राजस्थानी संस्कृति परम्परा एवं विरासत
राजस्थानी संस्कृति हिंदी में Culture of Rajasthan राजस्थानी संस्कृति एक बहती नीरा है, जो गाँव गाँव ढानी, चौपाल, पनघट, महल, झौपड़ी, किले, गढ़ी खेत खलिहान में बहती हुई जन जन रुपी सागर के संस्पर्श से इंद्रधनुषीयछटा बिखेरती हैं. और अपनी महक के साथ पर्व, मेले, तीज त्योहार, नाट्य, नृत्य, श्रृंगार पहनावा, रीती रिवाज, आचार व्यवहार आदि में प्रतिबिम्बित होती हैं.
राजस्थान के दुर्गों की सूची
राजस्थान एक प्राचीन धरोहर है यहाँ अनेक राजाओं ने लंबे समय तक शासन किया। इस दौरान अपने शासन काल में उन्होंने अपनी तथा अपनी प्रजा की सुरक्षा हेतु दुर्गों अर्थात् किलों का निर्माण करवाया।
सूची
क्र॰सं॰ | दुर्ग का नाम | जिला | ने बनवाया | तिथि |
---|---|---|---|---|
(1) | अचलगढ | सिरोही | परमार शासक | ९०० ई |
(2) | अहिछत्रगढ़ किला | नागौर | अज्ञात | चौथी शताब्दी |
(3) | आमेर दुर्ग | जयपुर | राजा मान सिंह-प्रथम | १५९२ - १७२७ |
(4) | कुचामन का किला | नागौर | अज्ञात | अज्ञात |
(5) | कुम्भलगढ़ दुर्ग | उदयपुर | महाराणा कुम्भा | १४४३ |
(6) | खिमसर का किला | नागौर | ठाकुर करम सिंह | सोलहवीं शताब्दी |
(7) | चित्तौड़गढ़ का दुर्ग | उदयपुर | चित्रांग मौर्य | सातवीं शताब्दी |
(8) | जूनागढ़ बीकानेर | बीकानेर | राव बीका | १५८६ |
(9) | मेहरानगढ़ | जोधपुर | राव जोधा | (१६३८-७८) |
(10) | रणथंभोर दुर्ग | सवाई माधोपुर | चौहान राजा रणथंबन | 944 ई. |
(11) | जालौर दुर्ग | जालौर | परमार राजा | अज्ञात |
(12) | जयगढ़ दुर्ग | जयपुर | सवाई जयसिंह | १७२६ |
(13) | नीमराना | अलवर | चौहान शासक | 14वीं शताब्दी |
राजस्थान के महलों की सूची
जयपुर ज़िला
- अलसिसार हवेली जयपुर। यह पहले शेखावत ठाकुरों का महल था , वर्तमान में यह एक होटल है।
- अम्बर महल पहले यह जयपुर का एक राजकीय निवास स्थल था।
- समोद महल जयपुर ,पूर्व में राजकीय स्थल था वर्तमान में एक होटल है।
- सिटी पैलेस जयपुर पहले महाराज का निवास स्थल था ,अब संग्रहालय है।
- रामबाग महल ,जयपुर पहले महल था अब होटल है।
- जय मन्दिर , जयपुर , पहले महल था अब होटल है।
- जल महल जयपुर
- हवा महल जयपुर पूर्व में राजकीय स्थल अब संग्रहालय
- नाहरगढ़ दुर्ग
- नारायण निवास महल, जयपुर , अब होटल है।
- राज महल, जयपुर , पहले महल था अब होटल के रूप में है।
उदयपुर ज़िला
- फतह प्रकाश महल
- फोर्ट देलवाडा , पहले महल था अब होटल है।
- सिटी पैलेस, उदयपुर , अभी संग्रहालय है।
- लेक पैलेस उदयपुर पहले राजघराने से सम्बंधित था अब एक होटल है।
