अमरकंटक पहाड़ी (मध्यप्रदेश) से निकलकर सोन नदी पटना के पास गंगा में मिलती है। मध्य-प्रदेश के मऊ के निकट जनायाब पर्वत से निकलकर चम्बल नदी इटावा से ३८ किलोमीटर की दूरी पर यमुना नदी में मिलती है। बेतवा नदी मध्य प्रदेश मेंभोपाल से निकलकर उत्तर हमीरपुर के निकट यमुना में मिलती है। भागीरथी नदी के दायें किनारे से मिलने वाली अनेक नदियों में बाँसलई, द्वारका, मयूराक्षी, रूपनारायण, कंसावती और रसूलपुर प्रमुख हैं। जलांगी और माथा भाँगा या चूनीं बायें किनारे से मिलती हैं जो अतीत काल में गंगा या पद्मा की शाखा नदियाँ थीं। किन्तु ये वर्तमान समय में गंगा से पृथक होकर वर्षाकालीन नदियाँ बन गयी हैं।

जीव-जन्तु[संपादित करें]

गंगा नदी में पाए जाने वाले घड़ियाल
गंगा नदी में पायी जाने वाली डॉलफिन मछली जिसे आम बोलचाल की भाषा में सोंस कहते हैं
ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि १६वीं तथा १७वीं शताब्दी तक गंगा-यमुना प्रदेश घने वनों से ढका हुआ था। इन वनों में जंगली हाथीभैंस, गेंडा, शेर, बाघ तथा गवल का शिकार होता था। गंगा का तटवर्ती क्षेत्र अपने शान्त व अनुकूल पर्यावरण के कारण रंग-बिरंगे पक्षियों का संसार अपने आंचल में संजोए हुए है। इसमें मछलियों की १४० प्रजातियाँ, ३५ सरीसृप तथा इसके तट पर ४२ स्तनधारी प्रजातियाँ पायी जाती हैं। यहाँ की उत्कृष्ट पारिस्थितिकी संरचना में कई प्रजाति के वन्य जीवों जैसे—नीलगाय, साम्भर, खरगोशनेवला, चिंकारा के साथ सरीसृप वर्ग के जीव-जन्तुओं को भी आश्रय मिला हुआ है। इस इलाके में ऐसे कई जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ हैं जो दुर्लभ होने के कारण संरक्षित घोषित की जा चुकी हैं। गंगा के पर्वतीय किनारों पर लंगूर, लाल बंदर, भूरे भालू, लोमड़ी, चीते, बर्फीले चीते, हिरण, भौंकने वाले हिरण, साम्भर, कस्तूरी मृग, सेरो, बरड़ मृग, साही, तहर आदि काफ़ी संख्या में मिलते हैं। विभिन्न रंगों की तितलियाँ तथा कीट भी यहाँ पाये जाते हैं।[14] बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव में धीरे-धीरे वनों का लोप होने लगा है और गंगा की घाटी में सर्वत्र कृषि होती है फिर भी गंगा के मैदानी भाग में हिरण, जंगली सूअर, जंगली बिल्लियाँ, भेड़िया, गीदड़, लोमड़ी की अनेक प्रजातियाँ काफी संख्या में पाये जाते हैं। डॉलफिन की दो प्रजातियाँ गंगा में पायी जाती हैं। जिन्हें गंगा डॉलफिन और इरावदी डॉलफिन के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा गंगा में पायी जाने वाले शार्क की वजह से भी गंगा की प्रसिद्धि है, जिसमें बहते हुए पानी में पायी जानेवाली शार्क के कारण विश्व के वैज्ञानिकों की काफी रुचि है। इस नदी और बंगाल की खाड़ी के मिलन स्थल पर बनने वाले मुहाने को सुन्दरवन के नाम से जाना जाता है जो विश्व की बहुत-सी प्रसिद्ध वनस्पतियों और प्रसिद्ध बंगाल बाघ का गृहक्षेत्र है।

आर्थिक महत्त्व[संपादित करें]

गंगा में रैफ्टिंग भी होती है।
गंगा अपनी उपत्यकाओं (घाटियों) में भारत और बांग्लादेश के कृषि आधारित अर्थ में भारी सहयोग तो करती ही है, यह अपनी सहायक नदियों सहित बहुत बड़े क्षेत्र के लिए सिंचाई के बारहमासी स्रोत भी हैं। इन क्षेत्रों में उगायी जाने वाली प्रधान उपज में मुख्यतः धानगन्नादालतिलहनआलू एवम् गेहूँ हैं। जो भारत की कृषि आज का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। गंगा के तटीय क्षेत्रों में दलदल तथा झीलों के कारण यहाँ लेग्यूम, मिर्च, सरसो, तिल, गन्ना और जूट की बहुतायत फसल होती है। नदी में मत्स्य उद्योग भी बहुत जोरों पर चलता है। गंगा नदी प्रणाली भारत की सबसे बड़ी नदी प्रणाली है; इसमें लगभग ३७५ मत्स्य प्रजातियाँ उपलब्ध हैं। वैज्ञानिकों द्वारा उत्तर प्रदेश व बिहार में १११ मत्स्य प्रजातियों की उपलब्धता बतायी गयी है।[15] फरक्का बांध बन जाने से गंगा नदी में हिल्सा मछली के बीजोत्पादन में सहायता मिली है।[16] गंगा का महत्त्व पर्यटन पर आधारित आय के कारण भी है। इसके तट पर ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तथा प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर कई पर्यटन स्थल है जो राष्ट्रीय आय का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। गंगा नदी पर रैफ्टिंग के शिविरों का आयोजन किया जाता है। जो साहसिक खेलों और पर्यावरण द्वारा भारत के आर्थिक सहयोग में सहयोग करते हैं। गंगा तट के तीन बड़े शहरहरिद्वारप्रयागराज एवम् वाराणसी जो तीर्थ स्थलों में विशेष स्थान रखते हैं। इस कारण यहाँ श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या निरन्तर बनी रहती है तथा धार्मिक पर्यटन में महत्त्वपूर्ण योगदान करती हैं। गर्मी के मौसम में जब पहाड़ों से बर्फ पिघलती है, तब नदी में पानी की मात्रा व बहाव अत्यधिक होता है, इस समय उत्तराखण्ड में ऋषिकेश, बद्रीनाथ मार्ग पर कौडियाला से ऋषिकेश के मध्य रैफ्टिंग, क्याकिंग व कैनोइंग के शिविरों का आयोजन किया जाता है, जो साहसिक खेलों के शौकीनों व पर्यटकों को विशेष रूप से आकर्षित करके भारत के आर्थिक सहयोग में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।[17]

