दुर्रानी साम्राज्य
दुर्रानी साम्राज्य د درانیانو واکمني | |||||
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सन् १७६१ में अपने चरम पर दुर्रानी साम्राज्य
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राजधानी | पहले: कंदहार बाद में: काबुल(ग्रीष्मकालीन), पेशावर(शीतकालीन) | ||||
भाषाएँ | पश्तो, दरी फ़ारसी,हिन्दुस्तानी | ||||
धर्म | सुन्नी इस्लाम | ||||
शासन | अमीरत | ||||
इतिहास | |||||
- | स्थापित | १७४७ | |||
- | अंत | १८२६ |
अहमद शाह अब्दाली
अहमद शाह अब्दाली, जिसे अहमद शाह दुर्रानी भी कहा जाता है, सन 1748 में नादिरशाह की मौत के बाद अफ़ग़ानिस्तान का शासक और दुर्रानी साम्राज्य का संस्थापक बना। उसने भारतपर सन 1748 से सन 1758 तक कई बार चढ़ाई की। उसने अपना सबसे बड़ा हमला सन 1757 में जनवरी माह में दिल्ली पर किया। अहमदशाह एक माह तक दिल्ली में ठहर कर लूटमार करता रहा। वहाँ की लूट में उसे करोड़ों की संपदा हाथ लगी थी।
अब्दाली द्वारा ब्रज की भीषण लूट
दिल्ली लूटने के बाद अब्दाली का लालच बढ़ गया। उसने दिल्ली से सटी जाटों की रियासतों को भी लूटने का मन बनाया। ब्रज पर अधिकार करने के लिए उसने जाटों और मराठों के विवाद की स्थिति का पूरी तरह से फ़ायदा उठाया। अहमदशाह अब्दाली पठानों की सेना के साथ दिल्ली से आगरा की ओर चला। अब्दाली की सेना की पहली मुठभेड़ जाटों के साथ बल्लभगढ़ में हुई। वहाँ जाट सरदार बालूसिंह और सूरजमल के ज्येष्ठ पुत्र जवाहर सिंह ने सेना की एक छोटी टुकड़ी लेकर अब्दाली की विशाल सेना को रोकने की कोशिश की। उन्होंने बड़ी वीरता से युद्ध किया पर उन्हें शत्रु सेना से पराजित होना पड़ा।
आक्रमणकारियों द्वारा लूट
आक्रमणकारियों ने बल्लभगढ़ और उसके आस-पास लूटा। उसके बाद अहमदशाह ने अपने दो सरदारों के नेतृत्व में 20 हज़ार पठान सैनिकों को मथुरा के लिए भेज दिया।
सेना का मथुरा की ओर कूच
अब्दाली का आदेश लेकर सेना मथुरा की तरफ चल दी। मथुरा से लगभग 8 मील पहले चौमुहाँ पर जाटों की छोटी सी सेना के साथ उनकी लड़ाई हुई। जाटों ने बहुत बहादुरी से युद्ध किया लेकिन दुश्मनों की संख्या अधिक थी, जिससे उनकी हार हुई।
सशस्त्र नागा साधु
सैनिकों के मथुरा−वृन्दावन में लूट और मार-काट करने के बाद अब्दाली भी अपनी सेना के साथ मथुरा आ पहुँचा। ब्रज क्षेत्र के तीसरे प्रमुख केन्द्र गोकुल पर उसकी नज़र थी। वह गोकुल को लूट-कर आगरा जाना चाहता था। उसने मथुरा से यमुना नदी पार कर महावन को लूटा और फिर वह गोकुल की ओर गया। वहाँ पर सशस्त्र नागा साधुओं के एक बड़े दल ने यवन सेना का जम कर सामना किया। उसी समय अब्दाली की फ़ौज में हैजा फैल गया, जिससे अफ़ग़ान सैनिक बड़ी संख्या में मरने लगे। इस वजह से अब्दाली वापिस लौट गया। इस प्रकार नागाओं की वीरता और दैवी मदद से गोकुल लूट-मार से बच गया।
आगरा में लूट
अब्दाली की सेना ब्रज में तोड़-फोड़, लूट-पाट करती आगरा पहुँची। उसके सैनिकों ने आगरा में लूट-पाट की। यहाँ उसकी सेना में दोबारा हैज़ा फैल गया और वह जल्दी ही लौट गया।
मराठों का प्रभुत्व
मुग़ल-साम्राज्य की अवनति के पश्चात मथुरा पर मराठों का प्रभुत्व स्थापित हुआ और इस नगरी ने सदियों के पश्चात चैन की सांस ली। 1803 ई. में लॉर्ड लेक ने सिंधिया को हराकर मथुरा-आगरा प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया।
नादिर शाह
नादिर शाह | ||
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फ़ारस का शाह | ||
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राजकाल | १७३६–१७४७ | |
जन्म | ६ अगस्त, १६९८ | |
खोरासान | ||
मृत्यु | १९ जून, १७४७ | |
दफ़न | मशहद | |
पूर्वाधिकारी | अब्बास तृतीय | |
उत्तराधिकारी | आदिल शाह |
नादिर शाह अफ़्शार (या नादिर क़ुली बेग़) (१६८८ - १७४७) फ़ारस का शाह था (१७३६ - १७४७) और उसने सदियों के बाद क्षेत्र में ईरानी प्रभुता स्थापित की थी। उसने अपना जीवन दासता से आरंभ किया था और फ़ारस का शाह ही नहीं बना बल्कि उसने उस समय ईरानी साम्राज्य के सबल शत्रु उस्मानी साम्राज्य और रूसी साम्राज्यको ईरानी क्षेत्रों से बाहर निकाला।