- जग मन्दिर उदयपुर
- शिव निवास पैलेस ,उदयपुर - पहले राजकीय मेहमान कक्ष था अब होटल है।
- फुल महल ,उदयपुर
- गोलमहल ,उदयपुर
बीकानेर
- भँवर निवास बीकानेर - प्राचीन हवेली वर्तमान में एक होटल।
- जूनागढ़ दुर्ग और महल - पहले महाराणा की सीट अब एक संग्रहालय है।
- गजनेर महल
- लक्ष्मी निवास पैलेस
जोधपुर ज़िला
- उम्मैद भवन पैलेस ,जोधपुर - महाराजा की सीट थी , अब बदलकर होटल रख दिया है।
- मेहरानगढ़ दुर्ग - एक प्राचीन दुर्ग है।
- बालसमंद झील महल जोधपुर का एक प्रसिद्ध पिकनिक की जगह है जिसका निर्माण बालक राव ने लगभग ११५९ में करवाया था।
अन्य ज़िले
- केसल मांडवा ,झुंझुनू
- भीण्डरगढ़, चित्तौड़गढ़
- बंसी गढ़, चित्तौड़गढ़
- देवगढ़ महल
- देवीगढ़ ,देलवाड़ा ,भरतपुर
- गोरबंध पैलेस. जैसलमेर.
- खींवसर दुर्ग ,नागौर
- कुचामन दुर्ग ,नागौर
- जैसलमेर दुर्ग ,जैसलमेर
- लालगढ़ पैलेस ,बीकानेर
- लक्ष्मणगढ़ दुर्ग ,सीकर
- लक्ष्मी विलास पैलेस ,भरतपुर
- मुंदोता दुर्ग
तथा जिसे रेत के धोरों के साथ साथ वायुमंडल, वसुंधरा तथा रोम रोम में उल्लसित एवं तरंगित अनुभूत किया जा सकता हैं.राजस्थानी संस्कृति समष्टिगत, समन्वयात्मक एवं प्राचीन हैं. भौगोलिक विविधता एवं प्राकृतिक वैभव ने इसे और आकर्षक बनाया हैं. वस्तुतः राजस्थानी संस्कृति लोक जीवन को प्रतिनिधित्व करने वाली संस्कृति हैं.

राजस्थानी संस्कृति परम्परा एवं विरासत
पधारों म्हारे देश के निमंत्रण की संवाहक राजस्थानी संस्कृति सांसकृतिक पर्यटन की पर्याय हैं. तैतीस जिलों को अपने आंचल में समेटे राजस्थान की धरती सांस्कृतिक परम्पराओं का अनूठा मिश्रण प्रस्तुत करती हैं. राजस्थान की सांस्कृतिक परम्पराएं विरासत से जुड़े स्थल, प्रकृति एवं वन्यजीव की विविधता तथा दैदीप्यमान इतिहास पर्यटक के खुला आमंत्रण हैं. सम्रद्ध लोक संस्कृति के परिचायक तीज त्योहार उमंग के प्रतीक मेले, आस्था और विश्वास के प्रतीक लोक देवता, फाल्गुन की मस्ती में नृत्य करती आकर्षक परिधान से युक्त महिलाएं पर्यटकों को चमत्कृत करने के लिए पर्याप्त हैं.
धरती धोरा री की झिलमिलाती रेत एवं गूंजता सुरीला लोक संगीत पर्यटक को अभिभूत करने वाला होता हैं. राजस्थान की संस्कृति एवं परम्परा की मुख्य बात यह है कि राजस्थान के जनमानस की विशालता ने जिस प्रकार सभी मान्यताओं और आस्थाओं को फलने फूलने दिया, उसी प्रकार उनके अनुयायियों के साथ भ्रात भाव रखा. अजमेर के ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह विश्वभर के श्रद्धालुओं का आस्था एवं विश्वास का केंद्र हैं.
