Saturday, 11 May 2019

बीकानेर का इतिहास

बीकानेर का इतिहास


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बीकानेर
Junagarh Fort
स्थितिपूर्व-उत्तरी राजस्थान
१९वीं शताब्दी पताकाFlag of Bikaner.svg
राज्य की स्थापना:१४८८
भाषाराजस्थानी भाषा
वंशराठौड़ (१४८८ से १९४९)
ऐतिहासिक राजधानीबीकानेर
बीकानेर। 
Raja Karan Singh of Bikaner, Auranzeb's ally and enemy
एक अलमस्त शहर है, अलमस्त इसलिए कि यहाँ के लोग बेफ़िक्री के साथ अपना जीवन यापन करते हैं। इसका कारण यह भी है कि बीकानेर के सँस्थापक राव बीकाजी अलमस्त स्वभाव के थे। अलमस्त नहीँ होते तो वे जोधपुर राज्य की गद्दी को यों ही बात-बात में नहीं छोड़ देते ।
इसके पीछे दो कहानियाँ लोक में प्रचलित है। एक तो यह कि, नापा साँखला जो कि बीकाजी के मामा थे उन्होंने जोधाजी से कहा कि आपने भले ही सांतळ जी को जोधपुर का उत्तराधिकारी बनाया किंतु बीकाजी को कुछ सैनिक सहायता सहित सारुँडे का पट्टा दे दीजिये। वह वीर तथा भाग्य का धनी है। वह अपने बूते खुद अपना राज्य स्थापित कर लेगा। जोधाजी ने नापा की सलाह मान ली और पचास सैनिकों सहित पट्टा नापा को दे दिया। बीकाजी ने यह फैसला राजी खुशी मान लिया। उस समय कांधल जी, रूपा जी, मांडल जी, नथु जी और नन्दा जी ये पाँच सरदार जो जोधा के सगे भाई थे साथ ही नापा साँखला, बेला पडिहार, लाला लखन सिंह बैद, चौथमल कोठारी, नाहर सिंह बच्छावत, विक्रम सिंह पुरोहित, सालू जी राठी आदि कई लोगों ने बीकाजी का साथ दिया। इन सरदारों के साथ बीकाजी ने बीकानेर की स्थापना की। सालू जी राठी जोधपुर के ओंसिया गाँव के निवासी थे। वे अपने साथ अपने आराधय देव मरूनायक या मूलनायक की मूर्ति साथ लाये। आज भी उनके वंशज साले की होली पे होलिका दहन करते हैं। साले का अर्थ बहन के भाई के रूप में न होकर सालू जी के अपभ्रंश के रूप में होता है
बीकानेर की स्थापना के पीछे दूसरी कहानी ये हैं कि एक दिन राव जोधा दरबार में बैठे थे बीकाजी दरबार में देर से आये तथा प्रणाम कर अपने चाचा कांधल से कान में धीर-धीरे बात करने लगे। यह देख कर जोधा ने व्यंग्य में कहा “ मालूम होता है कि चाचा-भतीजा किसी नवीन राज्य को विजित करने की योजना बना रहे हैं’। इस पर बीका और कांधल ने कहा कि यदि आप की कृपा होगी तो यही होगा। और इसी के साथ चाचा – भतीजा दोनों दरबार से उठ के चले आये तथा दोनों ने बीकानेर राज्य की स्थापना की। इस संबंध में एक लोक दोहा भी प्रचलित है ‘ पन्द्रह सौ पैंतालवे, सुद बैसाख सुमेर थावर बीज थरपियो, बीका बीकानेर ‘ इस प्रकार एक ताने की प्रतिक्रिया से बीकानेर की स्थापना हुई ।

