Tuesday, 30 April 2019

राजस्थानी संस्कृति परम्परा एवं विरासत

राजस्थानी संस्कृति परम्परा एवं विरासत
  राजस्थानी संस्कृति हिंदी में Culture of Rajasthan राजस्थानी संस्कृति एक बहती नीरा है, जो गाँव गाँव ढानी, चौपाल, पनघट, महल, झौपड़ी, किले, गढ़ी खेत खलिहान में बहती हुई जन जन रुपी सागर के संस्पर्श से इंद्रधनुषीयछटा बिखेरती हैं. और अपनी महक के साथ पर्व, मेले, तीज त्योहार, नाट्य, नृत्य, श्रृंगार पहनावा, रीती रिवाज, आचार व्यवहार आदि में प्रतिबिम्बित होती हैं.

राजस्थान के दुर्गों की सूची

राजस्थान एक प्राचीन धरोहर है यहाँ अनेक राजाओं ने लंबे समय तक शासन किया। इस दौरान अपने शासन काल में उन्होंने अपनी तथा अपनी प्रजा की सुरक्षा हेतु दुर्गों अर्थात् किलों का निर्माण करवाया। 

सूची


क्र॰सं॰दुर्ग का नामजिलाने बनवायातिथि
(1)अचलगढसिरोहीपरमार शासक९०० ई
(2)अहिछत्रगढ़ किलानागौरअज्ञातचौथी शताब्दी
(3)आमेर दुर्गजयपुरराजा मान सिंह-प्रथम१५९२ - १७२७
(4)कुचामन का किलानागौरअज्ञातअज्ञात
(5)कुम्भलगढ़ दुर्गउदयपुरमहाराणा कुम्भा१४४३
(6)खिमसर का किलानागौरठाकुर करम सिंहसोलहवीं शताब्दी
(7)चित्तौड़गढ़ का दुर्गउदयपुरचित्रांग मौर्यसातवीं शताब्दी
(8)जूनागढ़ बीकानेरबीकानेरराव बीका१५८६
(9)मेहरानगढ़जोधपुरराव जोधा(१६३८-७८)
(10)रणथंभोर दुर्गसवाई माधोपुरचौहान राजा रणथंबन944 ई.
(11)जालौर दुर्गजालौरपरमार राजाअज्ञात
(12)जयगढ़ दुर्गजयपुरसवाई जयसिंह१७२६
(13)नीमरानाअलवरचौहान शासक14वीं शताब्दी

राजस्थान के महलों की सूची

जयपुर ज़िला

उदयपुर ज़िला

बीकानेर

जोधपुर ज़िला

Palace of Bilara 1.jpg

अन्य ज़िले

तथा जिसे रेत के धोरों के साथ साथ वायुमंडल, वसुंधरा तथा रोम रोम में उल्लसित एवं तरंगित अनुभूत किया जा सकता हैं.राजस्थानी संस्कृति समष्टिगत, समन्वयात्मक एवं प्राचीन हैं. भौगोलिक विविधता एवं प्राकृतिक वैभव ने इसे और आकर्षक बनाया हैं. वस्तुतः राजस्थानी संस्कृति लोक जीवन को प्रतिनिधित्व करने वाली संस्कृति हैं.
Rajasthan Culture In Hindi

राजस्थानी संस्कृति परम्परा एवं विरासत

पधारों म्हारे देश के निमंत्रण की संवाहक राजस्थानी संस्कृति सांसकृतिक पर्यटन की पर्याय हैं. तैतीस जिलों को अपने आंचल में समेटे राजस्थान की धरती सांस्कृतिक परम्पराओं का अनूठा मिश्रण प्रस्तुत करती हैं. राजस्थान की सांस्कृतिक परम्पराएं विरासत से जुड़े स्थल, प्रकृति एवं वन्यजीव की विविधता तथा दैदीप्यमान इतिहास पर्यटक के खुला आमंत्रण हैं. सम्रद्ध लोक संस्कृति के परिचायक तीज त्योहार उमंग के प्रतीक मेले, आस्था और विश्वास के प्रतीक लोक देवता, फाल्गुन की मस्ती में नृत्य करती आकर्षक परिधान से युक्त महिलाएं पर्यटकों को चमत्कृत करने के लिए पर्याप्त हैं. 
धरती धोरा री की झिलमिलाती रेत एवं गूंजता सुरीला लोक संगीत पर्यटक को अभिभूत करने वाला होता हैं. राजस्थान की संस्कृति एवं परम्परा की मुख्य बात यह है कि राजस्थान के जनमानस की विशालता ने जिस प्रकार सभी मान्यताओं और आस्थाओं को फलने फूलने दिया, उसी प्रकार उनके अनुयायियों के साथ भ्रात भाव रखा. अजमेर के ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह विश्वभर के श्रद्धालुओं का आस्था एवं विश्वास का केंद्र हैं.

राजस्थानी संस्कृति

राजस्थान में मुश्किल से कोई महीना ऐसा जाता होगा, जिसमें धार्मिक उत्सव न हो। सबसे उल्लेखनीय व विशिष्ट उत्सव गणगौर है, जिसमें महादेव व पार्वती की मिट्टी की मूर्तियों की पूजा 15 दिन तक सभी जातियों की स्त्रियों के द्वारा की जाती है, और बाद में उन्हें जल में विसर्जित कर दिया जाता है। विसर्जन की शोभायात्रा में पुरोहित व अधिकारी भी शामिल होते हैं व बाजे-गाजे के साथ शोभायात्रा निकलती है। हिन्दू और मुसलमान, दोनों एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल होते हैं। इन अवसरों पर उत्साह व उल्लास का बोलबाला रहता है। एक अन्य प्रमुख उत्सव अजमेर के निकट पुष्कर में होता है, जो धार्मिक उत्सव व पशु मेले का मिश्रित स्वरूप है। यहाँ राज्य भर से किसान अपने ऊँट व गाय-भैंस आदि लेकर आते हैं, एवं तीर्थयात्री मुक्ति की खोज में आते हैं। अजमेर स्थित सूफ़ी अध्यात्मवादी ख़्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह भारत की मुसलमानों की पवित्रतम दरगाहों में से एक है। उर्स के अवसर पर प्रत्येक वर्ष लगभग तीन लाख श्रद्धालु देश-विदेश से दरगाह पर आते हैं।

नृत्य-नाटिका

राजस्थान का विशिष्ट नृत्य घूमर है, जिसे उत्सवों के अवसर पर केवल महिलाओं द्वारा किया जाता है। घेर नृत्य (महिलाओं और पुरुषों द्वारा किया जाने वाला, पनिहारी (महिलाओं का लालित्यपूर्ण नृत्य), व कच्ची घोड़ी (जिसमें पुरुष नर्तक बनावटी घोड़ी पर बैठे होते हैं) भी लोकप्रिय है। सबसे प्रसिद्ध गीत ‘कुर्जा’ है, जिसमें एक स्त्री की कहानी है, जो अपने पति को कुर्जा पक्षी के माध्यम से संदेश भेजना चाहती है व उसकी इस सेवा के बदले उसे बेशक़ीमती पुरस्कार का वायदा करती है। राजस्थान ने भारतीय कला में अपना योगदान दिया है और यहाँ साहित्यिक परम्परा मौजूद है। विशेषकर भाट कविता की। चंदबरदाई का काव्य पृथ्वीराज रासो या चंद रासा, विशेष उल्लेखनीय है, जिसकी प्रारम्भिक हस्तलिपि 12वीं शताब्दी की है। मनोरंजन का लोकप्रिय माध्यम ख़्याल है, जो एक नृत्य-नाटिका है और जिसके काव्य की विषय-वस्तु उत्सव, इतिहास या प्रणय प्रसंगों पर आधारित रहती है। राजस्थान में प्राचीन दुर्लभ वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में हैं, जिनमें बौद्ध शिलालेख, जैन मन्दिर, क़िले, शानदार रियासती महल और मस्जिद व गुम्बद शामिल हैं।