उसने अफ़्शरी वंश की स्थापना की थी और उसका उदय उस समय हुआ जब ईरान में पश्चिम से उस्मानी साम्राज्य (ऑटोमन) का आक्रमण हो रहा था और पूरब से अफ़गानों ने सफ़ावी राजधानी इस्फ़हान पर अधिकार कर लिया था। उत्तर से रूस भी फ़ारस में साम्राज्य विस्तार की योजना बना रहा था। इस परिस्थिति में भी उसने अपनी सेना संगठित की और अपने सैन्य अभियानों की वज़ह से उसे फ़ारस का नेपोलियन या एशिया का अन्तिम महान सेनानायक जैसी उपाधियों से सम्मानित किया जाता है।
वो भारत विजय के अभियान पर भी निकला था। दिल्ली की सत्ता पर आसीन मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह आलम को हराने के बाद उसने वहाँ से अपार सम्पत्ति अर्जित की जिसमें कोहिनूर हीरा भी शामिल था। इसके बाद वो अपार शक्तिशाली बन गया और उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। अपने जीवन के उत्तरार्ध में वो बहुत अत्याचारी बन गया था। सन् १७४७ में उसकी हत्या के बाद उसका साम्राज्य जल्द ही तितर-बितर हो गया।
गुमनामी से आग़ाज़
नादिर का जन्म खोरासान (उत्तर पूर्वी ईरान) में अफ़्शार क़ज़लबस कबीले में एक साधारण परिवार में हुआ था। उसके पिता एक साधारण किसान थे जिनकी मृत्यु नादिर के बाल्यकाल में ही हो गई थी। नादिर के बारे में कहा जाता है कि उसकी माँ को उसके साथ उज़्बेकों ने दास (ग़ुलाम) बना लिया था। पर नादिर भाग सकने में सफ़ल रहा और वो एक अफ़्शार कबीले में शामिल हो गया और कुछ ही दिनों में उसके एक तबके का प्रमुख बन बैठा। जल्द ही वो एक सफल सैनिक के रूप में उभरा और उसने एक स्थानीय प्रधान बाबा अली बेग़ की दो बेटियों से शादी कर ली।
नादिर एक लम्बा, सजीला और शोख काली आँखों वाला नौजवान था। वो अपने शत्रुओं के प्रति निर्दय था लेकिन अपने अनुचरों और सैनिकों के प्रति उदार। उसे घुड़सवारी बहुत पसन्द थी और घोड़ों का बहुत शौक था। उसकी आवाज़ बहुत गम्भीर थी और ये भी उसकी सफलता की कई वज़हों में से एक माना जाता है। वह एक तुर्कमेन था और उसके कबीले ने शाह इस्माइल प्रथम के समय से ही साफ़वियों की बहुत मदद की थी।
साफवियों का अन्त
उस समय फ़ारस की गद्दी पर साफ़वियों का शासन था। लेकिन नादिर शाह का भविष्य शाह के तख़्तापलट के कारण नहीं बना जो कि प्रायः कई सफल सेनानायकों के साथ होता है। उसने साफवियों का साथ दिया। उस समय साफ़वी अपने पतनोन्मुख साम्राज्य में नादिर शाह को पाकर बहुत प्रसन्न हुए। एक तरफ़ से उस्मानी साम्राज्य (ऑटोमन तुर्क) तो दूसरी तरफ़ से अफ़गानों के विद्रोह ने साफवियों की नाक में दम कर रखा था। इसके अलावा उत्तर से रूसी साम्राज्य भी निगाहें गड़ाए बैठा था। शाह सुल्तान हुसैन के बेटे तहमास्य (तहमाश्प) को नादिर का साथ मिला। उसके साथ मिलकर उसने उत्तरी ईरान में मशहद (ख़ोरासान की राजधानी) से अफगानों को भगाकर अपने अधिकार में ले लिया। उसकी इस सेवा से प्रभावित होकर उसे तहमास्य क़ुली ख़ान ('तहमास्प का सेवक' या 'गुलाम-ए-तहमास्य') की उपाधि मिली। यह एक सम्मान था क्योंकि इससे उसे शाही नाम मिला था। पर नादिर इतने पर संतुष्ट हो जाने वाला सेनानायक नहीं था।
नादिर ने इसके बाद हेरात के अब्दाली अफ़ग़ानों को परास्त किया। तहमाश्प के दरबार में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद उसने १७२९ में राजधानी इस्फ़हान पर कब्ज़ा कर चुके अफ़ग़ानों पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इस समय एक यूनानी व्यापारी और पर्यटक बेसाइल वतात्ज़ेस ने नादिर के सैन्य अभ्यासों को आँखों से देखा था। उसने बयाँ किया - नादिर अभ्यास क्षेत्र में घुसने के बाद अपने सेनापतियों के अभिवादन की स्वीकृति में अपना सर झुकाता था। उसके बाद वो अपना घोड़ा रोकता था और कुछ देर तक सेना का निरीक्षण एकदम चुप रहकर करता था। वो अभ्यास आरंभ होने की अनुमति देता था। इसके बाद अभ्यास आरंभ होता था - चक्र, व्यूह रचना और घुड़सवारी इत्यादि.. नादिर खुद तीन घंटे तक घोड़े पर अभ्यास करता था।
सन १७२९ के अन्त तक उसने अफ़गानों को तीन बार हराया और इस्फ़हान वापस अपने नियंत्रण में ले लिया। उसने अफ़गानों को महफ़ूज (सुरक्षित) तरीके से भागने दे दिया। इसके बाद उसने भारी सैन्य अभियान की योजना बनाई। जिसके लिए उसने शाह तहमाश्प को कर वसूलने पर मजबूर किया। पश्चिम की दिशा से उस्मानी तुर्क (ऑटोमन) प्रभुत्व में थे। अभी तक नादिर के अभियान उत्तरी, केन्द्रीय तथा पूर्वी ईरान और उससे सटे अफ़गानिस्तान तक सीमित रहे थे। उसने उस्मानियों को पश्चिम से मार भगाया और उसके तुरंत बाद वह पूरब में हेरात की तरफ़ बढ़ा जहाँ पर उसने हेरात पर नियंत्रण कर लिया।