बीकानेर के राठौड़ वंश के शासक

राव बीका (1465-1504) - बीकानेर के संस्थापक
राव नरसी (1504-1505)- राव बिका के पुत्र
राव लूणकरण (1504-1526) :- अपने बड़े भाई राव नरसी(नारा उपनाम) की मृत्यु के बाद लूणकरण शासक बना। ये शक्तिशाली शासक थे, इन्होने राज्य का विस्तार किया और 1509 में दद्रेवा के चौहानों, 1512 में फतेहपुर के कायमख़ानियों, चैटवाड़ के चायतों और 1513 में नागौर के खानों से सफल युद्ध किए,नारनौल के मुस्लिम शासक पर भी आक्रमण किया। निर्माण :- लूणकरण कस्बा
       लूणकरण झील 
पुत्री :- बालाबाई जिसकी शादी आमेर नरेश पृथ्वीराज कच्छवाहा से हुई। धोसी युद्ध :- धौसा नामक स्थान पर 31 मार्च 1526 को नारनौल के नवाब शेख अबीमीरा से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
राव जैतसी (1526-1542) (जेत्रसिंह) :- पिता की मृत्यु के बाद शासक बना मुगलों से युद्ध :- बीठू सूजा कृत राव जैतसी रो छंद के अनुसार 26 अक्तूम्बर 1534 में कामरान बाबर के पुत्र को पराजित किया एवं भटऩेर दुर्ग छीना। खानवा युद्ध :- इस युद्ध में राणा सांगा का साथ देने के लिए अपने पुत्र कल्याणमल को भेजा। पाहेबा का युद्ध(1542) :- इसे साहेबा का युद्ध भी कहते है। मारवाड़ शासक मालदेव से लड़ते हुए मृत्यु को प्राप्त। बीकानेर पर मालदेव का अधिकार हो गया।
राव कल्याणमल (1542-1573)- कल्याणमल के दो पुत्र हुए
राय सिंह (1573-1612) 

महाराजा रायसिंह

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महाराजा रायसिंह जिन्होंने (१५७४ से १६१२) तक शासन किया था। राव कल्याणमल की मृत्यु के बाद राव रायसिंह को बीकानेर का शासक बनाया गया। [1]
इन्होंने १५९४ में बीकानेर के सुदृढ़ जूनागढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया था [2] । इन्होंने किले के भीतर एक प्रशस्ति लिखवाई जिसे अब रायसिंह प्रशस्ति कहते हैं। सन् १६१२ में "दक्षिण भारत (बुरहानपुर) में इनका निधन हुआ था।
2. पृथ्वीराज राठौड़

पृथ्वीराज


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जुनागढ़ किला एक प्रसिद्ध किला है जहाँ बीकानेर के कई राजाओं ने राज किया।
पृथ्वीराज बीकानेरनरेश राजसिंह के भाई जो अकबर के दरबार में रहते थे। वे वीर रस के अच्छे कवि थे और मेवाड़ की स्वतंत्रता तथा राजपूतों की मर्यादा की रक्षा के लिये सतत संघर्ष करनेवाले महाराणा प्रताप के अनन्य समर्थक और प्रशंसक थे। जब आर्थिक कठिनाइयों तथा घोर विपत्तियों का सामना करते करते एक दिन राणा प्रताप अपनी छोटी लड़की को आधी रोटी के लिये बिलखते देखकर विचलित हो उठे तो उन्होंने सम्राट के पास संधि का संदेश भेज दिया। इसपर अकबर को बड़ी खुशी हुई और राणा का पत्र पृथ्वीराज को दिखलाया। पृथ्वीराज ने उसकी सचाई में विश्वास करने से इनकार कर दिया। उन्होंने अकबर की स्वीकृति से एक पत्र राणा प्रताप के पास भेजा, जो वीररस से ओतप्रोत, तथा अत्यंत उत्साहवर्धक कविता से परिपूर्ण था। उसमें उन्होंने लिखा हे राणा प्रताप ! तेरे खड़े रहते ऐसा कौन है जो मेवाड़ को घोड़ों के खुरों से रौंद सके ? हे हिंदूपति प्रताप ! हिंदुओं की लज्जा रखो। अपनी शपथ निबाहने के लिये सब तरह को विपत्ति और कष्ट सहन करो। हे दीवान ! मै अपनी मूँछ पर हाथ फेरूँ या अपनी देह को तलवार से काट डालूँ; इन दो में से एक बात लिख दीजिए।'
यह पत्र पाकर महाराणा प्रताप पुन: अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ हुए और उन्होंने पृथ्वीराज को लिख भेजा 'हे वीर आप प्रसन्न होकर मूछों पर हाथ फेरिए। जब तक प्रताप जीवित है, मेरी तलवार को तुरुकों के सिर पर ही समझिए।'
पृथ्वीराज की पहली रानी लालादे बड़ी ही गुणवती पत्नी थी। वह भी कविता करती थी। युवास्था में ही उसकी मृत्यु हो गई जिससे उन्हें बड़ा सदमा बैठा। उसके शव को चिता पर जलते देखकर वे चीत्कार कर उठे: 'तो राँघ्यो नहिं खावस्याँ, रे वासदे निसड्ड। मो देखत तू बालिया, साल रहंदा हड्ड।' (हे निष्ठुर अग्नि, मैं तेरा राँघा हुआ भोजन न ग्रहण करुँगा, क्योंकि तूने मेरे देखते देखते लालादे को जला डाला और उसका हाड़ ही शेष रह गया)। बाद में स्वास्थ्य खराब होता देखकर संबंधियों ने जैसलमेर के राव की पुत्री चंपादे से उनका विवाह करा दिया। यह भी कविता करती थी।
राव दलपत सिंह जी
कर्ण सिंह (1631-1669)