बांध एवम् नदी परियोजनाएँ[संपादित करें]

गंगा नदी पर निर्मित अनेक बांध भारतीय जन-जीवन तथा अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इनमें प्रमुख हैं— फ़रक्का बांध, टिहरी बांध, तथा भीमगोडा बांध। फ़रक्का बांध (बैराज) भारत के पश्चिम बंगाल प्रान्त में स्थित गंगा नदी पर बनाया गया है। इस बांध का निर्माण कोलकाता बंदरगाह को गाद (सिल्ट) से मुक्त कराने के लिए किया गया था जो कि १९५० से १९६० तक इस बंदरगाह की प्रमुख समस्या थी। कोलकाता हुगली नदी पर स्थित एक प्रमुख बंदरगाह है। ग्रीष्म ऋतु में हुगली नदी के बहाव को निरन्तर बनाये रखने के लिए गंगा नदी के जल के एक बड़े हिस्से को फ़रक्का बांध के द्वारा हुगली नदी में मोड़ दिया जाता है। गंगा पर निर्मित दूसरा प्रमुख टिहरी बांध, टिहरी विकास परियोजना का एक प्राथमिक बांध है जो उत्तराखण्ड प्रान्त के टिहरी जिले में स्थित है। यह बांध गंगा नदी की प्रमुख सहयोगी नदी भागीरथी पर बनाया गया है। टिहरी बांध की ऊँचाई २६१ मीटर है जो इसे विश्व का पाँचवाँ सबसे ऊँचा बांध बनाती है। इस बांध से २४०० मेगावाट विद्युत उत्पादन, २,७०,००० हेक्टर क्षेत्र की सिंचाई और प्रतिदिन १०२.२० करोड़ लीटर पेयजल दिल्ली, उत्तर-प्रदेश एवम् उत्तराखण्ड को उपलब्ध कराना प्रस्तावित है। तीसरा प्रमुख भीमगोडा बांध हरिद्वार में स्थित है जिसको सन् १८४० में अंग्रेजों ने गंगा नदी के पानी को विभाजित कर ऊपरी गंगा नहर में मोड़ने के लिए बनवाया था। यह नहर हरिद्वार के भीमगोडा नामक स्‍थान से गंगा नदी के दाहिने तट से निकलती है। प्रारम्‍भ में इस नहर में जलापूर्ति गंगा नदी में एक अस्‍थायी बांध बनाकर की जाती थी। वर्षाकाल प्रारम्‍भ होते ही अस्‍थायी बांध टूट जाया करता था तथा मॉनसून अवधि में नहर में पानी चलाया जाता था। इस प्रकार इस नहर से केवल रबी की फसलों की ही सिंचाई हो पाती थी। अस्‍थायी बांध निर्माण स्‍थल के अनुप्रवाह (नीचे की ओर बहाव) में वर्ष १९७८-१९८४ की अवधि में भीमगोडा बैराज का निर्माण करवाया गया। इसके बन जाने के बाद ऊपरी गंगा नहर प्रणाली से खरीफ की फसल में भी पानी दिया जाने लगा।[18]

प्रदूषण एवं पर्यावरण[संपादित करें]

गोमुख पर शुद्ध गंगा
गंगा नदी विश्व भर में अपनी शुद्धीकरण क्षमता के कारण जानी जाती है। लम्बे समय से प्रचलित इसकी शुद्धीकरण की मान्यता का वैज्ञानिक आधार भी है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। नदी के जल में प्राणवायु (ऑक्सीजन) की मात्रा को बनाये रखने की असाधारण क्षमता है; किन्तु इसका कारण अभी तक अज्ञात है। एक राष्ट्रीय सार्वजनिक रेडियो कार्यक्रम के अनुसार इस कारण हैजा और पेचिशजैसी बीमारियाँ होने का खतरा बहुत ही कम हो जाता है, जिससे महामारियाँ होने की सम्भावना बड़े स्तर पर टल जाती है।[19] लेकिन गंगा के तट पर घने बसे औद्योगिक नगरों के नालों की गंदगी सीधे गंगा नदी में मिलने से प्रदूषण पिछले कई सालों से भारत सरकार और जनता के चिन्ता का विषय बना हुआ है। औद्योगिक कचरे के साथ-साथ प्लास्टिक कचरे की बहुतायत ने गंगा जल को बेहद प्रदूषित किया है। वैज्ञानिक जाँच के अनुसार गंगा का बायोलॉजिकल ऑक्सीजन स्तर ३ डिग्री (सामान्य) से बढ़कर ६ डिग्री हो चुका है। गंगा में २ करोड़ ९० लाख लीटर प्रदूषित कचरा प्रतिदिन गिर रहा है। विश्व बैंक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर-प्रदेश की १२ प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल है। यह घोर चिन्तनीय है कि गंगाजल न स्नान के योग्य रहा, न पीने के योग्य रहा और न ही सिंचाई के योग्य। गंगा के पराभव का अर्थ होगा, हमारी समूची सभ्यता का अन्त।[20] गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिए घड़ियालों की मदद ली जा रही है।[21] शहर की गंदगी को साफ करने के लिए संयंत्रों को लगाया जा रहा है और उद्योगों के कचरों को इसमें गिरने से रोकने के लिए कानून बने हैं। इसी क्रम में गंगा को राष्ट्रीय धरोहर भी घोषित कर दिया गया है और गंगा एक्शन प्लान व राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना लागू की गयी हैं। हालाँकि इसकी सफलता पर प्रश्नचिह्न भी लगाये जाते रहे हैं।[22] जनता भी इस विषय में जागृत हुई है। इसके साथ ही धार्मिक भावनाएँ आहत न हों इसके भी प्रयत्न किये जा रहे हैं।[23] इतना सबकुछ होने के बावजूद गंगा के अस्तित्व पर संकट के बादल छाये हुए हैं। २००७ की एक संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट के अनुसार हिमालय पर स्थित गंगा की जलापूर्ति करने वाले हिमनद की २०३० तक समाप्त होने की सम्भावना है। इसके बाद नदी का बहाव वर्षा-ऋतु पर आश्रित होकर मौसमी ही रह जाएगा।[24]

नमामि गंगे[संपादित करें]