राजस्थानी संस्कृति
राजस्थान में मुश्किल से कोई महीना ऐसा जाता होगा, जिसमें धार्मिक उत्सव न हो। सबसे उल्लेखनीय व विशिष्ट उत्सव गणगौर है, जिसमें महादेव व पार्वती की मिट्टी की मूर्तियों की पूजा 15 दिन तक सभी जातियों की स्त्रियों के द्वारा की जाती है, और बाद में उन्हें जल में विसर्जित कर दिया जाता है। विसर्जन की शोभायात्रा में पुरोहित व अधिकारी भी शामिल होते हैं व बाजे-गाजे के साथ शोभायात्रा निकलती है। हिन्दू और मुसलमान, दोनों एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल होते हैं। इन अवसरों पर उत्साह व उल्लास का बोलबाला रहता है। एक अन्य प्रमुख उत्सव अजमेर के निकट पुष्कर में होता है, जो धार्मिक उत्सव व पशु मेले का मिश्रित स्वरूप है। यहाँ राज्य भर से किसान अपने ऊँट व गाय-भैंस आदि लेकर आते हैं, एवं तीर्थयात्री मुक्ति की खोज में आते हैं। अजमेर स्थित सूफ़ी अध्यात्मवादी ख़्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह भारत की मुसलमानों की पवित्रतम दरगाहों में से एक है। उर्स के अवसर पर प्रत्येक वर्ष लगभग तीन लाख श्रद्धालु देश-विदेश से दरगाह पर आते हैं।
नृत्य-नाटिका
राजस्थान का विशिष्ट नृत्य घूमर है, जिसे उत्सवों के अवसर पर केवल महिलाओं द्वारा किया जाता है। घेर नृत्य (महिलाओं और पुरुषों द्वारा किया जाने वाला, पनिहारी (महिलाओं का लालित्यपूर्ण नृत्य), व कच्ची घोड़ी (जिसमें पुरुष नर्तक बनावटी घोड़ी पर बैठे होते हैं) भी लोकप्रिय है। सबसे प्रसिद्ध गीत ‘कुर्जा’ है, जिसमें एक स्त्री की कहानी है, जो अपने पति को कुर्जा पक्षी के माध्यम से संदेश भेजना चाहती है व उसकी इस सेवा के बदले उसे बेशक़ीमती पुरस्कार का वायदा करती है। राजस्थान ने भारतीय कला में अपना योगदान दिया है और यहाँ साहित्यिक परम्परा मौजूद है। विशेषकर भाट कविता की। चंदबरदाई का काव्य पृथ्वीराज रासो या चंद रासा, विशेष उल्लेखनीय है, जिसकी प्रारम्भिक हस्तलिपि 12वीं शताब्दी की है। मनोरंजन का लोकप्रिय माध्यम ख़्याल है, जो एक नृत्य-नाटिका है और जिसके काव्य की विषय-वस्तु उत्सव, इतिहास या प्रणय प्रसंगों पर आधारित रहती है। राजस्थान में प्राचीन दुर्लभ वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में हैं, जिनमें बौद्ध शिलालेख, जैन मन्दिर, क़िले, शानदार रियासती महल और मस्जिद व गुम्बद शामिल हैं।
त्योहार
राजस्थान मेलों और उत्सवों की धरती है। यहाँ एक कहावत प्रसिद्ध हैं. सात वार नौ त्योहार. यहाँ के मेले और पर्व राज्य की संस्कृति के परिचायक हैं. यहाँ लगने वाले पशु मेले व्यक्ति और पशुओं के बीच की आपसी निर्भरता को दिखाते हैं. राज्य के बड़े मेलों में पुष्कर का कार्तिक मेला, परबतसर और नागौर के तेजाजी का मेला को गिना जाता हैं. यहाँ तीज का पर्व सबसे बड़ा माना गया है श्रावण माह के इसी पर्व के साथ त्योहारों की श्रंखला आरम्भ होती हैं जो गणगौर तक चलती हैं. इस सम्बन्ध में कथन है कि तीज त्योहारा बावरी ले डूबी गणगौर.