जंगलधर बादशाह, महाराजा करण सिंह, बीकानेर

बीकानेर के राठौड़ राजाओं में महाराजा करण सिंह का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है. करण सिंह का जन्म वि.स. 1673 श्रावण सुदि 6 बुधवार (10 जुलाई 1616) को हुआ था. वे महाराजा सूरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे अत: महाराजा सूरसिंह के निधन के बाद वि.स. 1688 कार्तिक बदि 13 (13 अक्टूबर 1631) को बीकानेर की राजगद्दी पर बैठे. बादशाह शाहजहाँ के दरबार में करणसिंह का सम्मान बड़े ऊँचे दर्जे का था. उनके पास दो हजार जात व डेढ़ हजार सवार का मनसब था. कट्टर और धर्मांध मुग़ल शासक औरंगजेब से बीकानेर के राजाओं में सबसे पहले उनका ही सम्पर्क हुआ था. औरंगजेब के साथ उन्होंने कई युद्ध अभियानों में भाग लिया था अत: जहाँ वे औरंगजेब की शक्ति, चतुरता से वाकिफ थे वहीं औरंगजेब की कुटिल मनोवृति, कुटिल चालें, कट्टर धर्मान्धता उनसे छुपी नहीं थी. यही कारण था कि औरंगजेब ने जब पिता से विद्रोह किया तब वे बीकानेर लौट आये और दिल्ली की गद्दी के लिए हुए मुग़ल भाइयों की लड़ाई में तटस्थ बने रहे.
विद्यानुराग : महाराजा करण सिंह स्वयं विद्वान व विद्यानुरागी होने के साथ विद्वानों के आश्रयदाता थे. उनकी सहायता से कई विद्वानों ने मिलकर “साहित्यकल्पद्रुम” नामक ग्रन्थ रचा, पंडित गंगानंद मैथिल ने “कर्णभूषण”, “काव्य डाकिनी”, भट्ट होसिक कृत “कर्णवंतस”, कवि मुद्रल कृत “कर्णसंतोष” व “वृतासवली” नामक ग्रन्थों की रचना हुई जो आज भी बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय में विद्यमान है.
औरंगजेब के साथ संबंध : औरंगजेब के गद्दी पर बैठने के बाद बेशक वे उसके साथ रहे, कई युद्ध अभियानों में भाग लिया पर वे सदैव उसकी तरफ से सतर्क रहते थे. यह उनकी सतर्कता का ही प्रतिफल था कि सभी हिन्दू राजाओं को औरंगजेब का जबरन मुसलमान बनाने का षड्यंत्र विफल हो गया. ख्यातों के अनुसार औरंगजेब की इच्छा सभी राजाओं का धर्मान्तरण कर मुसलमान बनाने की थी, परन्तु महाराजा करण सिंह की रगों में बसे स्वधर्म व जातीय रंग ने उसकी यह इच्छा पूरी नहीं होने दी. हालाँकि उनके इस निर्भीकता पूर्ण कार्य के लिए उन्हें औरंगजेब के कोप का भाजन भी बनना पड़ा. औरंगजेब की उक्त मंशा असफल होने पर वह महाराजा करण सिंह पर काफी क्रुद्ध हुआ, उनकी जागीर व मनसब आदि जब्त कर लिए और उनके घर में फूट डालने के प्रयोजनार्थ उनके पुत्र अनूप सिंह को बीकानेर का राज्य तथा ढाई हजार जात व दो हजार का मनसब दिया. मुलसमान लेखकों ने फ़ारसी तवारीखों में औरंगजेब का करण सिंह से रुष्ट होना, उनकी जागीर व मनसब जब्त कर उनके पुत्र को राजा की पदवी देना आदि विवरण तो दर्ज है पर औरंगजेब उन पर क्यों रुष्ट व क्रोधित हुआ के कारणों पर प्रकाश नहीं डाला गया|