इस नदी की सफाई के लिए कई बार पहल की गयी लेकिन कोई भी संतोषजनक स्थिति तक नहीं पहुँच पाया।[25] प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गंगा नदी में प्रदूषण पर नियंत्रण करने और इसकी सफाई का अभियान चलाया।[26] इसके बाद उन्होंने जुलाई २०१४ में भारत के आम बजट में नमामि गंगा नामक एक परियोजना आरम्भ की।[27] इसी परियोजना के हिस्से के रूप में भारत सरकार ने गंगा के किनारे स्थित ४८ औद्योगिक इकाइयों को बन्द करने का आदेश दिया है।[28]

धार्मिक महत्त्व[संपादित करें]

वाराणसी घाट पर गंगा की आरती
भारत की अनेक धार्मिक अवधारणाओं में गंगा नदी को देवी के रूप में निरुपित किया गया है। बहुत से पवित्र तीर्थस्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हुए हैं, जिनमें वाराणसी औरहरिद्वार सबसे प्रमुख हैं। गंगा नदी को भारत की नदियों में सबसे पवित्र माना जाता है एवं यह मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सारे पापों का नाश हो जाता है। मरने के बाद लोग गंगा में राख विसर्जित करना मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक समझते हैं, यहाँ तक कि कुछ लोग गंगा के किनारे ही प्राण विसर्जन या अंतिम संस्कार की इच्छा भी रखते हैं। इसके घाटों पर लोग पूजा अर्चना करते हैं और ध्यान लगाते हैं। गंगाजल को पवित्र समझा जाता है तथा समस्त संस्कारों में उसका होना आवश्यक है। पंचामृत में भी गंगाजल को एक अमृत माना गया है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा सम्बन्ध है। उदाहरण के लिए मकर संक्रांतिकुम्भ और गंगा दशहरा के समय गंगा में नहाना या केवल दर्शन ही कर लेना बहुत महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। इसके तटों पर अनेक प्रसिद्ध मेलों का आयोजन किया जाता है और अनेक प्रसिद्ध मंदिर गंगा के तट पर ही बने हुए हैं। महाभारत के अनुसार मात्र प्रयाग में माघ मास में गंगा-यमुना के संगम पर तीन करोड़ दस हजार तीर्थों का संगम होता है। ये तीर्थ स्थल सम्पूर्ण भारत में सांस्कृतिक एकता स्थापित करते हैं।[29] गंगा को लक्ष्य करके अनेक भक्ति ग्रन्थ लिखे गये हैं। जिनमें श्रीगंगासहस्रनामस्तोत्रम्[30] और आरती[31] सबसे लोकप्रिय हैं। अनेक लोग अपने दैनिक जीवन में श्रद्धा के साथ इनका प्रयोग करते हैं। गंगोत्री तथा अन्य स्थानों पर गंगा के मंदिर और मूर्तियाँ भी स्थापित हैं जिनके दर्शन कर श्रद्धालु स्वयं को कृतार्थ समझते हैं। उत्तराखण्ड के पंच प्रयागतथा प्रयागराज जो इलाहाबाद में स्थित है गंगा के वे प्रसिद्ध संगम स्थल हैं जहाँ वह अन्य नदियों से मिलती हैं। ये सभी संगम धार्मिक दृष्टि से पूज्य माने गये हैं।

पौराणिक प्रसंग[संपादित करें]

गंगा और शांतनुराजा रवि वर्मा की कलाकृति
गंगा नदी के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं। मिथकों के अनुसार ब्रह्मा ने विष्णु के पैर के पसीने की बून्दों से गंगा का निर्माण किया। त्रिमूर्ति के दो सदस्यों के स्पर्श के कारण यह पवित्र समझा गया। एक अन्य कथा के अनुसार राजा सगर ने जादुई रूप से साठ हजार पुत्रों की प्राप्ति की।[32] एक दिन राजा सगर ने देवलोक पर विजय प्राप्त करने के लिए एक यज्ञ किया। यज्ञ के लिए घोड़ा आवश्यक था जो ईर्ष्यालु इन्द्र ने चुरा लिया था। सगर ने अपने सारे पुत्रों को घोड़े की खोज में भेज दिया अन्त में उन्हें घोड़ा पाताल लोक में मिला जो एक ऋषि के समीप बंधा था। सगर के पुत्रों ने यह सोचकर कि ऋषि ही घोड़े के गायब होने की वजह हैं, उन्होंने ऋषि का अपमान किया। तपस्या में लीन ऋषि ने हजारों वर्ष बाद अपनी आँखें खोली और उनके क्रोध से सगर के सभी साठ हजार पुत्र जलकर वहीं भस्म हो गये।[33] सगर के पुत्रों की आत्माएँ भूत बनकर विचरने लगीं क्योंकि उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया था। सगर के पुत्र अंशुमान ने आत्माओं की मुक्ति का असफल प्रयास किया और बाद में अंशुमान के पुत्र दिलीप ने भी। भगीरथ राजा दिलीप की दूसरी पत्नी के पुत्र थे। उन्होंने अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार किया। उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रण किया जिससे उनके अंतिम संस्कार कर, राख को गंगाजल में प्रवाहित किया जा सके और भटकती आत्माएँ स्वर्ग में जा सकें। भगीरथ ने ब्रह्मा की घोर तपस्या की ताकि गंगा को पृथ्वी पर लाया जा सके। ब्रह्मा प्रसन्न हुए और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिए तैयार हुए और गंगा को पृथ्वी पर और उसके बाद पाताल में जाने का आदेश दिया ताकि सगर के पुत्रों की आत्माओं की मुक्ति सम्भव हो सके। तब गंगा ने कहा कि मैं इतनी ऊँचाई से जब पृथ्वी पर अवतरित होऊँगी तो पृथ्वी इतना वेग कैसे सह पाएगी? तत्पश्चात् भगीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया और उन्होंने अपनी खुली जटाओं में गंगा के वेग को रोककर, एक लट खोल दी, जिससे गंगा की अविरल धारा पृथ्वी पर प्रवाहित हुई। वह धारा भगीरथ के पीछे-पीछे गंगा-सागर संगम तक गयीं, जहाँ सगर-पुत्रों का उद्धार हुआ। शिव के स्पर्श से गंगा और भी पावन हो गयीं और पृथ्वीवासियों के लिए श्रद्धा का केन्द्र बन गयीं। पुराणों के अनुसार स्वर्ग में गंगा को मन्दाकिनी और पाताल मेंभागीरथी कहते हैं। इसी प्रकार एक पौराणिक कथा राजा शान्तनु और गंगा के विवाह तथा उनके सात पुत्रों के जन्म की है।

साहित्यिक उल्लेख[संपादित करें]