उसकी सैन्य सफलता तहमाश्प से देखी नहीं गई। उसे तख्तापलट का डर होने लगा। उसने अपनी सैन्य योग्यता साबित करने के मकसद से उस्मानों के साथ फिर से युद्ध शुरू कर दिया जिसका अन्त उसके लिए शर्मनाक रहा और उसे नादिर द्वारा जीते हुए कुछ प्रदेश उस्मानों को लौटाने पड़े। नादिर जब हेरात से लौटा तो यह देखकर क्षुब्ध हुआ। उसने जनता से अपना समर्थन माँगा। इसी समय उसने इस्फ़हान में एक दिन तहमाश्प (तहमास्य) को नशे की हालत में ये समझाया कि वो शासन के लिए अयोग्य है और उसके ये इशारे पर दरबारियों ने तहमाश्प के नन्हें बेटे अब्बास को गद्दी पर बिठा दिया। उसके राज्याभिषेक के समय नादिर ने घोषणा की कि वो कन्दहार, दिल्ली, बुखारा औरइस्ताम्बुल के शासकों को हराएगा। दरबार में उपस्थित लोगों को लगा कि यह चरम आत्मप्रवंचना के अतिरिक्त कुछ नहीं है। पर आने वाले समय में उनको पता चला कि ऐसा नहीं था। उसने पश्चिम की दिशा में उस्मानों पर आक्रमण के लिए सेना तैयार की। पर अपने पहले आक्रमण में उसे पराजय मिली। उस्मानों ने बग़दाद की रक्षा के लिए एक भारी सेना भेज दी जिसका नादिर कोई जबाब नहीं दे पाया। लेकिन कुछ महीनों के भीतर उसने सेना फिर से संगठित की। इस बार उसने किरकुक के पास उस्मानियों को हरा दिया। येरावन के पास जून १७३५ में उसने रूसियों की मदद से उस्मानियों को एक बार फिर से हरा दिया। इस समझौते के तहत रूसी भी फारसी प्रदेशों से वापस कूच कर गए।
नादिर शाह
नादिर ने १७३६ में अपने सेनापतियों, प्रान्तपालों तथा कई समर्थकों के समक्ष खुद को शाह घोषित कर दिया।
धार्मिक नीति
ईरान के धार्मिक इतिहास में शिया इस्लाम और सुन्नियों द्वारा उनपर ढाए जुल्म का बहुत महत्त्व है। सफ़वी शिया थे और उनके तहत शिया लोगों को अरबों (सुन्नियों) के जुल्म से छुटकारा मिला था। आज ईरान की जनता शिया है और वहाँ शुरुआती तीन खलीफाओं को गाली देने की परम्परा है। नादिर शाह ने अपनी गद्दी सम्हालने वक्त ये शर्त रखी कि लोग उन खलीफ़ाओं के प्रति यह अनादर भाव छोड़ देंगे। इससे उसे फ़ायदा भी मिला। ईरान में शिया सुन्नी तनाव तो कम हुआ ही साथ ही ईरान को इस्लाम के दूसरे केन्द्र के रूप में देखा जाने लगा।
नादिर अर्मेनियों के साथ भी उदार धार्मिक सम्बंध रखता था। उसका शासन यहूदियों को लिए भी एक सुकून का समय था। अपने साम्राज्य के अन्दर (फारस में) उसने सुन्नी मज़हब को जनता पर लादने की कोई कोशिश नहीं कि लेकिन साम्राज्य के बाहर वो सुन्नी परिवर्तित राज्य के शाह के रूप में जाना जाने लगा। उसकी तुलना उस्मानी साम्राज्य से की जाने लगी जो उस समय इस्लाम का सर्वेसर्वा थे। मक्का उस समय उस्मानियों के ही अधीन था।
भारत पर आक्रमण
पश्चिम की दिशा में संतुष्ट होने के बाद नादिर शाह ने पूरब की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया। सैन्य खर्च का भार जनता पर पड़ा। उसने कन्दहार पर अधिकार कर लिया। इस बात का बहाना बना कर कि मुगलों ने अफ़गान भगोड़ों को शरण दे रखी है उसने मुगल साम्राज्य की ओर कूच किया। काबुल पर कब्जा़ करने के बाद उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। करनाल में मुगल राजा मोहम्मद शाह और नादिर की सेना के बीच लड़ाई हुई। इसमें नादिर की सेना मुग़लों के मुकाबले छोटी थी पर अपने बारूदी अस्त्रों के कारण फ़ारसी सेना जीत गई। उसके मार्च १७३९ में दिल्ली पहुँचने पर यह अफ़वाह फैली कि नादिर शाह मारा गया। इससे दिल्ली में भगदड़ मच गई और फारसी सेना का कत्ल शुरू हो गया। उसने इसका बदला लेने के लिए दिल्ली में भयानक खूनखराबा किया और एक दिन में कोई २०,००० - २२,००० लोग मार दिए। इसके अलावा उसने शाह से विपुल धनराशि भी ली। मोहम्मद शाह ने सिंधु नदी के पश्चिम की सारी भूमि भी नादिर शाह को दान में दे दी। हीरे जवाहरात का एक ज़खीरा भी उसे भेंट किया गया जिसमें कोहेनूर (कूह - ए - नूर), दरिया - नूर और ताज - ए - मह शामिल थे जिनकी एक अपनी खूनी कहानी है। नादिर को जो सम्पदा मिली वो करीब ७० करोड़ रुपयों की थी। यह राशि अपने तत्कालीन सातवर्षीय युद्ध (१७५६-१७६३) के तुल्य था जिसमें फ्रांस की सरकार ने ऑस्ट्रिया की सरकार को दिया था। नादिर ने दिल्ली में साम्राज्य विस्तार का लक्ष्य नहीं रखा। उसका उद्देश्य अपनी सेना के लिए आवश्यक धनराशि इकठ्ठा करनी थी जो उसे मिल गई थी। कहा जाता है कि दिल्ली से लौटने पर उसके पास इतना धन हो गया था कि अगले तीन वर्षों तक उसने जनता से कर नहीं लिया था।