त्योहार

राजस्थान मेलों और उत्सवों की धरती है। यहाँ एक कहावत प्रसिद्ध हैं. सात वार नौ त्योहार. यहाँ के मेले और पर्व राज्य की संस्कृति के परिचायक हैं. यहाँ लगने वाले पशु मेले व्यक्ति और पशुओं के बीच की आपसी निर्भरता को दिखाते हैं. राज्य के बड़े मेलों में पुष्कर का कार्तिक मेला, परबतसर और नागौर के तेजाजी का मेला को गिना जाता हैं. यहाँ तीज का पर्व सबसे बड़ा माना गया है श्रावण माह के इसी पर्व के साथ त्योहारों की श्रंखला आरम्भ होती हैं जो गणगौर तक चलती हैं. इस सम्बन्ध में कथन है कि तीज त्योहारा बावरी ले डूबी गणगौर.
  1. होली, दीपावली, विजयदशमी, क्रिसमस जैसे प्रमख राष्ट्रीय त्योहारों के अलावा अनेक देवी-देवताओं, संतो और लोकनायकों तथा नायिकाओं के जन्मदिन मनाए जाते हैं।
  2. यहाँ के महत्त्वपूर्ण मेले हैं तीज, गणगौर(जयपुर), अजमेर शरीफ़ और गलियाकोट के वार्षिक उर्स, बेनेश्वर (डूंगरपुर) का जनजातीय कुंभ, श्री महावीर जी (सवाई माधोपुर मेला), रामदेउरा (जैसलमेर), जंभेश्वर जी मेला(मुकाम-बीकानेर), कार्तिक पूर्णिमा और पशु-मेला (पुष्कर-अजमेर) और श्याम जी मेला (सीकर) आदि।

टूरिज्म फेस्टिवल

राजस्थान को फेस्टिवल टूरिज्म का प्रमुख केंद्र कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पुष्कर मेला देश के सबसे बड़े आकर्षणों में से है। हर साल लाखों श्रद्धालु पुष्कर आकर पवित्र झील में डूबकी लगाते हैं। यहां दुनिया का सबसे बड़ा ऊंटों का मेला भी लगता है जिसमें 50,000 ऊँट हिस्सा लेते हैं। जनवरी, 2010 में इस मेले ने बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटकों को आकर्षित किया। इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में हर 12 साल पर कुंभ होता है जबकि हर छह साल में अर्द्धकुंभ का आयोजन हरिद्वार और प्रयाग में होता है। इनमें विदेशी पर्यटक भारी तादाद में आते हैं।

राजस्थान की संस्कृति का इतिहास व परिचय 

जिसमें न धर्म की पाबंदी है न जाति की, न देश की न, सम्प्रदाय की. हिन्दू मुसलमान, सिक्ख एवं अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा दरगाह पर अकीदत फूल चढ़ाते हैं, मनौतियाँ मानते हैं. सूफीमत के संदेशवाहक ख्वाजा साहब के दरबार की दरबार के प्रखर कव्वाल और गायक थे. शंकर शम्भु कव्वाल. आज अजमेर सूफी मत का अंतर्राष्ट्रीय प्रमुख तीर्थ हैं. पश्चिमी राजस्थान के बाड़मेर जिले के नाकौड़ा भैरव जैनियों के पूजनीय है ही परन्तु सनातनियों के मान्य भी हैं.
मेवाड़ के केसरियाजी जैनियों के मान्य है और सनातनियों के भी हैं. यही स्थिति उन लोक देवताओं की हैं. जिन्होंने वहां के सुदूर अंचलों में स्थित आदिवासियों, जनजातियों एवं किसानों को सदियों से आस्था के सूत्र में बांधे रखा. रुणिचा में चिर समाधि में लीन रामदेव, जिस प्रकार हिन्दुओं के रामदे है उसी प्रकार मुसलमानों के भी रामसा पीर हैं. आज भी बाबा रामदेव उत्तर भारत के प्रमुख पूजनीय देवताओं में से एक हैं.

राजस्थान के लोकदेवता

रामदेव जी

- राजस्थान में रामदेवजी को बहुत अधिक पूजा जाता है। गरीबों के रखवाले रामदेव जी का अवतार ही भक्तों के संकट हरने के लिए ही हुआ था। राजस्थान में रामदेवरा नामक स्थान है। जहाँ प्रतिवर्ष रामदेव जंयती पर विशाल मेला लगता है। दूर-दूर से भक्त इस दिन रामदेवरा पहुँचते है। कई लोग तो नंगे पैर चलकर रामदेवरा जाते है। रुणिचा, जैसलमेर माता मैणादे पिता अजमालजी थे इनका जन्म 1405 में हुआ

गुरु जम्भेश्वर

गुरु जम्भेश्वर[1] - जांभोजी का जन्म नागौर जिले के पीपासर ग्राम में विक्रम सम्वत १५०८ में हुआ था।[2] इनकी माता जी का नाम हंसा एवं पिताजी का नाम श्री लोहट जी पंवार था जांभोजी ने वन, पर्यावरण एवं वन्य जीव संरक्षण के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य किया श्री गुरु जंभेश्वर जी ने विश्व प्रसिद्ध बिश्नोई धर्म का प्रवर्तन किया इन्होंने अपनी जिंदगी के 27 वर्षों तक गाय चराई तथा 51 वर्ष तक धर्म उपदेश दिया इन्होंने काफी समय समराथल धोरे पर व्यतीत किया वर्तमान में इन के अनुयाई राजस्थान पंजाब हरियाणा मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों में निवास करते हैं बदलते आधुनिक परिवेश में इन के अनुयाई अब विदेशों में भी रहने लगे हैं विश्नोई समाज के लोगों को वन्यजीवों एवं वृक्षों पेड़ों जंगलों से बहुत प्यार हैं 1730 में जोधपुर के खेजड़ली नामक गांव में 363 स्त्री पुरुषों ने अमृता देवी बिश्नोई के नेतृत्व में वृक्षों की रक्षा हेतु बलिदान दिया था वर्ष पर्यंत बिश्नोई समाज राजस्थान के भिन्न-भिन्न स्थानों पर मेलों का आयोजन करता है जिसमें समाज के स्त्री-पुरुष मेलों में शिरकत करने आते हैं विश्व का एकमात्र वृक्ष मेला भी भाद्रपद सुदी दशमी को खेजड़ली गांव में आयोजित होता है

गोगाजी

- एकता व सांप्रदायिक सद़भावना का प्रतीक धार्मिक पर्व गोगामेडी (राजस्थान) में गोगाजी की समाधि स्थल पर मेला लाखों भक्तों के आकर्षण का केंद्र है। गोगामेडी ,हनुमानगढ

जीणमाता

ार्ग पर सीकर से 11 कि॰मी॰ दूर गोरिया से जीण माता मंदिर केलिए मार्ग है। सीकर जीण माता की अष्टभुजी प्रतिमा है इस कि जयंती प्रतिवर्ष चैत्र ओर आश्विन के नवरात्रों में मेला भरता है यह चौहानों की कुलदेवी है जिन घांघू गांव बसाने वाले गंघराय की पुत्री ओर हर्ष की बहिन थी