गंगा अवतरण एक लोकचित्र
भारत की राष्ट्र-नदी गंगा जल ही नहीं, अपितु भारत और हिन्दी साहित्य की मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है।[34] ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। संस्कृत कवि जगन्नाथ राय ने गंगा की स्तुति में 'श्रीगंगालहरी' नामक काव्य की रचना की है। हिन्दी के आदि महाकाव्य पृथ्वीराज रासो[क] तथा वीसलदेव रास[ख] (नरपति नाल्ह) में गंगा का उल्लेख है। आदिकाल का सर्वाधिक लोक विश्रुत ग्रन्थ जगनिक रचित आल्हखण्ड[ग]में गंगायमुना और सरस्वती का उल्लेख है। कवि ने प्रयागराज की इस त्रिवेणी को पापनाशक बतलाया है। श्रृंगार-रस के कवि विद्यापति[घ]कबीर वाणी और जायसी के पद्मावतमें भी गंगा का उल्लेख है, किन्तु सूरदास[ङ] और तुलसीदास ने भक्ति भावना से गंगा-महात्म्य का वर्णन विस्तार से किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड में ‘श्री गंगा महात्म्य’ का वर्णन तीन छंदों में किया है— इन छंदों में कवि ने गंगा दर्शन, गंगा स्नान, गंगा जल सेवन, गंगा तट पर बसने वालों के महत्त्व को वर्णित किया है।[च]रीतिकाल में सेनापति और पद्माकर का गंगा वर्णन श्लाघनीय है। पद्माकर ने गंगा की महिमा और कीर्ति का वर्णन करने के लिए गंगालहरी[35] नामक ग्रन्थ की रचना की है। सेनापति[छ] कवित्त रत्नाकर में गंगा महात्म्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पाप की नाव को नष्ट करने के लिए गंगा की पुण्यधारा तलवार-सी सुशोभित है। रसखानरहीम[ज]आदि ने भी गंगा प्रभाव का सुन्दर वर्णन किया है। आधुनिक काल के कवियों में जगन्नाथदास रत्नाकर के ग्रन्थ गंगावतरण में कपिल मुनि द्वारा शापित सगर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार के लिए भगीरथ की 'भगीरथ-तपस्या' से गंगा के भूमि पर अवतरित होने की कथा है। सम्पूर्ण ग्रन्थ तेरह सर्गों में विभक्त और रोला छंद में निबद्ध है। अन्य कवियों मेंभारतेन्दु हरिश्चन्द्रसुमित्रानन्दन पन्त और श्रीधर पाठक आदि ने भी यत्र-तत्र गंगा का वर्णन किया है।[29] छायावादी कवियों का प्रकृति वर्णन हिन्दी साहित्य में उल्लेखनीय है। सुमित्रानन्दन पन्त ने ‘नौका विहार’[36] में ग्रीष्मकालीन तापस बाला गंगा का जो चित्र उकेरा है, वह अति रमणीय है। उन्होंने गंगा[37] नामक कविता भी लिखी है। गंगा नदी के कई प्रतीकात्मक अर्थों का वर्णन जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक भारत एक खोज (डिस्कवरी ऑफ इंडिया) में किया है।[झ] गंगा की पौराणिक कहानियों को महेन्द्र मित्तलअपनी कृति माँ गंगा में संजोया है।
ताम्रपाशान युग –
इसमें केवल विदर्भ और तटीय कोकण क्षेत्र को छोड़कर आधुनिक महाराष्ट्र के सभी क्षेत्र शामिल है। ताम्र पाषाण युग या तांबा युग (अंग्रेजी: चाल्कोलिथिक, यूनानी: χαλκός khalkós, "ताम्र" और λίθος líthos, "पाषाण") यह नवपाषाण युग के बाद शुरू होता है लगभग ५००० ईसापूर्व के आस पास साथ ही इसे कांस्य युग का ही एक भाग माना जाता है। इस काल में मनुष्य पत्थर के औजार से तांबे के औजार उपयोग करने लग गया था।
कांस्य युग –
भारत में कांस्य युग की शुरुवात तक़रीबन 5300 साल पहले इंडस वैली सभ्यता के साथ ही हुई थी। इंडस नदी के बीच में यह युग था और इसके सहयोगी लगभग घग्गर-हकरा नदी घाटी, गंगा-यमुना डैम, गुजरात और उत्तरी-पूर्वी अफगानिस्तान तक फैले हुए है। यह युग हमें ज्यादातर आधुनिक भारत (गुजरात, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान) और पकिस्तान (सिंध, पंजाब और बलोचिस्तान) में दिखाई देता है।
उस समय उपमहाद्वीप का पहला शहर इंडस घाटी सभ्यता – हड़प्पा संस्कृति में ही था। यह दुनिया में सबसे प्राचीन शहरी सभ्यताओ में से एक था। इसके बाद इंडस वैली नदी के किनारे ही हड़प्पा ने भी हस्तकला और नये तंत्रज्ञान में अपनी सभ्यता को विकसित किया और कॉपर, कांस्य, लीड और टिन का उत्पादन करने लगे।
पूरी तरह से विकसित इंडस सभ्यता की समृद्धि आज से तक़रीबन 4600 से 3900 साल पहले ही हो चुकी थी। भारतीय उपमहाद्वीप पर यह शहरी सभ्यता की शुरुवात भर थी। इस सभ्यता में शहरी सेंटर जैसे धोलावीरा, कालीबंगा, रोपर, राखिगढ़ी और लोथल भी शामिल है और वर्तमान पकिस्तान में भी हड़प्पा, गनेरीवाला और मोहेंजोदारो शामिल है। यह सभ्यता ईंटो से बने अपने शहरो, रोड के दोनों तरफ बने जलनिकास यंत्र और बहु-कथात्मक घरो के लिये प्रसिद्ध थी।
इस सभ्यता के समय में ही उनक क्रमशः कम होने के संकेत दिखाई देने लगे थे। 3700 साल पहले ही इनके द्वारा विकसित किये गए बहुत से शहरो को उन्होंने छोड़ दिया था। लेकिन इंडस वल्ली सभ्यता का पतन अचानक नही हुआ था। इनका पतन होने के बाद भी सभ्यता के कुछ लोग छोटे गाँव में अपना गुजरा करते थे।
वैदिक सभ्यता –
वेद भारत के सबसे प्राचीन शिक्षा स्त्रोतों में से एक है, लेकिन 5 वी शताब्दी तक इसे केवल मौखिक रूप में ही बताया जाता था। धार्मिक रूप से चार वेद है, पहला ऋग्वेद। ऋग्वेद के अनुसार सभी राज्यों में सबसे पहले आर्य भारत में स्थापित हुए थे और जहाँ वे स्थापित हुए थे उस जगह हो 7 नदियों की जगह भी कहा जाता था, उस जगह का नाम सप्तसिंधवा था।
चार वेदों में से बाकी तीन वेद सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद है। सभी वेदों में कुछ छंद है जिनमे भगवान और दूसरो की स्तुति की गयी है। वेद में दूसरी बहुमूल्य जानकारियाँ भी है। उस समय में शामरा समाज काफी ग्राम्य था।
ऋग्वेद के बाद, हमारा समाज और कृषि जन्य बन गया। लोग भी चार भागो में विभाजित हो गए थे, ये इन भागो को उनके काम के आधार पर बाँटा गया था। ब्राह्मण पुजारी और शिक्षक होते थे, क्षत्रिय योद्धा होते थे, वैश्य खेती, व्यापार और वाणिज्यिक कार्य करते थे और शुद्र साधारण काम करने वाले लोग थे।
एक साधारण भ्रम यह भी था की वैश्य और शुद्र को निचली जाती का माना जाता था और ब्राह्मण और क्षत्रिय लोग उन्हें बुरी नजर से देखते थे और उनका साथ बुरा व्यवहार करते थे। लेकिन यह बात प्राचीन वैदिक सभ्यता पर लागु नही होती, भले ही बाद में इस बात के कुछ प्रमाण हमें दिखाई देते है। इस प्रकार के सामाजिक भेदभाव को हिन्दुओ में वर्ण प्रथा कहा जाता है।
वैदिक सभ्यता के समय, बहुत से आर्य वंशज और आर्य समुदाय के लोग थे। जिनमे से कुछ लोगो ने मिलकर कुछ विशाल स्थापित किया जैसे कुरूस साम्राज्य
सप्तसिंधवा
सिंधु, परुष्णी, शतद्रु, वितस्ता, यमुना, गंगा तथा सरस्वती की सामूहिक संज्ञा