दिल्ली के बाद
दिल्ली से लौटने पर उसे पता चला कि उसके बेटे रज़ा क़ुली, जिसे कि उसने अपनी अनुपस्थिति में वॉयसराय बना दिया था, ने साफ़वी शाह तहामाश्प और अब्बास की हत्या कर दी है। इससे उसको भनक मिली कि रज़ा उसके ख़िलाफ़ भी षडयंत्र रच रहा है। इसी डर से उसने रज़ा को वायसराय से पदच्युत कर दिया। इसके बाद वो तुर्केस्तान के अभियान पर गया और उसके बाद दागेस्तान के विद्रोह को दमन करने निकला। पर यहाँ पर उसे सफलता नहीं मिली। लेज़्गों ने खंदक युद्ध नीति अपनाई और रशद के कारवाँ पर आक्रमण कर नादिर को परेशान कर डाला। जब वो दागेस्तान (१७४२) में था तो नादिर को ख़बर मिली कि रज़ा उसको मारने की योजना बना रहा है। इससे वो क्षुब्ध हुआ और उसने रज़ा को अंधा कर दिया। रज़ा ने कहा कि वो निर्दोष है पर नादिर ने उसकी एक न सुनी। लेकिन कुछ ही दिन बाद नादिर को अपनी ग़लती पर खेद हुआ। इस समय नादिर बीमार हो चला था और अपने बेटे को अंधा करने के कारण बहुत क्षुब्ध। नादिर शाह ने आदेश दिया कि उन सरदारों के सिर उड़ा दिए जायें जिन्होंने उसके बेटे रज़ा क़ुली की आँखें फ़ोड़ी जाते देखा है। नादिर शाह ने उन सरदारों की ग़लती यह ठहराई कि उनमें से किसी ने यह क्यों नहीं कहा कि रज़ा क़ुली के बजाये उसकी आँखें फ़ोड़ दी जायें। दागेस्तान की असफलता भी उसे खाए जा रही थी। धीरे-धीरे वह और अत्याचारी बनता गया। उसने दागेस्तान से खाली हाथ वापस लौटने के बाद उसने अपनी सेना एक बहुत पुराने लक्ष्य के लिए फिर से संगठित की - पश्चिम का उस्मानी साम्राज्य। उस समय जब सेना संगठित हुई तो उसकी गिनती थी - ३,७५,००० सैनिक। इतनी बड़ी सेना उस समय शायद ही किसी साम्राज्य के पास हो। ईरान की ख़ुद की सेना इतनी बड़ी १९८० - १९८८ के ईरान - इराक युद्ध से पहले फ़िर कभी नहीं हुई।
सन् १७४३ में उसने उस्मानी साम्राज्य इराक पर हमला किया। शहरों को छोड़ कर कहीं भी उसे बहुत विरोध का सामना नहीं करना पड़ा।किरकुक पर उसका अधिकार हो गया लेकिन बग़दाद और बसरा में उसे सफलता नहीं मिली। मोसूल में उसके महत्त्वाकांक्षा का अंत हुआ और उसे उस्मानों के साथ समझौता करना पड़ा। नादिर को ये समझ में आया कि उस्मानी उसके नियंत्रण में नहीं आ सकते। इधर नए उस्मानी सैनिक उसके खिलाफ़ भेजे गए। नादिर शाह के बेटे नसिरुल्लाह ने इनमें से एक को हराया जबकि नादिर ने येरावन के निकट १७४५ में एक दूसरे जत्थे को हराया। पर यह उसकी आख़िरी बड़ी जीत थी। इसमें उस्मानों ने उसे नज़फ़ पर शासन का अधिकार दिया।
अन्त और चरित
नादिर का अन्त उसकी बीमारियों से घिरा रहा। वह दिनानुदिन बीमार, अत्याचारी और कट्टर हो चला था। अपने आख़िरी दिनों में उसने जनता पर भारी कर लगाए और यहाँ तक कि अपने करीबी रिश्तेदारों से भी धन की माँग करने लगा था। उसका सैन्य खर्च काफ़ी बढ़ गया था। उसके भतीजे अली क़ुली ने उसके आदेशों को मानने से मना कर दिया। १९ जून १७४७ में मशहद के निकट उसके अपने ही अंगरक्षकों ने उसकी हत्या कर डाली।
नादिर शाह की उपलब्धियाँ अधिक दिनों तक टिक नहीं सकीं। उसके मरने के बाद अली क़ुली ने स्वयं को शाह घोषित कर दिया। उसने अपना नाम आदिल शाह रख लिया। नादिर के मरने के बाद सेना तितर बितर हो गई और साम्राज्य को क्षत्रपों ने स्वतंत्र रूप से शासन करना शुरू कर दिया। यूरोपीय प्रभाव भी बढ़ता ही गया।
नादिर को यूरोप में एक विजेता के रूप में ख्याति मिली थी। सन् १७६८ में डेनमार्क के क्रिश्चियन सप्तम ने सर विलियम जोन्स को नादिर के इतिहासकार मंत्रीमिर्ज़ा महदी अस्तराब्दाली द्वारा लिखी उसकी जीवनी को फ़ारसी से फ्रेंच में अनुवाद करने का आदेश दिया। १७३९ में उसकी भारत विजय के बाद अंग्रेज़ों को मुग़लों की कमज़ोरी का पता चला और उन्होंने भारत में साम्राज्य विस्तार को एक मौका समझ कर दमखम लगाकर कोशिश की। अगर नादिर शाह भारत पर आक्रमण नहीं करता तो ब्रिटिश शायद इस तरह से भारत में अधिकार करने के बारे में शायद सोच भी नहीं पाते या इतने बड़े पैमाने पर भारतीय शासन को चुनौती नहीं देते।