शाकम्भरी माता

सांभर चौहानो की इष्ट देवी

सीमल माता

बसंतगढ़, सिरोही

हर्षनाथ जी

सीकर

केसरिया जी

धुवेल (उदयपुर)

मल्लीनाथ जी

तिलवाडा , बाडमेर

शिला देवी

आमेर

कैला देवी

करौली

ज्वाला देवी

जोबनेर

कल्ला देवी

सिवाना

तेजा जी

जन्म-खड़नाल नागौर इनकी मृत्यू सर्प दंश से सुरसुरा (अजमेर) नामक स्थान पर हुई। परबतसर (नागौर) में भाद्रपद शुक्ल दशमी को इनका मेला लगता है।[3]
पाबू जी
जन्म- कोलूमण्ड फलोदी जोधपुर
पिता का नाम- धाधल जी
माता का नाम -कमला दे
पत्नी का नाम- सुप्यार दे/फूलन दे
घोड़ी का नाम- केसर कालमी
पाबू जी का मेला - कोलुमण्ड में चैत्र अमावस्या को
★ऊँटो के देवता
★फ्लेग रक्षक देवता
★लक्ष्मण का अवतार
★राइका/रेबारी जाति के आराध्य देव
★देवली चारण की गायों को बचाने के लिए जीन्दराव खिंची से यूुद्ध किया

खैरतलजी

अलवर

करणी माता

[राजस्थान की लोकदेवियां देशनोक (बीकानेर) चूहो की देवी]

राजेश्वरी माता


पाबूजी राठौड़ की गोरक्षा हेतु प्राणहुती सम्बन्धी लोक गाथा लाखों को भाव विभोर करती हैं. लोक गायकों के द्वारा पाबूजी की फड़ को गेय में बांचने की प्रथा मध्यकाल से चली आ रही हैं. राजस्थान के मध्यकालीन संतों एवं उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित मठों, रामद्वारों, मेलों, समागमों तथा यात्राओं के माध्यम से सांस्कृतिक एवं भावनात्मक एकता के यशस्वी प्रयास का सूत्रपात हुआ.
संतों की मानव कल्याण की कामना तथा प्रेमाभक्ति के सिद्धांतों ने यहाँ के समाज में भावनात्मक एकता के आयाम के नए पटल खोले हैं. मन मिलाने का जो प्रयास संतों द्वारा जिस सहजता से किया गया वह स्तुत्य है और यहाँ की संस्कृति की पहचान हैं. राजस्थानी लोग अपनी संस्कृति और परम्परा पर गर्व करते हैं. उनका दृष्टिकोण परम्परागत हैं. यहाँ साल भर मेलों एवं पर्व त्योहारों का ताँता लगा रहता हैं.
यहाँ एक कहावत प्रसिद्ध हैं. सात वार नौ त्योहार. राजस्थान के मेले और पर्व त्योहार रंगारंग एवं दर्शनीय होते हैं. ये पर्व त्योहार लोगों के जीवन उनकी खुशियाँ और उमंग के परिचायक हैं. प्रायः इन मेलों और त्योहारों के मूल में धर्म होता है, लेकिन इनमें से कई मेले और त्योहार अपने सामाजिक और आर्थिक महत्व के परिचायक हैं. मनुष्य और पशुओं की अंतनिर्भरता को दर्शाने वाले पशुमेले राजस्थान की पहचान हैं.
पुष्कर का कार्तिक मेला, परबतसर और नागौर के तेजाजी का मेला, जो मूलतः धार्मिक हैं. राज्य के बड़े पशु मेले माने गये हैं. राजस्थान में तीज को त्योहारों में पहला स्थान दिया गया हैं. राजस्थान में एक कहावत प्रसिद्ध हैं. तीज त्योहारा बावरी ले डूबी गणगौर. इसका अर्थ है कि त्योहारों के चक्र की शुरुआत श्रावण महीने की तीज से होती हैं. तथा साल का अंत गणगौर के साथ होता हैं. गणगौर धार्मिक पर्व होने के साथ ही राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक हैं. तीज, गणगौर जैसे पर्व महिलाओं के महत्व को भी रेखांकित करते हैं.

राजस्थान का इतिहास हिंदी में

राजस्थान में पुरा संपदा का अटूट खजाना हैं. कहीं पर प्रागैतिहासिक शैलचित्रों की छटा है तो कहीं हड़प्पा संस्कृति के पूर्व के प्रबल प्रमाण एयर कहीं प्राचीनकाल में धातु के प्रयोग के साक्ष्य, कहीं गणेश्वर का ताम्र वैभव तो कहीं प्रस्तर प्रतिमाओं का इतिहास कहीं मरणमूर्तियों और म्रदभांडों से लेकर धातु प्रतिमानों तक का शिल्पशास्त्र बिखरे पड़े हैं. उपासना स्थल, भव्य प्रासाद, अभेद्य दुर्ग एवं जीवंत स्मारकों का संगम आदि राजस्थान के कस्बों, शहरों एवं उजड़ी बस्तियों में देखने को मिलता हैं.
आमेर, जयपुर, जोधपुर, बूंदी, उदयपुर, शेखावटी के मनोहारी विशाल प्रासाद तथा रणकपुर, ओसियां, देलवाड़ा, झालरापाटन के उत्कृष्ट कलात्मक मंदिर और जैसलमेर की पटवों की हवेलियाँ इत्यादि ऐसे कुछ प्रतीक हैं, जिन पर राजस्थान कलाकारों के हस्ताक्षर हैं.
राजस्थान के ख्यातनाम दुर्गों में चित्तौड़, जैसलमेर, रणथम्भौर, गागरोन, जालौर, सिवाना तथा भटनेर का दुर्ग ऐतिहासिक दृष्टि से प्रसिद्ध रहे हैं. इनके साथ शूरवीरों के पराक्रम, वीरांगनाओं के जौहर की रोमांचक गाथाएं जुड़ी हुई हैं, जो भारतीय इतिहास की अनमोल धरोहर हैं. राजस्थान के जनमानस को ये दुर्ग और इनसे जुड़े आख्यान सदा से ही प्रेरणा देते आए हैं. वीरता एवं शौर्य के प्रतीक ये गढ़ और किले अपने अनूठे स्थापत्य, विशिष्ठ सरंचना, अद्भुत शिल्प एवं सौन्दर्य के कारण दर्शनीय हैं.

राजस्थान के दर्शनीय स्थल, चित्रकला व शैलियाँ

राजस्थान की चित्रशैलियाँ भी इसके वैभव का प्रमाण है. बूंदी, नाथद्वारा, किशनगढ़, उदयपुर, जोधपुर, जयपुर आदि राजस्थान की चित्रकला के रंगीन पृष्ट हैं. जिनमें श्रृंगारिकता के साथ साथ लौकिक जीवन की सशक्त अभिव्यक्ति हुई हैं. राजस्थानी शैली गुजराती एवं जैन शैली के तत्वों को अपने में समेटकर मुगल शैली में समन्वित हुई हैं.
राजस्थान के वीर तथा वीरांगनाओं ने जहाँ रणक्षेत्र में तलवारों का जौहर दिखाकर विश्व इतिहास में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित किया हैं, वहीँ भक्ति और आध्यात्मिक क्षेत्र क्षेत्र में भी राजस्थान पीछे नहीं रहा हैं. यहाँ मीरा एवं दादू भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत रहे हैं. भक्ति गीतों में जहाँ एक ओर लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिष्ठा मिली है वही व्यक्ति स्वातंत्र्य का स्वर फूटा और लोकपरक सांस्कृतिक चेतना उजागर हुई हैं.