सप्त सैंधव प्रदेश (आर्यावर्त ) : आर्यों ( हिन्दूओं ) का प्रारंभिक स्थल

सप्त सैंधव प्रदेश अथवा सप्त सिंधु आर्य लोगों का प्रारंभिक निवास स्थल माना जाता है। वेदों में गंगा, गोदावरी, यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरी,नर्मदा आदि प्रमुख नदियों का उल्लेख है।
सप्त सैंधव भारतवर्ष का उत्तर पश्चिमि भाग था। इसे आर्यों का आदिदेश कहा गया है।

विस्तार

सप्त सैंधव प्रदेश का विस्तार कश्मीर, पाकिस्तान और पंजाब के अधिकांश भागों में था। आर्य, उत्तरी ध्रुव, मध्य एशिया अथवा किसी अन्य स्थान से भारत आये थे, यह मान्यता भारतीय विद्वानों में पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं है।अलग – अलग विद्वानों के अलग – 2 मत हैं।  भारत में ही नहीं विश्व भर में संख्या ‘सात’ का आश्चर्यजनक मह्त्व है, जैसे सात सुर, सात रंग, सप्तॠषि, सात सागर, आदि। इसी तरह सात नदियों के कारण सप्त सैंधव प्रदेश का  नामकरण हुआ था।