लेकिन राजस्थान के ख्यात लेखकों द्वारा इस प्रकरण पर लिखे वृतांत के अनुसार राजस्थान के मूर्धन्य इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने “बीकानेर राज्य के इतिहास” पुस्तक भाग- 1, के पृष्ट संख्या 204 पर लिखा है- “वैसे तो कई मुसलमान बादशाहों की अभिलाषा इतर जातियों को मुसलमान बनाने की रही थी, पर औरंगजेब इस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता था. उसने हिन्दू राजाओं को मुसलमान बनाने का दृढ निश्चय कर लिया और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कशी आदि तीर्थ स्थानों के देवमन्दिरों को नष्ट कर वहां मस्जिदें बनवाना आरम्भ किया. ऐसी प्रसिद्धि है कि एक समय बहुत से राजाओं को साथ लेकर बादशाह ने ईरान (?) की और प्रस्थान किया और मार्ग में अटक में डेरे हुए. औरंगजेब की इस चाल में कयास भेद था, यह उसके साथ जाने वाले राजपूत राजाओं को मालूम न होने से उनके मन में नाना प्रकार के सन्देह होने लगे, अतएव आपस में सलाह कर उन्होंने साहबे के सैय्यद फ़क़ीर को, जो करण सिंह के साथ था, बादशाह के असली मनसूबे का पता लगाने भेजा. उस फ़क़ीर को अस्तखां से जब मालूम हुआ कि बादशाह सब को एक दीन करना चाहते है, तो उसने तुरंत इसकी खबर करण सिंह को दी.
तब सब राजाओं ने मिलकर यह राय स्थिर की कि मुसलमानों को पहले अटक के पार उतर जाने दिया जाय, फिर स्वयं अपने अपने देश को लौट जायें. बाद में ऐसा ही हुआ. मुसलमान पहले उतर गये. इसी समय आंबेर के राजा जयसिंह की माता की मृत्यु का समाचार पहुंचा, जिससे राजाओं को 12 दिन तक रुकने जाने का अवसर मिल गया, परन्तु उसके बाद फिर समस्या उतन्न हुई.तब सब के सब करण सिंह के पास गए और उन्होंने उससे कहा कि आपके बिना हमारा उद्धार नहीं हो सकता. आप यदि नावें तुड़वा दें तो हमारा बचाव हो सकता है, क्योंकि ऐसा होने से देश को प्रस्थान करते समय शाही सेना हमारा पीछा न कर सकेगी. करणसिंह ने भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और धर्मरक्षा के लिए बादशाह का कोप-भाजन बनना पसंद किया. निदान ऐसा ही किया गया और इसके बदले में समस्त राजाओं ने करणसिंह को “जंगलधर बादशाह” का ख़िताब दिया. साहिबे के फ़क़ीर को उसी दिन से बीकानेर राज्य में प्रतिघर प्रतिवर्ष एक पैसा उगाहने का हक है. अनन्तर सब अपने-अपने देश चले गए.”