राजस्थान के मेले व उत्सव पर्व

इस जनचेतना का परिपाक हमें राजस्थान के मेलों और त्योहारों में दिखाई देता हैं. यहाँ के मेलों और त्योहारों के आयोजन में सम्पूर्ण लोकजीवन पूरी सक्रियता के साथ शामिल होकर अपनी भावनात्मक आस्था का परिचय देता हैं. लोकनृत्य राजस्थानी संस्कृति के वाहक हैं. यहाँ के लोकनृत्यों में लय, ताल, गीत, सूर आदि का एक सुंदर और संतुलित सामजस्य देखने को मिलता हैं. गेर, चंग, गीदड़, घूमर, ढोल आदि नृत्य राजस्थान के जनजीवन की संजीवनी बूटियां हैं. इस बूटी की घूंटी को लेकर राजस्थान के जनजीवन और लोकमानस ने भूखा नंगा रहते हुए भी मस्ती और परिश्रम से जीना सीखा हैं.
यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि राजपूताने में अनेक वीर, विद्वान् एवं कुलाभिमानी राजा, सरदार आदि हुए. जिन्होंने अनेक युद्धों में अपनी आहुति देकर अपनी कीर्ति को अमर बना दिया. राजपूत जाति की वीरता विश्व प्रसिद्ध हैं. चित्तौड़, कुम्भलगढ़, मांडलगढ़, अचलगढ़, रणथम्भौर, गागरोन, भटनेर, बयाना, सिवाणा, मंडोर, जोधपुर, जालौर, आमेर आदि किलो तथा अनेक प्रसिद्ध रणक्षेत्रों में कई बड़े बड़े युद्ध हुए, जहाँ अनेक वीर राजपूतों ने वहां की मिट्टी का एक एक कण अपने रक्त से तर किया.

Sunday, 28 April 2019

गुर्जर प्रतिहार राजवंश-इतिहास

गुर्जर प्रतिहार राजवंश

गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य
साम्राज्य
 6ठीं शताब्दी–1036 ई०
गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य अपने स्वर्णकाल में।
राजधानीकन्नौज
भाषाएँसंस्कृत, प्राक्रित
धर्महिंदुत्व
शासनराजतंत्र
ऐतिहासिक युगमध्यकालीन भारत
 - स्थापित6ठीं शताब्दी
 - महमूद ग़ज़नवी का कन्नौज पर कब्जा1008 ई०
 - अंत1036 ई०
पूर्ववर्ती
अनुगामी
हर्षवर्धन
चन्देल
परमार राजवंश
कलचुरि राजवंश
ग़ज़नवी साम्राज्य
चावडा राजवंश
चौहान वंश
* राजपुत काल- 
-7 वी से 12 वी शताब्दी का काल भारत/राजस्थान के इतिहास मे राजपूत काल कहलाता है
-राजपूत शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है
-प्रारम्भ मे राजपूत शब्द राजा/राज परिवार से सम्बंधित था परन्तु कालान्तर मे राजपूत शब्द जाति विशेष के लिए प्रयोग होता है

* राजपूतो कि उत्पती का सिद्धांत-
1. अग्निकुण्ड का सिद्धांत-
-यह सिद्धांत पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चन्दरवरदाई द्वारा अपनी पुस्तक पृथ्वीराज रासौ मे दिया गया
-इनके अनुसार आबू के यज्ञ को बचाने हेतु वशिष्ठ मुनि ने चार को उत्पन किया
-(अ) गुर्जर-प्रतिहार
-(ब) परमार
-(स) चालुक्य/सोलंकी
-(द) चौहान
-इस सिद्धांत का समर्थन सूर्यमल्ल मिश्रण और मुहणौत नैणसी द्वारा किया गया

* मुहणौत नैणसी-
-मुहणोत नैणसी को राजस्थान का अबुल फजल कहा जाता है
-इन्हे अबुल फजल कि संज्ञा मुंशी देवी प्रसाद द्वारा दि गई
-मुहणौत नैणसी ने नैणसी री ख्यात व मारवाड़ परगना री विगत नामक ग्रंथ लिखे है
-मारवाड़ परगना री विगत को राजस्थान का गजेटियर कहा जाता है
-नैणसी री ख्यात एकमात्र ख्यात है जिसमे कही भी 'ह' शब्द का प्रयोग नही हुआ
-मुहणौत नैणसी मारवाड़ के राजा जसवंत सिंह के दरबारी कवि थे

2. कर्नल जेम्स टोड ने राजपूतो को शक/शिथियन कहा था
3. वी.ए. स्मिथ ने राजपूतो को हुण जाति कहा था

* विशेष- हुणो के आक्रमण से बचने के लिए चीन के महान राजा शि-हुआंग-टी द्वारा चीन कि महान दिवार का निर्माण करवाया गया तथा इस दिवार कि तुलना कुम्भलगढ़ दुर्ग से कि जाती है

4. डाँ. गोपिनाथ शर्मा के अनुसार राजपूत वैदिक ब्राह्मण क्षत्रिय संतान है
गुर्जर-प्रतिहार-
-प्रतिहार का अर्थ द्वारपाल होता है
-गर्जर-प्रतिहारो मे गुर्जर जाति का प्रतिक न होकर एक क्षेत्र/जगह विशेष का प्रतिक है
-चीनी यात्री हवेंसाग ने भी गुर्जर-प्रतिहार मे गुर्जर जगह का प्रतिक है व अपनी पुस्तक सी.यु.कि  मे लिखा है कि प्रतिहार गुजरात्रा कि सिमा के सुरक्षा प्रहरी थे
गुर्जर प्रतिहार वंश या प्रतिहार वंश मध्यकाल के दौरान मध्य-उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में राज्य करने वाला सुर्यवंशी गुर्जर वंश था, जिसकी स्थापना नागभट्टनामक एक सामन्त ने ७२५ ई॰ में की थी।इस वंश की उत्पत्ति का एक मत यह है कि ऋषि वशिष्ठ के आबू पर्वत पर यज्ञ द्वारा चार क्षत्रिय वंशो क्रमशः चौहान प्रतिहार परमार और चालुक्यो की उत्पत्ति हुई।दूसरा मत यह है कि इस राजवंश के लोग स्वयं को राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज मानते थे, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होती है। अपने स्वर्णकाल में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य पश्चिम में सतलुज नदी से उत्तर में हिमालय की तराई और पुर्व में बंगाल-असम से दक्षिण में सौराष्ट्र और नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। सम्राट मिहिर भोज, इस राजवंश का सबसे प्रतापी और महान राजा थे। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल बताते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि गुर्जर प्रतिहार राजवंश ने भारत को अरब हमलों से लगभग ३०० वर्षों तक बचाये रखा था, इसलिए प्रतिहार (रक्षक) नाम पड़ा।
गुर्जर प्रतिहारों ने उत्तर भारत में जो साम्राज्य बनाया, वह विस्तार में हर्षवर्धन के साम्राज्य से भी बड़ा और अधिक संगठित था। देश के राजनैतिक एकीकरण करके, शांति, समृद्धि और संस्कृति, साहित्य और कला आदि में वृद्धि तथा प्रगति का वातावरण तैयार करने का श्रेय गुर्जर प्रतिहारों को ही जाता हैं। प्रतिहारकालीन मंदिरो की विशेषता और मूर्तियों की कारीगरी से उस समय की प्रतिहार शैली की संपन्नता का बोध होता है।