सप्त सैंधव प्रदेश = सिंधु नदी +सिंधु नदी की 5 सहायक नदी + सरस्वती नदी।

सप्त सैंधव प्रदेश में निम्नलिखित नदियां थी-

  • सिंधु
  • सरस्वती
  • वितस्ता (झेलम)
  • अस्किनी (चेनाब)
  • पुरुष्णी (रावी/ इरावदी)
  • शतुद्री (सतलज)
  • विपासा (व्यास)
ऋग्वेद में 42 नदियों का उल्लेख है जिसमें से मुख्य नदियां निम्नलिखित हैं-
  • क्रुमु (कुरुम),
  • गोमती (गोमल),
  • कुभा (काबुल)
  • सुवास्तु (स्वात)
  •  वितास्ता (झेलम)
  • आस्किनी(चेनाब)
  • परुष्णी (रावी),
  • शतुद्र (सतलज),
  • विपासा (व्यास)
सरस्वती नदी सबसे पवित्र नदी मानी गई है। इसके तट पर वैदिक मंत्रो की रचना की गई थी। इसे नदियों में अग्रवती,नदियों की माता, वाणी, बुद्धी, संगीत की देवी कहा गया है। सरस्वती नदी को नदीत्तमा नाम से भी जाना गया है क्योंकि यह नदी ऐसी अदभुद नदी है जो एक स्थान पर दिखती है , तो दूसरे स्थान पर अदृश्य हो जाती है।
विपास(व्यास) नदी के तट पर ही इन्द्र ने उषा को पराजित किया। और उसके रथ को टुकड़े-टुकड़े कर दिया।सिन्धु नदी को उसकेआर्थिक महत्व के कारण हिरण्यनी कहा गया है। सिन्धु नदी द्वारा ऊनी वस्त्रों का व्यवसाय होने के कारण इसेऊर्णावती भी कहा गया है। सुषोम पर्वत से निकलने के कारण इसे सुषोमा भी कहा गया है। ऋग्वेद में सिन्धु नदी की चर्चा सर्वाधिक हुयी है।
पर्शियन और ग्रीक आक्रमण –
5 वी शताब्दी के आस-पास, भारत के उत्तरी-पश्चिमी भाग पर अचेमेनिद साम्राज्य और एलेग्जेंडर दी ग्रेट की ग्रीक सेना ने आक्रमण किया था। उस समय पर्शियन सोच, शासन प्रणाली और जीवन जीने के तरीको का भारत में आगमन हुआ था। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव हमें मौर्य साम्राज्य के समय में दिखाई देता है।
लगभग 520 BC से, अचेमेनिद साम्राज्य के शासक दरिउस प्रथम भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी-पश्चिमी भाग पर शासन कर रहे थे। बाद में एलेग्जेंडर ने उनके भू-भाग को जीत लिया।
उस समय का एक इतिहासकार हेरोडोतस, ने लिखा था की जीता हुआ यह हिस्सा एलेग्जेंडर के साम्राज्य का सबसे समृद्ध हिस्सा था। अचेमेनिद ने तक़रीबन 186 सालो तक शासन किया थम और इसीलिए आज भी उत्तरी भारत में हमें ग्रीक सभ्यता के कुछ लक्षण दिखाई देते है।
ग्रेको-बुद्धिज़्म ही ग्रीस और बुद्धिज़्म की संस्कृतियों का मिलाप है। इस प्रकार संस्कृतियों का मिलाप चौथी शताब्दी से 5 वी शताब्दी तक तक़रीबन 800 सालो तक चलता रहा। इस भाग को हम वर्तमान अफगानिस्तान और पकिस्तान के नाम से जानते है। संस्कृतियों के मिलाप ने महायान बुद्ध लोगो को काफी प्रभावित किया और साथ ही चीन, कोरिया, जापान और इबेत में भी हमें इसका प्रभाव दिखाई देता है।
मगध साम्राज्य –
मगध प्राचीन भारत के 16 साम्राज्यों में से एक है। इस साम्राज्य का मुख्य भाग गंगा के दक्षिण में बसा बिहार था। इसकी पहली राजधानी राजगृह (वर्तमान राजगीर) और पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) थी।
मगध के साम्राज्य में ज्यादातर बिहार और बंगाल का भाग ही शामिल था जिनमे थोडा बहुत उत्तर प्रदेश और ओडिशा भी हमें दिखाई देता है। प्राचीन मगध साम्राज्य की जानकारी हमें जैन और बुद्ध लेखो में मिलती है। इसके साथ ही रामायण, महाभारत और पुराण में भी इसका वर्णन किया गया है। मगध राज्य और साम्राज्य को वैदिक ग्रंथो में 600 BC से पहले ही लिखा गया था।
जैन और बुद्ध धर्म के विकास में मगध ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और साथ ही भारत के दो महान साम्राज्य मौर्य साम्राज्यऔर गुप्त साम्राज्य ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन साम्राज्यों ने ही प्राचीन भारत में विज्ञान, गणित, धर्म, दर्शनशास्त्र और खगोलशास्त्र के विकास पर जोर दिया। इन साम्राज्यों का शासनकाल भारत में “स्वर्ण युग” के नाम से भी जाना जाता है।
आरंभिक मध्य साम्राज्य –
सतवहना साम्राज्य –
सतवहना साम्राज्य हमें 230 BC के सास-पास दिखाई देता है। इस साम्राज्य को लोग आंध्रस के नाम से भी जानते थे। तक़रीबन 450 साल तक बहुत से सतवहना राजाओ ने उत्तरी और मध्य भारत के बहुत से भागो में राज किया था।
पश्चिमी क्षत्रप –
तक़रीबन 350 साल तक, 35 से 405 साल तक सका किंग ने भारत पर राज किया था। उन्होंने भारत के पश्चिमी और मध्य भागो पर राज किया था। आज यह भाग गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश राज्य में आते है। कुल मिलाकर वे 27 स्वतंत्र शासक थे जिन्हें क्षत्रप के नाम से जाना जाता था।
सका शासक ने राजा कुशन और राजा सतवहना के साथ मिलकर भारत पर शासन किया था। कुशन राजा भारत के उत्तरी भाग पर शासन करते थे और सतवहना राजा भारत और मध्य और दक्षिणी भागो पर राज करते थे।
इंडो – सायथिंस –
इंडो-सायथिंस भारत में साइबेरिया के बैक्टीरिया, सोग्ड़ाना, काश्मीर और अरचोइसा जैसी जगहों से गुजरने के बाद आये थे। दूसरी शताब्दी से पहली शताब्दी तक उनका आना शुरू था। ऊन्होने भारत के इंडो-ग्रीक शासको को हरा दिया था और गंधार से मथुरा तक राज करने लगे थे।
गुप्त साम्राज्य –
गुप्त साम्राज्य का शासनकाल 320 से 550 AD के दरमियाँ था। गुप्त साम्राज्य ने बहुत से उत्तरी-मध्य भाग को हथिया लिया था। पश्चिमी भारत और बांग्लादेश में भी उनका कुछ राज्य था। गुप्त समाज के लिये भी हिन्दू मान्यताओ को मानते थे। गुप्त साम्राज्य को भारत का स्वर्णिम युग कहा जाता था। इतिहासकारों ने गुप्त साम्राज्य को हान सम्रजू, टंग साम्राज्य और रोमन साम्राज्य के अनुरूप ही बताया।
हूँ आक्रमण –
पाँचवी शताब्दी के पहले भाग में, कुछ लोगो का समूह अफगानिस्तान में स्थापित हो गया था। वे कुछ समय बाद काफी शक्तिशाली बन चुके थे। उन्होंने बामियान को अपनी राजधानी बनाया था। इसके बाद उन्होंने भारत के उत्तरी-पश्चिम भाग पर आक्रमण करना भी शुरू कर दिया था।