सूरी साम्राज्य
सूरी साम्राज्य د سوریانو ټولواکمني | |||||
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हरा में सूरी साम्राज्य का क्षेत्र
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राजधानी | दिल्ली | ||||
भाषाएँ | फ़ारसी | ||||
धर्म | सुन्नी इस्लाम | ||||
शासन | सुल्तान | ||||
इतिहास | |||||
- | स्थापित | १७ मई १५४० | |||
- | अंत | १५५७ |
विवरण
सूर राजवंश का संस्थापक शेरशाह अफगानों की सूर जाति का था। यह 'रोह' (अफगानों का मूल स्थान) की एक छोटा और अभावग्रस्त जाति थी। शेरशाह का दादा इब्राहीम सूर १५४२ ई. में भारत आया और हिम्मतखाँ सूर तथा जमालखाँ की सेनाओं में सेवाएँ कीं। हसन सूर जो फ़रीद (बाद में शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध हुआ) का पिता था, जमाल खाँ की सेवा में ५०० सवार और सहसराम के इक्ता का पद प्राप्त करने में सफल हो गया। शेरशाह अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् उसके इक्ता का उत्तराधिकारी हुआ, और वह उस पर लोदी साम्राज्य के पतन (१५२६ ई.) तक बना रहा। इसके पश्चात् उसने धीरे-धीरे उन्नति की। दक्षिण बिहार में लोहानी शासन का अंत कर उसने अपनी शक्ति सदृढ़ कर ली। वह बंगाल जीतने में सफल हो गया और १५४० ई. में उसने मुगलों को भी भारत से खदेड़ दिया। उसके सत्तारुढ़ होने के साथ-साथ अफगान साम्राज्य चतुर्दिक फैला। उसने प्रथम अफगान (लोदी) साम्राज्य में बंगाल, मालवा, पश्चिमी राजपूताना, मुल्तान और उत्तरी सिंध जोड़कर उसका विस्तार दुगुने से भी अधिक कर दिया।
शेरशाह का दूसरा पुत्र जलाल खाँ उसका उत्ताराधिकारी हुआ। यह १५४५ ई. में इस्लामशाह की उपाधि के साथ शासनारूढ़ हुआ। इस्लामशाह ने ९ वर्षों (१५४५-१५५४ ई.) तक राज्य किया। उसे अपने शासनकाल में सदैव शेरशाह युगीन सामंतों के विद्रोहों को दबाने में व्यस्त रहना पड़ा। उसने राजकीय मामलों में अपने पिता की सारी नीतियों का पालन किया तथा आवश्यकतानुसार संशोधन और सुधार के कार्य भी किए। इस्लामशाह का अल्पवयस्क पुत्र फीरोज उसका उत्ताराधिकारी हुआ, किंतु मुबारिज खाँ ने, जो शेरशाह के छोटे भाई निजाम खाँ का बेटा था, उसकी हत्या कर दी।
मुबारिज़ खाँ सुलतान आदिल शाह की उपाधि के साथ गद्दी पर बैठा। फीरोज़ की हत्या से शेरशाह और इस्लामशाह के सामंत उत्तेजित हो गए और उन्होंने मुबारिज़ खाँ के विरुद्ध हथियार उठा लिए। बारही विलायतों के सभी शक्तिशाली मुक्ताओं ने अपने को स्वाधीन घोषित कर दिया और प्रभुत्व के लिए परस्पर लड़ने लगे। यही बढ़ती हुई अराजकता अफगान साम्राज्य के पतन और मुगल शासन की पुन: स्थापना का कारण बनी।
सूर साम्राज्य की यह विशेषता थी कि उसके अल्पकालिक जीवन में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति हुई, तथापि उनके द्वारा पुनर्व्यवस्थित प्रशासकीय संस्थाएँ मुगलों और अंग्रेजों के काल में भी जारी रहीं।
शेरशाह ने प्रशासनिक सुधारों और व्यवस्थाओं को अलाउद्दीन खिलजी की नीतियों के आधार पर गठित किया किंतु उसने कार्याधिकारियों के प्रति खल्जी के निर्दयतापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा अपनी नीतियों में मानवीय व्यवहार को स्थान दिया। प्राय: सभी नगरों में सामंतों की गतिविधियाँ बादशाह को सूचित करने के लिए गुप्तचर नियुक्त किए गए थे। अपराधों के मामलों में यदि वास्तविक अपराधी पकड़े नहीं जाते थे तो उस क्षेत्र के प्रशासनिक अधिकारी उत्तरदायी ठहराए जाते थे।
शेरशाह ने तीन दरें निश्चित की थीं, जिनमें राज्य की सारी पैदावार का एक तिहाई राजकोष में लिया जाता था। ये दरें जमीन की उर्वरा शक्ति के अनुसार बाँधी जाती थीं। भूमि की भिन्न-भिन्न उर्वरता के अनुसार 'अच्छी', 'बुरी' और 'मध्य श्रेणी' की उपज को प्रति बीघे जोड़कर, उसका एक-तिहाई भाग राजस्व के रूप में वसूल किया जाता था, राजस्व भाग बाजार भाव के अनुसार रकम में वसूल किया जाता था, जिससे राजस्व कर्मचारियों तथा किसानों की बहुत सुविधा हो जाती थी। इस्लामशाह की मृत्यु तक यह पद्धति चलती रही।