इतिहास

* एहोल अभिलेख
-सर्वप्रथम गुर्जर जाति का उल्लेख एहोल अभिलेख मे है
-एहोल अभिलेख चालुक्य राजा पुलकेशियन द्वितिय का है जिसे रवी किर्ति जैन द्वारा 633-34 ई. मे संस्कृत भाषा मे लिखा गया

-गुर्जर प्रतिहार शासक स्वयम् को राम के पुत्र कुश का वंशज मानते है अत: इतिहास मे सुर्यवंशी कहलाये
-मुहणौत नैणसी के अनुसार भारत मे गुर्जर प्रतिहारो कि 26 शाखाए है जिनमे से राजस्थान मे मण्डोर और भीनमाल मुख्य है

* स्थापना-
-गुर्जर प्रतिहारो का संस्थापक हरिशचन्द्र था
-गुर्जर प्रतिहारो कि प्रारम्भिक राजधानी मण्डोर थी
-मण्डोर वर्तमान मे जोधपुर मे स्थित है
-हरिशचन्द्र के पुत्र रज्जील से हि गुर्जर प्रतिहार वंश कि वंशावली प्रारम्भ होती है
-रज्जील के पौत्र नागभट्ट प्रथम ने भीनमाल को जीता था

प्रारंभिक शासक

ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से इस वंश के बारे में कई महत्वपूर्ण बाते ज्ञात होती है।[1][2][3] नागभट्ट प्रथम (७३०-७५६ ई॰) को इस राजवंश का पहला राजा माना गया है। आठवीं शताब्दी में भारत में अरबों का आक्रमण शुरू हो चुका था। सिन्ध और मुल्तान पर उनका अधिकार हो चुका था। फिर सिंध के राज्यपाल जुनैद के नेतृत्व में सेना आगे मालवा, जुर्ज और अवंती पर हमले के लिये बढ़ी, जहां जुर्ज पर उसका कब्जा हो गया। परन्तु आगे अवंती पर नागभट्ट ने उन्हैं खदैड़ दिया। अजेय अरबों कि सेना को हराने से नागभट्ट का यश चारो ओर फैल गया।[4] अरबों को खदेड़ने के बाद नागभट्ट वहीं न रुकते हुए आगे बढ़ते गये। और उन्होंने अपना नियंत्रण पूर्व और दक्षिण में मंडोर, ग्वालियर, मालवा और गुजरात में भरूच के बंदरगाह तक फैला दिया। उन्होंने मालवा में अवंती (उज्जैन) में अपनी राजधानी की स्थापना की, और अरबों के विस्तार को रोके रखा, जो सिंध में स्वयं को स्थापित कर चुके थे। मुस्लिम अरबों से हुए इस युद्ध (७३८ ई॰) में नागभट्ट ने गुर्जर-प्रतिहारों का एक संघीय का नेतृत्व किया।[5][6] नागभट्ट के बाद दो कमजोर उत्तराधिकारी आये, उनके बाद आये वत्सराज (७७५-८०५ई॰) ने साम्राज्य का और विस्तार किया।[7]
1. नागभट्ट प्रथम-(730-760 ई.)
-नागभट्ट प्रथम ने भीनमाल को जीतकर अपनी राजधानी बनाया
-भीनमाल शाखा का संस्थापक नागभट्ट प्रथम था
-नागभट्ट प्रथम गुर्जर प्रतिहार शासक था जिसने अरबो को प्राजीत किया
-नागभट्ट प्रथम ने ही जालौर का किला बनवाया व उज्जैन पर अधिकार किया
-नागभट्ट प्रथम को ग्वालियर प्रशस्ति मे मेघनाथ के युद्ध का अवरोधक/नासक व विशुद्ध क्षत्रीय राजा कहा है
-नागभट्ट प्रथम का दरबार नागावलोक का दरबार कहलाता है
-चीनी यात्री हवेंसाग ने भीनमाल को पिलो भीलो का नाम दिया

2. वत्सराज-(783-795 ई.)
-वत्सराज के शासन काल मे कनौज को लेकर त्रिराष्ट्र संघर्ष प्रारम्भ हुआ

-त्रिराष्ट्र संघर्ष मे भाग लेने वाले शासक
-(अ) गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज
-(ब) पाल वंश (बंगाल) का शासक धर्मपाल
-(स) राष्ट्रकुट वंश (द.भारत) का शासक ध्रुव प्रथम

-त्रिराष्ट्र संघर्ष को प्रारम्भ करने वाला प्रथम शासक वत्सराज था
-वत्सराज ने पाल वंश के शासक धर्मपाल को प्राजीत किया
-वत्सराज ध्रुव प्रथम से प्राजीत हुआ (प्रथम संघर्ष मे ध्रुव प्रथम विजयी रहा)
-प्राजीत होने के बाद वत्सराज को अपनी राजधानी गवालीपुर/जबालीपुर (जालौर) ले जानी पड़ी
-विजयी होने के बाद ध्रुव प्रथम ने अपने राष्ट्रकुट वंश के कुल चिन्ह गंगा, यमुना मे स्थापित करवाये
-सुरत और सन्जन अभिलेख के अनुसार यह युद्ध गंगा व यमुना के दौआब क्षेत्र मे लड़ा गया था
-ओसिया के जैन मंदिरो का निर्माण वत्सराज के शासन काल मे हुआ था
-ओसिया वर्तमान मे जोधपुर मे स्थित है
-ओसिया को राजस्थान का भुवनेश्वर कहा जाता है
-ओसिया का प्राचीन नाम उपकेश पटन था
-वत्सराज के शासन काल मे हि उधोतन सूरी ने अपना ग्रंथ कवलय माला 778 ई. मे जालौर मे लिखा
-वत्सराज के शासन काल मे जिन सैन सूरी ने हरिवंश पुराण कि रचना कि थी
-वत्सराज के शासन काल मे ओसिया मे हरिहर का मंदिर बनाया गया जो पंचायतन शैली का उदाहरण है
-गुर्जर प्रतिहारो का वास्तविक संस्थापक वत्सराज था

2. नागभट्ट द्वितिय-(795-833 ई.)
-नागभट्ट द्वितिय ने 816 ई. मे कनौज पर अधिकार कर गुर्जर प्रतिहार वंश कि राजधानी बनाया
-इस समय कनौज का राजा चक्रायुद्ध था
-नागभट्ट द्वितिय ने आयुध वंश और पाल वंश को प्राजीत करने के बाद परम भट्टारक महाराजा धिराज पंच परमेश्वर की उपाधि धारण कि थी
-इस उपाधि का उल्लेख बकुला के अभिलेख मे है
-नागभट्ट द्वितिय ने तुरूष्क मुस्लिम राज्य पर विजय प्राप्त कि और यहा का राजा वारिस बेग था
-नागभट्ट द्वितिय ने 833 ई. मे जीवित गंगा मे समाधि ली थी

3. भोज प्रथम-(836-885 ई.)