गुप्त साम्राज्य के शासक स्कंदगुप्त ने उनका सामना कर उन्हें कुछ सालो तक तो अपने साम्राज्य से दूर रखा था। लेकिन अंततः हूँ को जीत हासिल हुई और फिर उन्होंने धीरे-धीरे शेष उत्तरी भारत पर भी आक्रमण करना शुरू किया। इसी के साथ गुप्त साम्राज्य का भी अंत हो गया था।
आक्रमण के बाद उत्तरी भारत का बहुत सा हिस्सा प्रभावित हो गया था। लेकिन हूँ की सेना ने इसके बाद डेक्कन प्लाटौ और दक्षिणी भारत पर आक्रमण नही किया था। इसीलिए भारत के यह भाग उस समय शांतिपूर्ण थे। लेकिन कोई भी हूँ की किस्मत के बारे में नही जानता था। कुछ इतिहासकारो के अनुसार समय के साथ-साथ वे भी भारतीय लोगो में ही शामिल हो गए थे।
बाद का मध्य साम्राज्य – History of India
भारत के इतिहास में, मध्यकालीन साम्राज्य में छठी से सातवी शताब्दी के समय आता है। दक्षिण भारत में, चोल राजा का तमिलनाडु और चेरा राजा का केरला पर शासन था। इसके साथ ही उनके रोमन साम्राज्य के साथ व्यापारिक संबंध भी थे और दक्षिणी एशिया और पूर्वी एशिया से भी अच्छे संबंध थे। उत्तरी भारत में, राजपूतो का शासन था। जिनमे से कुछ शासको ने 100 से भी ज्यादा सालो तक शासन किया था।
हर्ष साम्राज्य –
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद, कनौज के हर्ष ने ही उत्तरी भारत के सभी भागो को मिलाकर एक विशाल साम्राज्य की नीव रखी। उनकी मृत्यु के बाद बहुत से साम्राज्यों ने उत्तरी भारत को सँभालने और शासन करने की कोशिश की लेकिन सभी असफल रहे। कोशिश करने वाले उन साम्राज्यों में मालवा के प्रतिहार, बंगाल के पलास और डेक्कन के राष्ट्रकूट भी शामिल है।
प्रतिहार, पलास और राष्ट्रकूट –
प्रतिहार राजा का साम्राज्य राजस्थान और भारत के कुछ उत्तरी भागो में छठी से 11 वी शताब्दी के बीच था। पलास भारत के पूर्वी भागो पर राज करते थे। वे वर्तमान भारत के बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश जैसे राज्यों पर शासन करते थे। पलास का शासनकाल 8 से 12 वी शताब्दी के बीच था।
भारत के दक्षिणी भाग में मालखेडा के राष्ट्रकूट के शासन था उन्होंने चालुक्य के पतन के बाद 8 से 10 वी शताब्दी तक राज किया था। यह तीनो साम्राज्य हमेशा पुरे उत्तरी भारत पर शासन करना चाहते थे। लेकिन चोल राज के बलशाली और शक्तिशाली होने के बाद वे असफल हुए।
राजपूत –
6 वी शताब्दी में बहुत से राजपूत राजा राजस्थान में स्थापित होने के इरादों से आये थे। कुछ राजपूत राजा भारत के उत्तरी भाग में राज करते थे। उनमे से कुछ भारतीय इतिहास में 100 से भी ज्यादा साल तक राज कर चुके थे।
विजयनगर साम्राज्य –
1336 में, हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयो ने मिलकर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना वर्तमान भारत के कर्नाटक राज्य में की थी। इस साम्राज्य का सबसे प्रसिद्ध राजा कृष्णदेवराय था। 1565 में इस साम्राज्य के शासको को एक युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा था।
दक्षिण भारत के बहुत से शासको के अरब और इंडोनेशिया और दुसरे पूर्वी देशो के साथ व्यापारिक संबंध भी थे।
इस्लामिक सल्तनत –
500 साल पहले ही इस्लाम धर्म के लोग पुरे भारत में फ़ैल चुके थे। 10 वी और 11 वी शताब्दी में ही तुर्क और अफगानी शासको ने भारत पर आक्रमण किया था और दिल्ली की सल्तनत स्थापित की। 16 वी शताब्दी की शुरुवात में जंघिस खान के वंशज ने ही मुघल साम्राज्य की स्थापना की, जिन्होंने तक़रीबन 200 साल तक राज किया। 11 वी से 15 वी शताब्दी में दक्षिण भारत को हिन्दू चोला और विजयनगर साम्राज्य ने सुरक्षित रखा। इस समय, दो प्रणाली – हिन्दू और मुस्लिम को प्रचलित करना और घुल मिल कर रहना को अपनाया गया था।
दिल्ली सल्तनत –
गुलाम साम्राज्य की शुरुवात क़ुतुब उद्दीन ऐबक ने की थी। वे उनमे से एक थे जिन्होंने आर्किटेक्चरल धरोहर को बनाने की शुरुवात की थी और सबसे पहले उन्होंने मुस्लिम धर्म के हित में क़ुतुब मीनार का निर्माण करवाया। चौगन खेलते समय ही क़ुतुब उद्दीन ऐबक की मृत्यु हो गयी थी। अपने घोड़े से गिरने की वजह से उनकी मृत्यु हुई थी। इसके बाद इल्तुमिश उनके उत्तराधिकारी बने। इसके बाद रज़िया सुल्तान उनकी उत्तराधिकारी बनी और साथ ही पहली महिला शासक भी बनी।
मैसूर साम्राज्य –
मैसूर का साम्राज्य ही दक्षिण भारत का साम्राज्य था। लोगो के अनुसार सन 1400 में वोदेयार्स ने मैसूर साम्राज्य की स्थापना की थी। इसके बाद, हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुल्तान ने वोदेयार के साथ लढाई की थी। इसके साथ-साथ उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ भी उनका विरोध किया था लेकिन अंततः उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
ब्रिटिश राज में वोदेयार राजा कर्नाटक पर राज करते थे। जब 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ था तब वोदेयार साम्राज्य भी भारत का ही हिस्सा बना गया था।
पंजाब –
गुरु नानक ने सिक्ख धर्म और उनके अनुयायियों की खोज की थी। सिक्खों की ताकत उत्तरी भारत में समय के साथ-साथ बढती जा रही थी। उत्तरी भारत के अधिकतम भागो पर सिक्ख शासको का ही राज था। सिक्ख साम्राज्य में रणजीत सिंह सबसे प्रसिद्ध और पराक्रमी शासक थे। अपनी मृत्यु के समय उन्होंने सिक्ख साम्राज्य को बॉर्डर को भी विकसित किया था और अपने साम्राज्य में पंजाब और वर्तमान काश्मीर और पकिस्तान का कुछ भाग भी शामिल कर लिया था।
सिक्खों और ब्रिटिश सेना के बीच इतिहास में कई लढाईयाँ हुई थी। जब तक महाराजा रणजीत सिंह जिन्दा थे तब तक ब्रिटिश अधिकारियो को सुल्तेज नदी पार करने में कभी सफलता नही मिली। उनकी मृत्यु के बाद उन्होंने पुरे पंजाब को हथियाँ लिया था और सिक्ख शासको का पतन कर दिया था।
दुर्रानी साम्राज्य –