- होली, दीपावली, विजयदशमी, क्रिसमस जैसे प्रमख राष्ट्रीय त्योहारों के अलावा अनेक देवी-देवताओं, संतो और लोकनायकों तथा नायिकाओं के जन्मदिन मनाए जाते हैं।
- यहाँ के महत्त्वपूर्ण मेले हैं तीज, गणगौर(जयपुर), अजमेर शरीफ़ और गलियाकोट के वार्षिक उर्स, बेनेश्वर (डूंगरपुर) का जनजातीय कुंभ, श्री महावीर जी (सवाई माधोपुर मेला), रामदेउरा (जैसलमेर), जंभेश्वर जी मेला(मुकाम-बीकानेर), कार्तिक पूर्णिमा और पशु-मेला (पुष्कर-अजमेर) और श्याम जी मेला (सीकर) आदि।
टूरिज्म फेस्टिवल
राजस्थान को फेस्टिवल टूरिज्म का प्रमुख केंद्र कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पुष्कर मेला देश के सबसे बड़े आकर्षणों में से है। हर साल लाखों श्रद्धालु पुष्कर आकर पवित्र झील में डूबकी लगाते हैं। यहां दुनिया का सबसे बड़ा ऊंटों का मेला भी लगता है जिसमें 50,000 ऊँट हिस्सा लेते हैं। जनवरी, 2010 में इस मेले ने बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटकों को आकर्षित किया। इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में हर 12 साल पर कुंभ होता है जबकि हर छह साल में अर्द्धकुंभ का आयोजन हरिद्वार और प्रयाग में होता है। इनमें विदेशी पर्यटक भारी तादाद में आते हैं।
राजस्थान की संस्कृति का इतिहास व परिचय
जिसमें न धर्म की पाबंदी है न जाति की, न देश की न, सम्प्रदाय की. हिन्दू मुसलमान, सिक्ख एवं अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा दरगाह पर अकीदत फूल चढ़ाते हैं, मनौतियाँ मानते हैं. सूफीमत के संदेशवाहक ख्वाजा साहब के दरबार की दरबार के प्रखर कव्वाल और गायक थे. शंकर शम्भु कव्वाल. आज अजमेर सूफी मत का अंतर्राष्ट्रीय प्रमुख तीर्थ हैं. पश्चिमी राजस्थान के बाड़मेर जिले के नाकौड़ा भैरव जैनियों के पूजनीय है ही परन्तु सनातनियों के मान्य भी हैं.
मेवाड़ के केसरियाजी जैनियों के मान्य है और सनातनियों के भी हैं. यही स्थिति उन लोक देवताओं की हैं. जिन्होंने वहां के सुदूर अंचलों में स्थित आदिवासियों, जनजातियों एवं किसानों को सदियों से आस्था के सूत्र में बांधे रखा. रुणिचा में चिर समाधि में लीन रामदेव, जिस प्रकार हिन्दुओं के रामदे है उसी प्रकार मुसलमानों के भी रामसा पीर हैं. आज भी बाबा रामदेव उत्तर भारत के प्रमुख पूजनीय देवताओं में से एक हैं.