Mihir-Bhoj-Pratihar-Rajput

-भोज प्रथम को हि इतिहास मे मिहिर भोज के नाम से जाना जाता है

-भोज प्रथम के पास 2 उपाधिया थी
-(अ) आदिवराह (इस उपाधि का उल्लेख ग्वालियर अभिलेख मे है)
-(ब) प्रभास (इस उपाधि का उल्लेख दौलतपुर के अभिलेख मे है

-भोज प्रथम कि राजनैतिक और सैनिक उपलब्धियो का उल्लेख कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिनी मे है
-गवालियर प्रशस्ति कि रचना भोज प्रथम के समय कि गई
-भोज प्रथम के समय 851 ई. मे अरब यात्री सुलेमान भारत आया था जिन्होने भोज प्रथम को इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु कहा था
-झोट प्रतिहार गुर्जर प्रतिहारो का एकमात्र था जो वीणा वादक था
-भोज प्रथम ने अपने शासन काल मे चाँदी के सिक्के जारी किये थे

4. महेन्द्रपाल प्रथम-(885-910 ई.)
-इनके दरबारी कवि राजशेखर थे जिन्होने बाल महाभारत, बाल रामायण, भूवनकोष, काव्यमीमासा और कर्पुरमंजरी नामक ग्रंथ कि रचना कि थी
-इतिहासकार B.N पाठक ने इन्हे अंतिम  हिंदु भारत का सम्राट माना है

5. महिपाल-(913-944 ई.)
-राजशेखर ने महिपाल को आर्यावृत का महाराजा धिराज कहा था
-महिपाल कि विजयो और शासन का उल्लेख प्रचण्ड पाण्डव मे है
-महिपाल के समय अरब यात्री बगदाद निवासी अलमसूदी भारत आये
-अलमसूदी ने महिपाल को बोहरा राजा कहा है

6. राज्यपाल-(990-1019 ई.)
-इसके समय मे 1018-19 ई मे महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण किया था

7. यशपाल
-यह गुर्जर प्रतिहार वंश का अंतिम शासक था
-गुर्जर प्रतिहार वंश के बाद यहा कनौज के गहढ़वाल वंश का अधिकार हो गया

कन्नौज पर विजय और आगे विस्तार

हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कन्नौज को शक्ति निर्वात का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप हर्ष के साम्राज्य का विघटन होने लगा। जोकि अंततः लगभग एक सदी के बाद यशोवर्मन ने भरा। लेकिन उसकी स्थिति भी ललितादित्य मुक्तपीड के साथ गठबंधन पर निर्भर थी। जब मुक्तापीदा ने यशोवर्मन को कमजोर कर दिया, तो शहर पर नियंत्रण के लिए त्रिकोणीय संघर्ष विकसित हुआ, जिसमें पश्चिम और उत्तर क्षेत्र से प्रतिहार साम्राज्य, पूर्व से बंगाल के पाल साम्राज्य और दक्षिण में दक्कन में आधारभूतराष्ट्रकूट साम्राज्य शामिल थे।[8][9] वत्सराज ने कन्नौज के नियंत्रण के लिए पाल शासक धर्मपाल और राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग को सफलतापूर्वक चुनौती दी और पराजित कर दो राजछत्रों पर कब्जा कर लिया।[10][11]
७८६ के आसपास, राष्ट्रकूट शासक ध्रुव धारवर्ष (७८०-७९३) नर्मदा नदी को पार कर मालवा पहुंचा और वहां से कन्नौज पर कब्जा करने की कोशिश करने लगा। लगभग ८०० ई० में वत्सराज को ध्रुव धारवर्षा ने पराजित किया और उसे मरुदेश (राजस्थान) में शरण लेने को मजबुर कर दिया। और उसके द्वार गौंड़राज से जीते क्षेत्रों पर भी अपना कब्जा कर लिया।[12] वत्सराज को पुन: अपने पुराने क्षेत्र जालोन से शासन करना पडा, ध्रुव के प्रत्यावर्तन के साथ ही पाल नरेश धर्मपाल ने कन्नौज पर कब्जा कर, वहा अपने अधीन चक्रायुध को राजा बना दिया।[7]
गुर्जर प्रतिहार के सिक्कों मेवराह (विष्णु अवतार), ८५०–९०० ई० ब्रिटिश संग्रहालय
वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (805-833) राजा बना, उसे शुरू में राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय (793-814) ने पराजित किया था, लेकिन बाद में वह अपनी शक्ति को पुन: बढ़ा कर राष्ट्रकूटों से मालवा छीन लिया। तदानुसार उसने आन्ध्र, सिन्ध, विदर्भ और कलिंग के राजाओं को हरा कर अपने अधीन कर लिया। चक्रायुध को हरा कर कन्नौज पर विजय प्राप्त कर लिया। आगे बढ़कर उसने धर्मपाल को पराजित कर बलपुर्वक आनर्त, मालव, किरात, तुरुष्क, वत्स और मत्स्य के पर्वतीय दुर्गो को जीत लिया।[13] शाकम्भरी के चाहमानों ने कन्नोज के गुर्जर प्रतीहारों कि अधीनता स्वीकार कर ली।[14] उसने प्रतिहार साम्राज्य को गंगा के मैदान में आगे ​​पाटलिपुत्र (बिहार) तक फैला दिया। आगे उसने पश्चिम में पुनः मुसलमानों को रोक दिया। उसने गुजरात में सोमनाथ के महान शिव मंदिर को पुनः बनवाया, जिसे सिंध से आये अरब हमलावरों ने नष्ट कर दिया था। कन्नौज, गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का केंद्र बन गया, अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष (८३६-९१०) के दौरान अधिकतर उत्तरी भारत पर इनका अधिकार रहा।
८३३ ई० में नागभट्ट के जलसमाधी लेने के बाद[15], उसका पुत्र रामभद्र या राम गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का अगला राजा बना। रामभद्र ने सर्वोत्तम घोड़ो से सुसज्जित अपने सामन्तो के घुड़सवार सैना के बल पर अपने सारे विरोधियो को रोके रखा। हलांकि उसे पाल साम्राज्य के देवपाल से कड़ी चुनौतिया मिल रही थी। और वह गुर्जर प्रतीहारों सेकलिंजर क्षेत्र लेने मे सफल रहा।

गुर्जर-प्रतिहार वंश का चरमोत्कर्ष

रामभद्र के बाद उसका पुत्र मिहिरभोज या भोज प्रथम ने गुर्जर प्रतिहार की सत्ता संभाली। मिहिरभोज का शासनकाल प्रतिहार साम्राज्य के लिये स्वर्णकाल माना गया है। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल [16][17] बताते हैं। मिहिरभोज के शासनकाल मे कन्नौज के राज्य का अधिक विस्तार हुआ। उसका राज्य उत्तर-पश्चिम में सतुलज, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में पाल साम्राज्य कि पश्चिमी सीमा, दक्षिण-पूर्व में बुन्देलखण्ड और वत्स की सीमा, दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र, तथा पश्चिम में राजस्थान के अधिकांश भाग में फैला हुआ था। इसी समय पालवंश का शासक देवपाल भी बड़ा यशस्वी था। अतः दोनो के बीच में कई घमासान युद्ध हुए। अन्त में इस पाल-प्रतिहार संघर्स में भोज कि विजय हुई।
दक्षिण की ओर मिहिरभोज के समय अमोघवर्ष और कृष्ण द्वितीय राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे। अतः इस दौर में गुर्जर प्रतिहार-राष्ट्रकूट के बीच शान्ति ही रही, हालांकि वारतो संग्रहालय के एक खण्डित लेख से ज्ञात होता है कि अवन्ति पर अधिकार के लिये भोज और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय (878-911 ई०) के बीच नर्मदा नदी के पास युद्ध हुआ था। जिसमें राष्ट्रकुटों को वापस लौटना पड़ा था।[18] अवन्ति पर गुर्जर प्रतिहारों का शासन भोज के कार्यकाल से महेन्द्रपाल द्वितीय के शासनकाल तक चलता रहा। मिहिर भोज के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम ई॰) नया राजा बना, इस दौर में साम्राज्य विस्तार तो रुक गया लेकिन उसके सभी क्षेत्र अधिकार में ही रहे। इस दौर में कला और साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। महेन्द्रपाल ने राजशेखर को अपना राजकवि नियुक्त किया था। इसी दौरान "कर्पूरमंजरी" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया। गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य अब अपने उच्च शिखर को प्राप्त हो चुका था।