जंगलधर बादशाह की पदवी : जैसा की इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने लिखा है कि औरंगजेब के षड्यंत्र विफल करने के लिए राजाओं का नेतृत्व करने के बदले राजाओं ने उन्हें जंगलधर बादशाह का ख़िताब दिया. वहीं जयपुर की ख्यात में लिखा है- यह खबर बादशाह ने सुनी तो वह अपने वजीर के साथ बीकानेर के राजा के डेरे में आया. सब राजाओं ने अर्ज किया कि आपने मुसलमान बनाने का विचार किया, इसलिए आप हमारे बादशाह नहीं और हम आपके सेवक नहीं. हमारा तो बादशाह बीकानेर का राजा है, सो जो वह कहेगा हम करेंगे, आपकी इच्छा हो वह आप करें. हम धर्म के साथ है, धर्म छोड़ जीवित रहना नहीं चाहते. बादशाह ने कहा- तुमने बीकानेर के राजा को बादशाह कहा सो अब वह जंगलपति बादशाह है. फिर उसने सब की तसल्ली के लिए कुरान बीच में रख सौगंध खाई कि अब ऐसी बात तुमसे नहीं होगी.
औरंगजेब द्वारा वापस बुलाना : औरंगजेब का हिन्दू राजाओं का षड्यंत्र विफल कर देने के बाद नाराज होकर दिल्ली लौटने पर उनके ऊपर सेना भेजी गई, उनके पुत्र को राजा की पदवी व मनसब आदि दिए गए व उन्हें बुलाकर मरवाने का षड्यंत्र द्वारा रचा गया. इसी षड्यंत्र के तहत उन्हें एक अहदी के माध्यम से सूचना देकर दरबार में बुलवाया गया जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया पर औरंगजेब की कुटिल चालों को समझने वाले महाराजा करण सिंह अपने दो वीर पुत्रों केसरी सिंह तथा पद्म सिंह को साथ ले दिल्ली दरबार में पहुंचे, जिसकी वजह से औरंग द्वारा उन्हें मरवाने के प्रबंध विफल हो गए. तब बादशाह ने उन्हें औरंगाबाद में भेज दिया, जहाँ वे अपने नाम से बसाए कर्णपुरा में रहने लगे.
अंतिम समय : फ़ारसी तवारीखों के अनुसार औरंगाबाद पहुँचने के लगभग एक वर्ष बाद महाराजा करण सिंह निधन हो गया. करणसिंह की स्मारक छतरी के लेख के अनुसार वि.स. 1726 आषाढ़ सुदि 4 मंगलवार (22 जून 1669) को उनका निधन हुआ था.
रानियां तथा संतति : महाराजा करण सिंह के आठ पुत्र हुए- 1. रुकमांगद चंद्रावत की बेटी राणी कमलादे से अनूप सिंह, 2. खंडेला के राजा द्वारकादास की बेटी से केसरी सिंह, 3. हाड़ा वैरीसाल की बेटी से पद्म सिंह, 4. श्री नगर के राजा की पुत्री राणी अजयकुंवरी से मोहनसिंह, 5. देवीसिंह, 6. मदन सिंह,7. अमरसिंह. उनकी एक राणी उदयपुर के महाराजा कर्णसिंह की पुत्री थी. उससे नंदकुंवरी का जन्म हुआ, जिसका विवाह रामपुर के चंद्रावत हठीसिंह के साथ हुआ था.
कर्नल टॉड के गलत तथ्य : महाराजा करण सिंह को कर्नल टॉड ने रायसिंह का पुत्र लिखकर बीकानेर के इतिहास में भ्रांति फैलाई. बीकानेर राज्य के इतिहास के छटे अध्याय में पृष्ट 193 के फूट नोट पर गौरीशंकर हीराचंद ओझा लिखते है कि “टॉड का कथन ठीक नहीं है. वास्तव में वह (टॉड) बीच के दो राजाओं, दलपत सिंह एवं सूरसिंह के नाम तक छोड़ गया|”
अनूप सिंह (1669-1698)