बहुत कम समय के लिये, अहमद शाह दुर्रानी उत्तरी भारत के कुछ भागो में राज करने लगे थे। इतिहासकारो ने उनके साम्राज्य को दुर्रानी साम्राज्य का ही नाम दिया था।
1748 में उन्होंने इंडस नदी पार की और लाहौर पर आक्रमण किया, जो आज पकिस्तान का ही एक भाग है। इसके साथ-साथ उन्होंने पंजाब के कई भागो पर भी आक्रमण किया था। और फिर दिल्ली पर आक्रमण किया। उस समय दिल्ली मुघल साम्राज्य की राजधानी थी। उन्होंने भारत से बहुत सी मूल्यवान चीजे ले गयी थी। जिसमे भारत का प्रसिद्ध कोहिनूर हिरा भी शामिल है।
कोलोनियल समय –
कोलोनियल समय मतलब वह समय जब पश्चिमी देशो ने भारत पर शासन किया था। इन देशो ने दुसरे देशो जैसे एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका पर भी शासन किया था।
कंपनी राज –
सन 1600 से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में आयी और सबसे पहले बंगाल में स्थापित हुई। सन 1700 (1725-1774) के बीच में कंपनी ने भारत पर काफी प्रभाव दाल और भारत पर बहुत से राज्यों को अपने अधीन कर लिया था। और 1757 में प्लासी का युद्ध जीतने के बाद ब्रिटिश अधिकारों को ही बंगाल का गवर्नर बनाया गया था और तभी से भारत में कंपनी राज की शुरुवात हुई थी।
युद्ध के 100 साल बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी ने पुरे भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी छाप छोड़ दी थी। वे व्यापार, राजनीती और सैन्य बल के जोर पर ही शासन करते थे। लेकिन 1857 में भारतीयों ने कंपनी का काफी विरोध किया और इस विरोध ने जल्द ही एक क्रांति का रूप भी ले लिया था और परिणामस्वरूप कंपनी का पतन हो गया। इसके बाद 1858 में भारत भी ब्रिटिश साम्राज्य का ही एक भाग बन गया था और रानी विक्टोरिया भारत ही पहले रानी बनी थी।
ब्रिटिश राज –
लगभग 90 साल तक ब्रिटिशो ने भारत पर राज किया था। उनके पुरे साम्राज्य को आठ मुख्य भागो में बाटा गया है, बर्मा, बंगाल, मद्रास, बॉम्बे, उत्तर प्रदेश, मध्य भाग, पंजाब और आसाम। जिनमे कलकत्ता के गवर्नर जनरल ही गवर्नमेंट के मुख्य अधिकारी होते थे।
भारत के ब्रिटिश राज में शामिल होने के बाद ब्रिटिशो ने भारत की संस्कृति और समय पर काफी अत्याचार भी किये। वे भारत से कई बहुमूल्य चीजे ले गए। उन्होंने एक अखंड भारत का विभाजन टुकडो में कर दिया था। और जहाँ पर राजाओ का शासनकाल था उन भागो को भी उन्होंने उनपर आक्रमण कर हथिया लिया था। वे भारत से कई बहुमूल्य चीजे ले गए थे जिनमे भारत का कोहिनूर हिरा भी शामिल है।
अकाल और बाढ़ के समय बहुत से लोगो की मृत्यु भी हो गयी थी सरकार ने लोगो की पर्याप्त सहायता नही की थी। उस समय कोई भी भारतीय ब्रिटिशो को टैक्स देने में सक्षम नही था लेकिन फिर जो भारतीय टैक्स नही देता था उसे ब्रिटिश लोग जेल में डाल देते थे।
ब्रिटिश राज के राजनितिक विरोधियो को भी जेल जाना पड़ता था। लगभग 100 साल तक भारत पर राज करने के बाद उन्होंने फूट डालो और राज करतो निति को लागु किया था। और भारत-पकिस्तान विभाजन के दौरान कई लोगो की मृत्यु हो गयी थी।
ब्रिटिशो ने भारतीयों पर अत्याचार करने के साथ-साथ भारतीयों के लिये कई अच्छे काम भी किये। उन्होंने रेलरोड और टेलीफोन का निर्माण किया और व्यापार, कानून और पानी की सुविधाओ को भी विकसित किया था। इनके द्वारा किये गए इन कार्यो परिणाम भारत के विकास और समृद्धि में हुआ था।
उन्होंने इंडियन सिविल सर्विस का निर्माण किया और कई जरुरी नियम और कानून भी बनवाए। उन्होंने भारत में विधवा महिलाओ को जलाने की प्रथा पर भी रोक लगायी थी।
जब ब्रिटिश लोग भारत पर राज कर रहे थे तो इसका आर्थिक लाभ ब्रिटेन को हो रहा था। भारत में सस्ते दामो में कच्चे काम का उत्पादन किया जाता था और उन्हें विदेशो में भेजा जाता था। उस समय भारतीयों को भी ब्रिटिशो द्वारा बनायी गयी चीजो का ही उपयोग पड़ता था।
स्वतंत्रता अभियान –
बहुत से भारतीय ब्रिटिश राज से मुक्त होना चाहते थे। भारतीय स्वतंत्रता अभियान का संघर्ष काफी लंबा और दर्दभरा था। भारत के स्वतंत्रता के लिये सेकड़ो-हजारों महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वो ने अपना जीवन बलिदान किया। भारतीय स्वतंत्रता अभियान के संघर्ष में मुख्य नेता महात्मा गांधी थे। गांधी को अहिंसा पर पूरा विश्वास था।
और अहिंसा के बल पर ही 15 अगस्त 1947 को भारत को आज़ादी मिली और देश आज़ाद बन गया।
भारतीय गणराज्य –
15 अगस्त 1947 को ही ब्रिटिशो ने भारत के दो टुकड़े किये थे, एक भारत और दूसरा पाकिस्तान। इसी के साथ भारतीय उपमहाद्वीपमें ब्रिटिश राज का पतन हुआ था। 26 जनवरी 1950 को भारत ने स्वतंत्र न्याय व्यवस्था को अपनाया था। उसी दिन से भारत भारतीय गणराज्य के नाम से जाना जाने लगा।
पिछले 60 सालो में भारतीय गणराज्य में कई बदलाव हमें देखने को मिले। उनमे से कुछ निचे दिये गए है –
• भारत ने पकिस्तान के साथ और चीन के साथ एक युद्ध किया है। पकिस्तान के साथ 1947, 1965 और 1971 में युद्ध किये। 1999 में कारगिल का युद्ध हुआ था। चीन के साथ 1962 में युद्ध हुआ था। 1971 में भारतीय गणराज्य ने बांग्लादेश को आज़ादी दिलाने में भी सहायता की थी।
• जवाहरलाल नेहरु (भारत के पहले प्रधान मंत्री) के नेतृत्व में भारत ने असामाजिक अर्थव्यवस्था को अपनाया था। कुछ अर्थशास्त्र विद्वानों के अनुसार यह मिश्रित अर्थव्यवस्था थी। इस समय में भारत ने इंफ्रास्ट्रक्चर, विज्ञान और तंत्रज्ञान क्षेत्रो में काफी विकास किया।
• 1990 के शुरू में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में बहुत से बदलाव किये। जिनमे देश के व्यापारियों और उद्योगपतियों को आज़ादी दी गयी थी।
• 1974 में भारत ने अपने पहले नुक्लेअर बम का धमाका किया। और 1998 में इसे पुनः दोहराया। इसके साथ-साथ भारत नुक्लेअर शक्तिशाली देश भी बन गया था।

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