पतन

महेन्द्रपाल की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी का युद्ध हुआ, और राष्ट्रकुटों कि मदद से महिपाल का सौतेला भाई भोज द्वितीय (910-912) कन्नौज पर अधिकार कर लिया हलांकि यह अल्पकाल के लिये था, राष्ट्रकुटों के जाते ही महिपाल प्रथम (९१२-९४४ ई॰) ने भोज द्वितीय के शासन को उखाड़ फेंका। गुर्जर-प्रतिहारों की अस्थायी कमजोरी का फायदा उठा, साम्राज्य के कई सामंतवादियों विशेषकर मालवा के परमारबुंदेलखंड के चन्देलमहाकोशल का कलचुरिहरियाणा के तोमर और चौहान स्वतंत्र होने लगे। राष्ट्रकूट वंश के दक्षिणी भारतीय सम्राट इंद्र तृतीय (९९९-९२८ ई॰) ने ९१२ ई० में कन्नौज पर कब्जा कर लिया। यद्यपि गुर्जर प्रतिहारों ने शहर को पुनः प्राप्त कर लिया था, लेकिन उनकी स्थिति 10वीं सदी में कमजोर ही रही, पश्चिम से तुर्को के हमलों, दक्षिण से राष्ट्रकूट वंश के हमलें और पूर्व में पाल साम्राज्य की प्रगति इनके मुख्य कारण थे। गुर्जर-प्रतिहार राजस्थान का नियंत्रण अपने सामंतों के हाथ खो दिया और चंदेलो ने ९५० ई॰ के आसपास मध्य भारत के ग्वालियर के सामरिक किले पर कब्जा कर लिया। १०वीं शताब्दी के अंत तक, गुर्जर-प्रतिहार कन्नौज पर केन्द्रित एक छोटे से राज्य में सिमट कर रह गया। कन्नौज के अंतिम गुर्जर-प्रतिहार शासक यशपाल के १०३६ ई. में निधन के साथ ही इस साम्राज्य का अन्त हो गया।

शासन प्रबन्ध

शासन का प्रमुख राजा होता था। गुर्जर प्रतिहार राजा असीमित शक्ति के स्वामी थे। वे सामन्तों, प्रान्तीय प्रमुखो और न्यायधीशों कि नियुक्ति करते थे। चुकि राजा सामन्तो की सेना पर निर्भर होता था, अत: राजा कि मनमानी पर सामन्त रोक लगा सकते थे। युद्ध के समय सामन्त सैनिक सहायता देते थे और स्वयं सम्राट के साथ लड़ने जाते थे।
प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायता मंत्रिपरिषद करता था, जिसके दो अंग थे "बहिर उपस्थान" और "आभयन्तर उपस्थान"। बहिर उपस्थान में मंत्री, सेनानायक, महाप्रतिहार, महासामन्त, महापुरोहित, महाकवि, ज्योतिषी और सभी प्रमुख व्यक्ति सम्मलित रहते थे, जबकि आभयन्तरीय उपस्थान में राजा के चुने हुए विश्वासपात्र व्यक्ति ही सम्मिलित होते थे। मुख्यमंत्री को "महामंत्री" या "प्रधानमात्य" कहा जाता था।

प्रान्तीय शासन

गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य अनेक भागों में विभक्त था। ये भाग सामन्तों द्वारा शासित किये जाते थे। इनमें से मुख्य भागों के नाम थे:
  1. शाकम्भरी (सांभर) के चाहमान (चौहान)
  2. दिल्ली के तौमर
  3. मंडोर के गुर्जर प्रतिहार
  4. बुन्देलखण्ड के कलचुरि
  5. मालवा के परमार
  6. मेदपाट (मेवाड़) के गुहिल
  7. महोवा-कालिजंर के चन्देल
  8. सौराष्ट्र के चालुक्य
शेष उत्तरी भारत केन्द्रीय राजधानी कन्नौज से सीधे प्रशासित होता था। "मण्डल" जिला के बराबर होता था, अभिलेखों में कालिजंर, श्रीवस्ती, सौराष्ट्र तथा कौशाम्बी मण्डल के प्रमुख स्थान थे। "विषय" आधुनिक तहसील के बराबर थे, विषय से छोटे ग्रामों के समुह आते थे, जिसमें 84 ग्रामों के समुह को "चतुरशितिका" और 12 ग्रामों को "द्वादशक" कहते थे। दुर्गो कि व्यवस्था के 'कोट्टपाल' या बलाधिकृत' करते थे। व्यापार संबन्धी कर व्यवस्था मोर्यकालिन प्रतित होती है।

शिक्षा तथा साहित्य

शिक्षा

शिक्षा का प्रारंभ उपनयन संस्कार से होता था। उपनयन के पश्चात बालक को गुरुकुल भेजा जाता था। ब्राम्हण बालक को चौदह विद्याओं के साथ कर्मकाण्ड का अध्ययन कराया जाता था। क्षत्रिय बालक को बहत्तर कलाएं सिखाई जाती थी। किन्तु उसे अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुणता प्राप्त करना आपश्यक होता था। विद्यार्थी को गुरुकुल में ही रह कर विद्या अध्ययन करना होता था। यहाँ आवास और भोजन की व्यवस्था नि:शुल्क थी। अधिकांश अध्ययन मौखिक होता था।
बडी-बडी सभाओं में प्रश्नोत्तरों और शास्त्रार्थ के द्वारा विद्वानों कि योग्यता कि पहचान की जाती थी। विजेता को राजा की ओर से जयपत्र प्रदान किया जाता था, और जुलुस निकाल कर उसका सम्मान किया जाता था। इसके अलवा विद्वान गोष्ठियों में एकत्र हो कर साहित्यक चर्चा करते थे। पुर्व मध्यकाल में कान्यकुब्ज (कन्नौज) विद्या का सबसे बड़ा केन्द्र था। राजशेखर ने कन्नौज में कई गोष्ठियों का वर्णन किया है। राजशेखर ने "ब्रम्ह सभा" की भी चर्चा की हैं। ऐसी सभा उज्जैन और पाटलिपुत्र में हुआ करती थी। इस प्रकार की सभाएं कवियों कि परीक्षा के लिये उपयोगी होती थी। परीक्षा में उत्तीर्ण कवि को रथ और रेशमी वस्त्र से सम्मानित किया जाता था। उपर्युक्त वर्णन से प्रमाणित होता है कि सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भी उत्तर भारत से विद्या का का वातावरण समाप्त नहीं हुआ था। गुर्जर प्रतिहार शासक स्वयं विद्वान थे और वे विद्वानों को राज्याश्रय भी प्रदान करते थे।[19]