राजस्थान के लोकदेवता
रामदेव जी
- राजस्थान में रामदेवजी को बहुत अधिक पूजा जाता है। गरीबों के रखवाले रामदेव जी का अवतार ही भक्तों के संकट हरने के लिए ही हुआ था। राजस्थान में रामदेवरा नामक स्थान है। जहाँ प्रतिवर्ष रामदेव जंयती पर विशाल मेला लगता है। दूर-दूर से भक्त इस दिन रामदेवरा पहुँचते है। कई लोग तो नंगे पैर चलकर रामदेवरा जाते है। रुणिचा, जैसलमेर माता मैणादे पिता अजमालजी थे इनका जन्म 1405 में हुआ
गुरु जम्भेश्वर
गुरु जम्भेश्वर[1] - जांभोजी का जन्म नागौर जिले के पीपासर ग्राम में विक्रम सम्वत १५०८ में हुआ था।[2] इनकी माता जी का नाम हंसा एवं पिताजी का नाम श्री लोहट जी पंवार था जांभोजी ने वन, पर्यावरण एवं वन्य जीव संरक्षण के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य किया श्री गुरु जंभेश्वर जी ने विश्व प्रसिद्ध बिश्नोई धर्म का प्रवर्तन किया इन्होंने अपनी जिंदगी के 27 वर्षों तक गाय चराई तथा 51 वर्ष तक धर्म उपदेश दिया इन्होंने काफी समय समराथल धोरे पर व्यतीत किया वर्तमान में इन के अनुयाई राजस्थान पंजाब हरियाणा मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों में निवास करते हैं बदलते आधुनिक परिवेश में इन के अनुयाई अब विदेशों में भी रहने लगे हैं विश्नोई समाज के लोगों को वन्यजीवों एवं वृक्षों पेड़ों जंगलों से बहुत प्यार हैं 1730 में जोधपुर के खेजड़ली नामक गांव में 363 स्त्री पुरुषों ने अमृता देवी बिश्नोई के नेतृत्व में वृक्षों की रक्षा हेतु बलिदान दिया था वर्ष पर्यंत बिश्नोई समाज राजस्थान के भिन्न-भिन्न स्थानों पर मेलों का आयोजन करता है जिसमें समाज के स्त्री-पुरुष मेलों में शिरकत करने आते हैं विश्व का एकमात्र वृक्ष मेला भी भाद्रपद सुदी दशमी को खेजड़ली गांव में आयोजित होता है
गोगाजी
- एकता व सांप्रदायिक सद़भावना का प्रतीक धार्मिक पर्व गोगामेडी (राजस्थान) में गोगाजी की समाधि स्थल पर मेला लाखों भक्तों के आकर्षण का केंद्र है। गोगामेडी ,हनुमानगढ
जीणमाता
ार्ग पर सीकर से 11 कि॰मी॰ दूर गोरिया से जीण माता मंदिर केलिए मार्ग है। सीकर जीण माता की अष्टभुजी प्रतिमा है इस कि जयंती प्रतिवर्ष चैत्र ओर आश्विन के नवरात्रों में मेला भरता है यह चौहानों की कुलदेवी है जिन घांघू गांव बसाने वाले गंघराय की पुत्री ओर हर्ष की बहिन थी
शाकम्भरी माता
सांभर चौहानो की इष्ट देवी
सीमल माता
बसंतगढ़, सिरोही
हर्षनाथ जी
सीकर
केसरिया जी
धुवेल (उदयपुर)
मल्लीनाथ जी
तिलवाडा , बाडमेर
शिला देवी
आमेर
कैला देवी
करौली
ज्वाला देवी
जोबनेर
कल्ला देवी
सिवाना
तेजा जी
जन्म-खड़नाल नागौर इनकी मृत्यू सर्प दंश से सुरसुरा (अजमेर) नामक स्थान पर हुई। परबतसर (नागौर) में भाद्रपद शुक्ल दशमी को इनका मेला लगता है।[3]
पाबू जी
जन्म- कोलूमण्ड फलोदी जोधपुर
पिता का नाम- धाधल जी
माता का नाम -कमला दे
पत्नी का नाम- सुप्यार दे/फूलन दे
घोड़ी का नाम- केसर कालमी
पाबू जी का मेला - कोलुमण्ड में चैत्र अमावस्या को
★ऊँटो के देवता
★फ्लेग रक्षक देवता
★लक्ष्मण का अवतार
★राइका/रेबारी जाति के आराध्य देव
★देवली चारण की गायों को बचाने के लिए जीन्दराव खिंची से यूुद्ध किया
खैरतलजी
अलवर
करणी माता
[राजस्थान की लोकदेवियां देशनोक (बीकानेर) चूहो की देवी]
राजेश्वरी माता
पाबूजी राठौड़ की गोरक्षा हेतु प्राणहुती सम्बन्धी लोक गाथा लाखों को भाव विभोर करती हैं. लोक गायकों के द्वारा पाबूजी की फड़ को गेय में बांचने की प्रथा मध्यकाल से चली आ रही हैं. राजस्थान के मध्यकालीन संतों एवं उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित मठों, रामद्वारों, मेलों, समागमों तथा यात्राओं के माध्यम से सांस्कृतिक एवं भावनात्मक एकता के यशस्वी प्रयास का सूत्रपात हुआ.