कृषकों को जंगल आदि काटकर खेती योग्य भूमि बनाने के लिए आर्थिक सहायता भी दी जाती थी। उपलब्ध प्रमाणों से यह ज्ञात हुआ है कि शेरशाह की मालवा पर विजय के पश्चात्नर्मदा की घाटी में किसानों को बसाकर घाटी को कृषि के लिए प्रयोग किया गया था। शेरशाह ने उन किसानों को अग्रिम ऋण दिया और तीन वर्षों के लिए मालगुजारी माफ कर दी थी। सड़कों और उनके किनारे-किनारे सरायों के व्यापक निर्माण द्वारा भी दश के आर्थिक विकास को जीवन प्रदान किया गया।
सैन्य संगठन में भी आवश्यक सुधार और परिवर्तन किए गए। पहले सामंत लोग किराए के घोड़ों और असैनिक व्यक्तियों को भी सैनिक प्रदर्शन के समय हाजिर कर देते थे। इस जालसाजी को दूर करने के लिए घोड़ों पर दाग देने और सवारों की विवरणात्मक नामावली तैयार करने की पद्धति चालू की गई।
साम्राज्य का अंत
२२ मई १५४५ को शेर शाह सूरी का देहांत हुआ। उन्होंने १७ मई १५४० (बिलग्राम के युद्ध) के बाद से बागडोर संभाली थी और अपने देहांत तक सुल्तान बने रहे। उनके बाद इस्लाम शाह सूरी ने २६ मई १५४५ से २२ नवम्बर १५५३ तक राज किया। इसके बाद चंद महीनो ही राज करने वाले सूरी परिवार के सुल्तानों का सिलसिला चला। हुमायूँ ईरान से वापस आकर भारत पर क़ब्ज़ा करने में सफल हो गया और उसने अंतिम सूरी सुल्तान आदिल शाह सूरी और उसके सिपहसलार हेमू को हरा दिया। सूरी साम्राज्य ख़त्म हो गया।
हालांकि सूरी साम्राज्य सिर्फ़ १७ साल चला, इस काल में भारतीय उपमहाद्वीप में बहुत से प्रशासनिक और आर्थिक विकास लाए गए। भारतीय इतिहास में अक्सर शेर शाह सूरी को विदेशी नहीं समझा जाता।[1][2] उनके राज में हिन्दू और मुस्लिमों में आपसी भाईचारा और सामाजिक एकता बढ़ी। ग्रैंड ट्रंक रोड जैसे विकास कार्यों पर ज़ोर दिया गया। साम्राज्य को ४७ प्रशासनिक भागों में बांटा गया (जिन्हें 'सरकार' कहा जाता था) और इनके आगे 'परगना' नामक उपभाग बनाए गए। स्थानीय प्रशासन मज़बूत किया गया। आने वाले समय में मुग़ल और ब्रिटिश राज की सरकारों ने शेर शाह के बहुत सी उपलब्धियों पर अपनी मोहर लगाकर उन्हें जारी रखा।[3] भारत की मुद्रा का नाम 'रुपया' भी उन्होंने ही रखा।[4]
सूरी सुल्तानों की सूची
सूर वंश के शासकों की सूची निम्न है:
- शेर शाह सूरी
- इब्राहिम शाह सूरी
- इस्लाम शाह सूरी
- फिरोज़ शाह सूरी
- मुहम्मद शाह आदिल
- सिकंदर शाह सूरी
- आदिल शाह सूरी
पठान
पश्तून پښتانه Paṣ̌tun | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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कुल जनसंख्या | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
Approx. 50 million (2011)[2]
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ख़ास आवास क्षेत्र | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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भाषाएँ | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
पश्तो | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
धर्म | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
इस्लाम |
पश्तून, पख़्तून (पश्तो: پښتانه, पश्ताना) या पठान (उर्दू:پٹھان) दक्षिण एशिया में बसने वाली एक लोक-जाति है। वे मुख्य रूप में अफ़्ग़ानिस्तान में हिन्दु कुश पर्वतों और पाकिस्तान में सिन्धु नदी के दरमियानी क्षेत्र में रहते हैं हालांकि पश्तून समुदाय अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और भारत के अन्य क्षेत्रों में भी रहते हैं। पश्तूनों की पहचान में पश्तो भाषा, पश्तूनवाली मर्यादा का पालन और किसी ज्ञात पश्तून क़बीले की सदस्यता शामिल हैं।[14][15]
पठान जाति की जड़े कहाँ थी इस बात का इतिहासकारों को ज्ञान नहीं लेकिन संस्कृत और यूनानी स्रोतों के अनुसार उनके वर्तमान इलाक़ों में कभी पक्ता नामक जाति रहा करती थी जो संभवतः पठानों के पूर्वज रहें हों। सन् १९७९ के बाद अफ़्ग़ानिस्तान में असुरक्षा के कारण जनगणना नहीं हो पाई है लेकिन ऍथनोलॉगके अनुसार पश्तून की जनसँख्या ५ करोड़ के आसपास अनुमानित की गई है। पश्तून क़बीलों और ख़ानदानों का भी शुमार करने की कोशिश की गई है और अनुमान लगाया जाता है कि विश्व में लगभग ३५० से ४०० पठान क़बीले और उपक़बीले हैं। पश्तून जाति अफ़्ग़ानिस्तान का सबसे बड़ा समुदाय है।
विवरण