साहित्य

साहित्य के क्षेत्र में भिल्लमाल (भीनमाल) एक बड़ा केन्द्र था। यहाँ कई महान साहित्यकार हुए। इनमें "शिशुपालवध" के रचयिता माघ का नाम सर्वप्रथम है। माघ के वंश में सौ वर्षो तक कविता होती रही और संस्कृत और प्राकृत में कई ग्रंथ रचे गये। विद्वानो ने उसकी तुलना कालिदासभारवि, तथा दण्डित से की है। माघ के ही समकालिन जैन कवि हरिभद्र सूरि हुए। उनका रचित ग्रंथ "धुर्तापाख्यान", हिन्दू धर्म का बड़ा आलोचक था। इनका सबसे प्रशिध्द प्राकृत ग्रंथ "समराइच्चकहा" है। हरिभद्र के शिष्य उद्योतन सूरि ने ७७८ ई० में जालोन में "कुवलयमाला" की रचना की।
भोज प्रथम के दरबार में भट्ट धनेक का पुत्र वालादित्य रहता था। जिसने ग्वालियर प्रशस्ति जैसे प्रशिध्द ग्रंथ की रचना की थी। इस काल के कवियों में राजशेखर कि प्रशिध्दि सबसे अधिक थी। उसकी अनेक कृतियाँ आज भी उपलब्ध है। कवि और नाटककार राजशेखर सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम का गुरु था। राजशेखर बालकवि से कवि और फिर कवि से राजकवि के पद से प्रतिष्ठित हुआ। इसी दौरान "कर्पूरमंजरी" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया।
इससे पता चलता है कि प्रतिहार काल में संस्कृतप्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं में साहित्य कि रचना हुई। किन्तु प्राकृत दिनो-दिन कम होती गई और उसकी जगह अपभ्रंश लेती रही। ब्राम्हणों की तुलना में जैनों द्वार रचित साहित्यों कि अधिकता हैं। जिसका कारण जैन ग्रंथों का भण्डार में सुरक्षित बच जाना जबकि ब्राम्हण ग्रंथो का नष्ट हो जाना हो सकता है।

धर्म और दर्शन

काशीपुर से प्राप्त ११वीं शताब्दी की प्रतिहार कालीन विष्णु त्रिविक्रमा के पत्थर की मूर्ति, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में रखी गईं।काशीपुर से प्राप्त ११वीं शताब्दी की प्रतिहार कालीन विष्णु त्रिविक्रमा के पत्थर की मूर्ति, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में रखी गईं।
काशीपुर से प्राप्त ११वीं शताब्दी की प्रतिहार कालीन विष्णु त्रिविक्रमा के पत्थर की मूर्ति,राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में रखी गईं।
तेली का मंदिर, ८-९वीं शताब्दी में प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज द्वारा निर्मित एक हिंदू मंदिर है।[20]
भारतीय संस्कृति धर्ममय है, और इस प्रकार गुर्जर प्रतिहारों का धर्ममय होना कोई नई बात नहीं है। पूरे समाज में हिन्दू धर्म के ही कई मान्यताओं के मानने वाले थे लेकिन सभी में एक सहुष्णता की भावना मौजुद थी। समाज में वैष्णव और शैव दोनों मत के लोग थे। गुर्जर प्रतिहार राजवंश में प्रत्येक राजा अपने ईष्टदेव बदलते रहते थे। भोज प्रथम के भगवती के उपासक होते हुए भी उन्होंने विष्णु का मंदिर बनवाया था। और महेन्द्रपाल के शैव मतानुयायी होते हुए भी वट-दक्षिणी देवी के लियी दान दिया था
गुर्जर प्रतिहार काल का मुख्य धर्म पौराणिक हिन्दू धर्म था, जिसमें कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म का सिद्धान्त का गहारा असर था। विष्णु के अवतारों कि पुजा की जाती थी। और उनके कई मन्दिर बनवाये गये थे। कन्नौज में चतुर्भुज विष्णु और विराट विष्णु के अत्यन्त सुंदर प्रतिमाएं प्रतिष्ठित थी। कन्नौज के सम्राट वत्सराज, महेन्द्रपाल द्वतीय, और त्रिलोचनपाल शिव के उपासक थे। उज्जैन में महाकाल का प्रशिद्ध मंदिर था। बुन्देलखंड़ में अनेक शिव मन्दिर बनवाये गये थे।
साहित्य और अभिलेखों से धर्म की काफी लोकप्रियता जान पडती है। ग्रहणश्राद्ध, जातकर्म, नामकरणसंक्रान्तिअक्षय तृतीया, इत्यादि अवसरों पर लोगगंगायमुना अथवा संगम (प्रयाग) पर स्नान कर दान देते थे। धर्माथ हेतु दिये गये भुमि या गांव पर कोई कर नहीं लगाया जाता था।
पवित्र स्थलों में तीर्थयात्रा करना सामान्य था। तत्कालिन सहित्यों में दस प्रमुख तीर्थों का वर्णन मिलता है। जिसमें गयावाराणसीहरिद्वारपुष्कर, प्रभास, नैमिषक्षेत्र केदार, कुरुक्षेत्रउज्जयिनी तथा प्रयाग आदि थे। नदियों को प्राकृतिक या दैवतीर्थ होने के कारण अत्यन्त पवित्र माना जाता था। सभी नदियों में गंगाको सबसे अधिक पवित्र मान जाता था।

बौद्ध धर्म

गुर्जर प्रतीहारकालिन उत्तरभारत में बौद्धधर्म का प्रभाव समाप्त था। पश्चिम कि ओर सिन्ध प्रदेश में और पूर्व में दिशा में बिहार और बंगाल में स्थिति संतोषजनक थी। जिसका मुख्य कारण था, गुप्तकाल के दौरान ब्राम्हण मतावलम्बियों ने बौद्धधर्म के अधिकांश सिद्धान्त अपना कर बुद्ध को भगवान विष्णु काअवतार मान लिया था।

जैन धर्म

बौद्ध धर्म कि तुलना में जैन धर्म ज्यादा सक्रिय था। मध्यदेश, अनेक जैन आचार्यों का कार्यस्थल रहा था। वप्पभट्ट सुरि को नागभट्ट द्वितीय का अध्यात्मिक गुरु माना गया है। फिर भी यह यहाँ जेजाकभुक्ति (बुन्देलखंड़) और ग्वालियर क्षेत्र तक में ही सिमित रह गया था। लेकिन पश्चिमी भारत के राजस्थान, गुजरात, मालवा और सौराष्ट्र जैनधर्म के विख्यात केन्द्र थे, जिसका श्रेय हरिभद्र सूरि जैसे जैन साधुओं को जाता है। हरिभद्र ने विद्वानों और सामान्यजन के लिये अनेक ग्रन्थों कि रचना की। गुर्जर राजाओं ने जैनों के साथ उदारता का व्यवहार किया। नागभट्ट द्वितीय ने ग्वालियर में जैन मन्दिर भी बनवाया था।

प्रतिहारकालीन स्थापत्यकला

गुर्जर-प्रतिहार कला के अवशेष हरियाणा और मध्यभारत के एक विशाल क्षेत्र में देखे जा सकते हैं। इस युग में प्रतीहारों द्वारा निर्मित मंदिर स्थापत्य और कला की सबसे बड़ी विशेषता इसकी अलंकरण शैली है। इसी दौरान राजस्थानी स्थापत्य शैली का जन्म हुआ। जिसमें सज्जा और निर्माण शैली का पुर्ण समन्वय देखने को मिलता है। अपने पुर्ण विकसित रूप में प्रतिहार मन्दिरों में मुखमण्ड़प, अन्तराल, और गर्भग्रह के अतरिक्त अत्यधिक अल्ंकृत अधिष्ठान, जंघा और शिखर होते थे। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में बटेश्वर हिन्दू मंदिर इसी साम्राज्य काल के दौरान बनाया गया था।[21] कालान्तर में स्थापत्यकला की इस विधा को चन्देलों, परमारों, कच्छपघातों, तथा अन्य क्षेत्रीय राजवंशों ने अपनाया। लेकिन चन्देलों ने इस शैली को पूर्णता प्रदान की, जिसमें खजुराहो स्मारक समूह प्रशिद्ध है।[22]

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