संतों की मानव कल्याण की कामना तथा प्रेमाभक्ति के सिद्धांतों ने यहाँ के समाज में भावनात्मक एकता के आयाम के नए पटल खोले हैं. मन मिलाने का जो प्रयास संतों द्वारा जिस सहजता से किया गया वह स्तुत्य है और यहाँ की संस्कृति की पहचान हैं. राजस्थानी लोग अपनी संस्कृति और परम्परा पर गर्व करते हैं. उनका दृष्टिकोण परम्परागत हैं. यहाँ साल भर मेलों एवं पर्व त्योहारों का ताँता लगा रहता हैं.
यहाँ एक कहावत प्रसिद्ध हैं. सात वार नौ त्योहार. राजस्थान के मेले और पर्व त्योहार रंगारंग एवं दर्शनीय होते हैं. ये पर्व त्योहार लोगों के जीवन उनकी खुशियाँ और उमंग के परिचायक हैं. प्रायः इन मेलों और त्योहारों के मूल में धर्म होता है, लेकिन इनमें से कई मेले और त्योहार अपने सामाजिक और आर्थिक महत्व के परिचायक हैं. मनुष्य और पशुओं की अंतनिर्भरता को दर्शाने वाले पशुमेले राजस्थान की पहचान हैं.
पुष्कर का कार्तिक मेला, परबतसर और नागौर के तेजाजी का मेला, जो मूलतः धार्मिक हैं. राज्य के बड़े पशु मेले माने गये हैं. राजस्थान में तीज को त्योहारों में पहला स्थान दिया गया हैं. राजस्थान में एक कहावत प्रसिद्ध हैं. तीज त्योहारा बावरी ले डूबी गणगौर. इसका अर्थ है कि त्योहारों के चक्र की शुरुआत श्रावण महीने की तीज से होती हैं. तथा साल का अंत गणगौर के साथ होता हैं. गणगौर धार्मिक पर्व होने के साथ ही राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक हैं. तीज, गणगौर जैसे पर्व महिलाओं के महत्व को भी रेखांकित करते हैं.
राजस्थान का इतिहास हिंदी में
राजस्थान में पुरा संपदा का अटूट खजाना हैं. कहीं पर प्रागैतिहासिक शैलचित्रों की छटा है तो कहीं हड़प्पा संस्कृति के पूर्व के प्रबल प्रमाण एयर कहीं प्राचीनकाल में धातु के प्रयोग के साक्ष्य, कहीं गणेश्वर का ताम्र वैभव तो कहीं प्रस्तर प्रतिमाओं का इतिहास कहीं मरणमूर्तियों और म्रदभांडों से लेकर धातु प्रतिमानों तक का शिल्पशास्त्र बिखरे पड़े हैं. उपासना स्थल, भव्य प्रासाद, अभेद्य दुर्ग एवं जीवंत स्मारकों का संगम आदि राजस्थान के कस्बों, शहरों एवं उजड़ी बस्तियों में देखने को मिलता हैं.
आमेर, जयपुर, जोधपुर, बूंदी, उदयपुर, शेखावटी के मनोहारी विशाल प्रासाद तथा रणकपुर, ओसियां, देलवाड़ा, झालरापाटन के उत्कृष्ट कलात्मक मंदिर और जैसलमेर की पटवों की हवेलियाँ इत्यादि ऐसे कुछ प्रतीक हैं, जिन पर राजस्थान कलाकारों के हस्ताक्षर हैं.