पश्तून इतिहास ५ हज़ार साल से भी पुराना है और यह अलिखित तरिके से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है। पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यह जाती 'बनी इस्राएल' यानी यहूदी वंश की है। इस कथा के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग २,८०० साल पहले बनी इस्राएल के दस कबीलों को देश निकाला दे दिया गया था और यही कबीले पख़्तून हैं। ॠग्वेद के चौथे खंड के ४४वे श्लोक में भी पख़्तूनों का वर्णन 'पक्त्याकय' नाम से मिलता है। इसी तरह तीसरे खंड का ९१वाँ श्लोक आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र 'आपर्यतय' के नाम से करता है।
बनी इस्राएल होने के बारे में लिखाईयाँ
पख़्तूनों के बनी इस्राएल (अर्थ - इस्रायल की संतान) होने की बात सत्रहवीं सदी ईसवी में जहांगीर के काल में लिखी गयी किताब “मगज़ाने अफ़ग़ानी” में भी मिलती है। अंग्रेज़ लेखक और यात्री अलेक्ज़ेंडर बर्न्स ने अपनी बुख़ारा की यात्राओं के बारे में सन् १८३५ में भी पख़्तूनों द्वारा ख़ुद को बनी इस्राएल मानने के बारे में लिखा है। हालांकि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल तो कहते हैं लेकिन धार्मिक रूप से वह मुसलमान हैं, यहूदी नहीं। अलेक्ज़ेंडर बर्न ने ही पुनः १८३७ में लिखा कि जब उसने उस समय के अफ़ग़ान राजा दोस्त मोहम्मद से इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब था कि उसकी प्रजा बनी इस्राएल है इसमें संदेह नहीं लेकिन इसमें भी संदेह नहीं कि वे लोग मुसलमान हैं एवं आधुनिक यहूदियों का समर्थन नहीं करेंगे। विलियम मूरक्राफ़्ट ने भी १८१९ व १८२५ के बीच भारत,पंजाब और अफ़्ग़ानिस्तान समेत कई देशों के यात्रा-वर्णन में लिखा कि पख़्तूनों का रंग, नाक-नक़्श, शरीर आदि सभी यहूदियों जैसा है। जे बी फ्रेज़र ने अपनी १८३४ की 'फ़ारस और अफ़्ग़ानिस्तान का ऐतिहासिक और वर्णनकारी वृत्तान्त' नामक किताब में कहा कि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल मानते हैं और इस्लाम अपनाने से पहले भी उन्होंने अपनी धार्मिक शुद्धता को बरकरार रखा था।[16] जोसेफ़ फ़िएरे फ़ेरिएर ने १८५८ में अपनी अफ़ग़ान इतिहास के बारे में लिखी किताब में कहा कि वह पख़्तूनों को बेनी इस्राएल मानने पर उस समय मजबूर हो गया जब उसे यह जानकारी मिली कि नादिरशाह भारत-विजय से पहले जबपेशावर से गुज़रा तो यूसुफ़ज़ई कबीले के प्रधान ने उसे इब्रानी भाषा (हीब्रू) में लिखी हुई बाइबिल व प्राचीन उपासना में उपयोग किये जाने वाले कई लेख साथ भेंट किये। इन्हें उसके ख़ेमे में मौजूद यहूदियों ने तुरंत पहचान लिया।
पश्तून क़बीले
पश्तून लोक-मान्यताओं के अनुसार सारे पश्तून चार गुटों में विभाजित हैं: सरबानी (سربانی, Sarbani), बैतानी (بتانی, Baitani), ग़रग़श्ती (غرغوشتی, Gharghashti) और करलानी (کرلانی, Karlani)। मौखिक परंपरा के अनुसार यह क़ैस अब्दुल रशीद जो समस्त पख्तूनो के मूल पिता माने जाते हैं उनके चार बेटों के नाम से यह चार क़बीले बने थे। इन गुटों में बहुत से क़बीले और उपक़बीले आते हैं और माना जाता है कि कुल मिलाकर पश्तूनों के ३५० से ४०० क़बीले हैं।[17][18] पख्तून क़बीले कई स्तरो पर विभाजित रहते हैं। त्ताहर (क़बीला) कई ख़ेल अरज़ोई या ज़ाई से मिल कर बना होता है। ख़ेल कई प्लारीनाओं से मिल कर बना होता है। प्लारीना कई परिवारों से मिल कर बना होता है, जिन्हें कहोल कहा जाता है। एक बड़े क़बीले में अक्सर कई दर्जन उप क़बीले होते हैं वे ख़ुद को एक दूसरे से जुड़ा हुआ मानते हैं। अपने परिवार के वंश व्रक्ष में उनसे संबन्ध बताते हैं यह इस उपक़बीले से सहयोग, प्रतिस्पर्धा, अथवा टकराव पर निर्भर करता है। पख्तू क़बीलाई व्यवस्था में काहोल सबसे छोटी इकाई होती है। इसमें १- ज़मन (बेटे) २- ईमासी (पोते) ३- ख़्वासी (पर पोते) ४- ख़्वादी (पर-पर पोते) होते हैं। तीसरी पीढी का जन्म होते ही परिवार को कोहल का दर्जा मिल जाता है। मुख्य पख़्तून क़बीले इस प्रकार हैं:
- सर्बानी क़बीले :-