महाराजा अनूपसिंह

मुग़ल-काल में बीकानेर

बीकानेर के तत्कालीन महाराजा महाराजा अनूपसिंह (1669-1698 ई.) को औरंगजेब ने औरंगाबाद का शासक नियुक्त किया था।

विद्यानुराग एवं कला प्रेम

वीर होने के साथ-साथ वह स्वयं विद्वान व संगीतज्ञ भी थे और बड़े पुस्तक-प्रेमी थे। उन के दरबार में भाव भट्ट जैसे संगीतज्ञ और कई विद्वान आश्रय पाते थे। इनके आश्रय में रहकर तत्कालीन चित्रकारों ने एक मौलिक किंतु स्थानीय परिमार्जित चित्रशैली बीकानेर कलम को जन्म दिया। द्वारा अपने संकलन की पांडुलिपियों और निजी पुस्तकालय की पुस्तकों से आरम्भ किया गया लालगढ़ पेलेस, बीकानेर में अवस्थित एक अनूठा पुस्तक-केंद्र, जिसमें अनेकानेक ग्रंथों और पांडुलिपियों का व्यवस्थित संकलन है।
उन्होने अनूपविवेक, कामप्रबोध, श्राद्धप्रयोग चिन्तामणि और गीतगोविन्द पर 'अनूपोदय' टीका लिखी थी। उन्हें संगीत से प्रेम था। उसन दक्षिण में रहते हुए अनक ग्रंथों का नष्ट होन से बचाया और उन्हें खरीदकर अपन पुस्तकालय के लिए ले आये। कुम्भा के संगीत ग्रन्थों का पूरा संग्रह भी उन्होने एकत्र करवाया था। आज अनूप पुस्तकालय (बीकानेर) अलभ्य पुस्तकों का भण्डार है, जिसका श्रय अनूपसिंह के विद्यानुराग का है। दक्षिण में रहते हुये उन्होने अनेक मूर्तियों का संग्रह किया और उन्हें नष्ट हान से बचाया। यह मर्तियों का संग्रह बीकानेर के तैतीस करोड़ दवताओं के मदिर में सुरक्षित है।
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 बीकानेर के वीर, कूटनीतिज्ञ और विद्यानुरागी शासक थे।
महाराजा सरूपसिंह जी (1698-1700)

महाराजा सुजान सिंह जी (1700-1736)
महाराजा जोरावर सिंह जी (1736-1746)
महाराजा गजसिंह जी (1746-1787)
महाराजा राजसिंह जी (1787)
महाराजा प्रताप सिंह जी (1787)
महाराजा सुरत सिंह जी (1787-1828)
महाराजा रतन सिंह जी (1828-1851)
महाराजा सरदार सिंह जी (1851-1872)
महाराजा डूंगरसिंह जी (1872-1887)
महाराजा गंगासिंह जी (1887-1943)

गंगा सिंह

गंगासिंह(3 अक्टूबर 1880, बीकानेर – 2 फरवरी 1943, मुम्बई) १८८८ से १९४३ तक बीकानेर रियासत के महाराजा थे। उन्हें आधुनिक सुधारवादी भविष्यद्रष्टा के रूप में याद किया जाता है। पहले महायुद्ध के दौरान ‘ब्रिटिश इम्पीरियल वार केबिनेट’ के अकेले गैर-अँगरेज़ सदस्य थे।

जन्म

३ अक्तूबर १८८० को बीकानेर के महाराजा लालसिंह की तीसरी संतान के रूप में जन्मे गंगा सिंह, डूंगर सिंह के छोटे भाई थे, जो बड़े भाई के देहांत के बाद १८८७ ईस्वी में १६ दिसम्बर को बीकानेर-नरेश बने।

शिक्षा

उनकी प्रारंभिक शिक्षा पहले घर ही में, फिर बाद में अजमेर के मेयो कॉलेज में १८८९ से १८९४ के बीच हुई। ठाकुर लालसिंह के मार्गदर्शन में १८९५ से १८९८ के बीच इन्हें प्रशासनिक प्रशिक्षण मिला। १८९८ में गंगा सिंह फ़ौजी-प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए देवली रेजिमेंट भेजे गए जो तब ले.कर्नल बैल के अधीन देश की सर्वोत्तम मिलिट्री प्रशिक्षण रेजिमेंट मानी जाती थी।