राजस्थान के ख्यातनाम दुर्गों में चित्तौड़, जैसलमेर, रणथम्भौर, गागरोन, जालौर, सिवाना तथा भटनेर का दुर्ग ऐतिहासिक दृष्टि से प्रसिद्ध रहे हैं. इनके साथ शूरवीरों के पराक्रम, वीरांगनाओं के जौहर की रोमांचक गाथाएं जुड़ी हुई हैं, जो भारतीय इतिहास की अनमोल धरोहर हैं. राजस्थान के जनमानस को ये दुर्ग और इनसे जुड़े आख्यान सदा से ही प्रेरणा देते आए हैं. वीरता एवं शौर्य के प्रतीक ये गढ़ और किले अपने अनूठे स्थापत्य, विशिष्ठ सरंचना, अद्भुत शिल्प एवं सौन्दर्य के कारण दर्शनीय हैं.
राजस्थान के दर्शनीय स्थल, चित्रकला व शैलियाँ
राजस्थान की चित्रशैलियाँ भी इसके वैभव का प्रमाण है. बूंदी, नाथद्वारा, किशनगढ़, उदयपुर, जोधपुर, जयपुर आदि राजस्थान की चित्रकला के रंगीन पृष्ट हैं. जिनमें श्रृंगारिकता के साथ साथ लौकिक जीवन की सशक्त अभिव्यक्ति हुई हैं. राजस्थानी शैली गुजराती एवं जैन शैली के तत्वों को अपने में समेटकर मुगल शैली में समन्वित हुई हैं.
राजस्थान के वीर तथा वीरांगनाओं ने जहाँ रणक्षेत्र में तलवारों का जौहर दिखाकर विश्व इतिहास में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित किया हैं, वहीँ भक्ति और आध्यात्मिक क्षेत्र क्षेत्र में भी राजस्थान पीछे नहीं रहा हैं. यहाँ मीरा एवं दादू भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत रहे हैं. भक्ति गीतों में जहाँ एक ओर लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिष्ठा मिली है वही व्यक्ति स्वातंत्र्य का स्वर फूटा और लोकपरक सांस्कृतिक चेतना उजागर हुई हैं.
राजस्थान के मेले व उत्सव पर्व
इस जनचेतना का परिपाक हमें राजस्थान के मेलों और त्योहारों में दिखाई देता हैं. यहाँ के मेलों और त्योहारों के आयोजन में सम्पूर्ण लोकजीवन पूरी सक्रियता के साथ शामिल होकर अपनी भावनात्मक आस्था का परिचय देता हैं. लोकनृत्य राजस्थानी संस्कृति के वाहक हैं. यहाँ के लोकनृत्यों में लय, ताल, गीत, सूर आदि का एक सुंदर और संतुलित सामजस्य देखने को मिलता हैं. गेर, चंग, गीदड़, घूमर, ढोल आदि नृत्य राजस्थान के जनजीवन की संजीवनी बूटियां हैं. इस बूटी की घूंटी को लेकर राजस्थान के जनजीवन और लोकमानस ने भूखा नंगा रहते हुए भी मस्ती और परिश्रम से जीना सीखा हैं.
यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि राजपूताने में अनेक वीर, विद्वान् एवं कुलाभिमानी राजा, सरदार आदि हुए. जिन्होंने अनेक युद्धों में अपनी आहुति देकर अपनी कीर्ति को अमर बना दिया. राजपूत जाति की वीरता विश्व प्रसिद्ध हैं. चित्तौड़, कुम्भलगढ़, मांडलगढ़, अचलगढ़, रणथम्भौर, गागरोन, भटनेर, बयाना, सिवाणा, मंडोर, जोधपुर, जालौर, आमेर आदि किलो तथा अनेक प्रसिद्ध रणक्षेत्रों में कई बड़े बड़े युद्ध हुए, जहाँ अनेक वीर राजपूतों ने वहां की मिट्टी का एक एक कण अपने रक्त से तर किया.