विवाह और परिवार

इनका पहला विवाह प्रतापगढ़ राज्य की बेटी वल्लभ कुंवर से १८९७ में, और दूसरा विवाह बीकमकोर की राजकन्या भटियानी जी से हुआ जिनसे इनके दो पुत्रियाँ और चार पुत्र हुए|

कार्यक्षेत्र

पहले विश्वयुद्ध में एक फ़ौजी अफसर के बतौर गंगासिंह ने अंग्रेजों की तरफ से ‘बीकानेर कैमल कार्प्स’ के प्रधान के रूप में फिलिस्तीनमिश्र और फ़्रांस के युद्धों में सक्रिय हिस्सा लिया। १९०२ में ये प्रिंस ऑफ़ वेल्स के और १९१० में किंग जॉर्ज पंचम के ए डी सी भी रहे।
महायुद्ध-समाप्ति के बाद अपनी पुश्तैनी बीकानेर रियासत में लौट कर उन्होंने प्रशासनिक सुधारों और विकास की गंगा बहाने के लिए जो-जो काम किये वे किसी भी लिहाज़ से साधारण नहीं कहे जा सकते| १९१३ में उन्होंने एक चुनी हुई जन-प्रतिनिधि सभा का गठन किया, १९२२ में एक मुख्य न्यायाधीश के अधीन अन्य दो न्यायाधीशों का एक उच्च-न्यायालय स्थापित किया और बीकानेर को न्यायिक-सेवा के क्षेत्र में अपनी ऐसी पहल से देश की पहली रियासत बनाया। अपनी सरकार के कर्मचारियों के लिए उन्होंने ‘एंडोमेंट एश्योरेंस स्कीम’ और जीवन-बीमा योजना लागू की, निजी बेंकों की सेवाएं आम नागरिकों को भी मुहैय्या करवाईं, और पूरे राज्य में बाल-विवाह रोकने के लिए शारदा एक्ट कड़ाई से लागू किया! १९१७ में ये ‘सेन्ट्रल रिक्रूटिंग बोर्ड ऑफ़ इण्डिया’ के सदस्य नामांकित हुए और इसी वर्ष उन्होंने ‘इम्पीरियल वार कांफ्रेंस’ में, १९१९ में ‘पेरिस शांति सम्मलेन’ में और ‘इम्पीरियल वार केबिनेट’ में भारत का प्रतिनिधित्व किया। १९२० से १९२६ के बीच गंगा सिंह ‘इन्डियन चेंबर ऑफ़ प्रिन्सेज़’ के चांसलर बनाये गए। इस बीच १९२४ में ‘लीग ऑफ़ नेशंस’ के पांचवें अधिवेशन में भी इन्होंने भारतीय प्रतिनिधि की हैसियत से हिस्सा लिया।
वर्साय के शान्ति समझौते में बीकानेर के इस शासक को बुलाया गया था. इन्होने देशी राज्यों के मुखिया के रूप में सम्मेलन में हिस्सा लिया. वर्ष 1921 में नरेंद्रमंडल का गठन इन्ही की बदौलत किया गया, बाद में गंगासिंह को इसका अध्यक्ष चुना गया था. गंगा सिंह देशी राज्यों के हितों के पक्षधर तथा अंग्रेजों के चाटुकार थे. इन्होने अपने जीवन काल में एक जनहित का कार्य किया वो था. गंगनहर का लाना, जिसके कारण इन्हें कलयुग का भागीरथ भी कहते हैं. 

मानद-सदस्यताएं

ये ‘श्री भारत-धर्म महामंडल’ और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संरक्षक, ‘रॉयल कोलोनियल इंस्टीट्यूट’ और ‘ईस्ट इण्डिया एसोसियेशन’ के उपाध्यक्ष, ‘इन्डियन आर्मी टेम्परेन्स एसोसियेशन’ ‘बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’लन्दन की ‘इन्डियन सोसाइटी’ ‘इन्डियन जिमखाना’ मेयो कॉलेज, अजमेर की जनरल कांसिल, ‘इन्डियन सोसाइटी ऑफ ओरिएंटल आर्ट’ जैसी संस्थाओं के सदस्य और, ‘इन्डियन रेड-क्रॉस के पहले सदस्य थे|

प्रमुख प्रशासनिक योगदान

उन्होंने १८९९-१९०० के बीच पड़े कुख्यात ‘छप्पनिया काल’ की ह्रदय-विदारक विभीषिका देखी थी, और अपनी रियासत के लिए पानी का इंतजाम एक स्थाई समाधान के रूप में करने का संकल्प लिया था और इसीलिये सबसे क्रांतिकारी और दूरदृष्टिवान काम, जो इनके द्वारा अपने राज्य के लिए किया गया वह था- पंजाब की सतलज नदी का पानी ‘गंग-केनाल’ के ज़रिये बीकानेर जैसे सूखे प्रदेश तक लाना और नहरी सिंचित-क्षेत्र में किसानों को खेती करने और बसने के लिए मुफ्त ज़मीनें देना|
श्रीगंगानगर शहर के विकास को भी उन्होंने प्राथमिकता दी वहां कई निर्माण करवाए और बीकानेर में अपने निवास के लिए पिता लालसिंह के नाम से ‘लालगढ़ पैलेस’ बनवाया| बीकानेर को जोधपुर शहर से जोड़ते हुए रेलवे के विकास और बिजली लाने की दिशा में भी ये बहुत सक्रिय रहे। जेल और भूमि-सुधारों की दिशा में इन्होंने नए कायदे कानून लागू करवाए, नगरपालिकाओं के स्वायत्त शासन सम्बन्धी चुनावों की प्रक्रिया शुरू की, और राजसी सलाह-मशविरे के लिए एक मंत्रिमंडल का गठन भी किया। १९३३ में लोक देवता रामदेवजी की समाधि पर एक पक्के मंदिर के निर्माण का श्रेय भी इन्हें है!

सम्मान

सन १८८० से १९४३ तक इन्हें १४ से भी ज्यादा कई महत्वपूर्ण सैन्य-सम्मानों के अलावा सन १९०० में ‘केसरेहिंद’ की उपाधि से विभूषित किया गया। १९१८ में इन्हें पहली बार 19 तोपों की सलामी दी गयी, वहीं १९२१ में दो साल बाद इन्हें अंग्रेज़ी शासन द्वारा स्थाई तौर 19 तोपों की सलामी योग्य शासक माना गया।

निधन

२ फरवरी १९४३ को बंबई में ६२ साल की उम्र में गंगा सिंह का निधन हुआ।

आलोचना

इन सब चीज़ों के बावजूद कुछ लोग उन्हें एक निहायत अलोकतांत्रिक, घोर सुधार-विरोधी, शिक्षा-आंदोलनों को कुचलने वाले, अप्रतिम जातिवादी, जनता पर तरह-तरह के ढेरों टेक्स लगाने वाले अंगरेज़ परस्त और बीकानेर राज्य से आर्य समाज और प्रजा परिषद् के सदस्यों को देश निकाला देने वाले, गुस्सैल शासक गंगासिंह के रूप में भी याद करते हैं। जनरल गंगासिंह के पक्ष में जितनी बातें स्थानीय इतिहास में लिखी मिलती हैं- उतनी ही उनके विपक्ष में भी| बीकानेर में स्वाधीनता-सेनानियों, कांग्रेस से जुड़े पुराने नेताओं और प्रजामंडल जैसे आन्दोलनों को कुचलने वाले इस असाधारण राजा के बारे में खुली निंदा से भरे इतिहास के पृष्ठ भी लिखे गए हैं! उनके व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी कुछ लोमहर्षक कहानियां आज भी बीकानेर के पुराने लोगों को याद हैं।[कृपया उद्धरण जोड़ें] ये बात निर्विवाद है कि उन जैसा विवादास्पद राजा बीकानेर में आज तक नहीं हुआ।
महाराजा सार्दुल सिंह जी (1943-1950)
महाराजा करणीसिंह जी (1950-1988)
महाराजा नरेंद्रसिंह जी (1988-वर्तमान)


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