1. Sheranai शेर्नाई 2. Jalwaanai जलानाई 3. Barais (Barech) बरेछ 4. Baayer बायार 5. Oormar ऊरमर 6. Tareen (Tarin) तारीन (उप क़बीले तौर तारीन, स्पीन, राईज़ानी व खेत्रानी यह क़बीले ब्रह्यी व बलूची ज़बान बोलते हैं पश्तु नहीं) [Subtribes: Tor Tarin, Spin Tarin] { Raisani & Khetran are also Tarin. Currently these Tribes are speaking Brahvi & Balochi respectively } 7. Gharshin ग़रशीन 8. Lawaanai लावानाई 9. Popalzai पोपलज़ाई 10. Baamizai बामीज़ाई 11. Sadozai सदोज़ाई 12. Alikozai आलीकोज़ाई 13. Barakzai बरकज़ाई 14. Mohammad zai (Zeerak) ज़ीराकी 15. Achakzai (Assakzai) अज़्ज़ाक्ज़ाई 16. Noorzai नूरज़ाई 17. Alizai अलीज़ाई 18. Saakzai साकज़ाई 19. Maako माकू 20. Khoogyanai खूग्ज़ाई 21. Yousufzai युसुफ़ज़ाई 22. Atmaanzai (Utmanzai) आत्मानज़ाई 23. Raanizai रानीज़ाई 24. Mandan मून्दन 25. Tarklaanai तर्क़्लानाई 26. Khalil ख़लील 27. Babar बाबर 28. Daudzai दाऊदज़ाई 29. Zamaryanai ज़मर्यन्ज़ाई 30. Zeranai ज़ेरानाई 31. Mohmand मोहम्मद 32. Kheshgai (Khaishagi) ख़ैशगी 33. Mohammad Zai (Zamand) मोहम्मेद्ज़ाई 34. Kaasi कासी 35. Shinwarai शिन्वाराई 36. Gagyanai ग़यनाई 37. Salarzaiसलार्ज़ाई 38. Malgoorai मल्गुराई
- ग़र्ग़श्त क़बीले :-
3- Babai बाबई 4- Mandokhail मन्दूखैल 5- Kakar काकर 6- Nagharनग़र 7- Panee (Panri) पानी (खज्जाक लूनी मर्ग़ज़ानी देहपाल बरोज़ाई मज़ारी आदि।Khajjak, Luni, Marghazani, Dehpal, Barozai, Mzari etc.) 8- Dawi दावी 9- Hamar हमार 10- Doomar (Dumarr) धूमर 11- Khondai खुन्दाई 12- Gadoon (Jadun) गरुम जादोन 13- Masakhel (Musakhail) मसखैल 14- Sapai or Safai (Safi) सपाई 15- Mashwanai मशwअनाई 16- Zmarai (Mzarai) Zअमाराई 17- Shalman शलमोन 18- Eisoot (Isot) ईसोत
- ख़रलानी क़बीले :-
1. Mangal मंगल 2. Kakai काकई 3. Torai (Turi) तोराई 4. Hanee हनी 5. Wardak (Verdag) वर्दक 6. Aurakzai (Orakzai) औराक्ज़ाई 7. Apridee or Afridiआफ़्रीदी 8. Khattak खत्ताक 9. Sheetak शीताक 10. Bolaaq बलाक़ 11. Zadran (Jadran) ज़रदान 12. Wazir वज़ीर 13. Masid (Mahsood) मसीद 14. Daur (Dawar) दावर 15. Sataryanai सत्यानाई 16. Gaaraiग राई 17. Bangash बंगश 18. Banosee (Banuchi) बनुची 19. Zazai (Jaji) ज़ज़ाई 20. Gorbuz ग़र्बूज़ 21. Tanai (Tani) तनाई 22. Khostwaa ख़ोस्तवा l 23. Atmaankhel (Utmankhail) उत्मानखैल 24. Samkanai (Chamkani) समकानाई 25. Muqbal मुकबल 26. मनिहार्
- बैतानी क़बीले :-
1. Sahaak सहाक 2. Tarakai तराकज़ाई 3. Tookhi तूख़ी 4. Andar अन्धर 5. SuleimanKhail (Slaimaankhel) सुलैमानखैल 6. Hotak होतक 7. Akakhail अकखैल 8. Nasar नासर 9. Kharotai ख़रोताई 10. Bakhtiar बख़्तियार 11. Marwat मार्वात 12. Ahmadzai अहमदज़ाई 13. Tarai तराई 14. Dotanai दोतानी (Dotani) 15. Taran तारन 16. Lodhi लोधी 17. Niazai नाईज़ाई 18. Soor सूर 19. Sarwanai सर्वानाई 20. Gandapur गन्धापुरी 21. Daulat Khail दौलत खेल 22. Kundi Ali Khail कुन्धी अली खैल 23. Dasoo Khail दासू खैल 24. Jaafar जाफ़र 25. Ostranai (Ustarana) ओस्त्रानाई 26. Loohanai लूहानाई 27. Miankhail मैनखैल 28. Betani (Baitanee) भैतानी 29. Khasoor ख़सूर
यह सभी क़बीले भी कई कई त्ताबरों, कैलों, प्लारीनाओं, व काहूलों में बंटे हुए हैं। यही क़बीलाई संरचना भारत के पठानों द्वारा भी अपनाई जा रही है।
इन्हें भी देखें
अफ़शारी राजवंश
अफ़शारी राजवंश سلسله افشاریان सिलसिला अफ़शारियान | |||||
राजशाही | |||||
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ध्वज
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नादिर शाह के अधीन अफ़शारी राजवंश का सर्वाधिक विस्तार
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राजधानी | मशहद | ||||
भाषाएँ | फ़ारसी (सरकारी व प्रशासनिक) तुर्की (सैनिक) | ||||
धर्म | अस्पष्ट धार्मिक नीति पहले शिया रुझान बाद के काल में सुन्नीरुझान | ||||
शासन | पूर्ण बादशाही | ||||
शाह | |||||
- | १७३६-१७४७ | नादिर शाह (प्रथम) | |||
- | १७४८-१७९६ | शाहरुख़ अफ़शार (अंतिम) | |||
ऐतिहासिक युग | आरम्भिक आधुनिक | ||||
- | स्थापित | १७३६ | |||
- | अंत | १७९८ | |||
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अफ़शारी राजवंश (سلسله افشاریان, सिलसिला अफ़शारियान) १८वीं सदी ईसवी में तुर्क-मूल का ईरान में केन्द्रित राजवंश था। इसके शासक मध्य एशिया के ऐतिहासिक ख़ोरासान क्षेत्र से आये अफ़शार तुर्की क़बीले के सदस्य थे। अफ़शारी राजवंश की स्थापना सन् १७३६ ई में युद्ध में निपुण नादिर शाह ने करी जिसनें उस समय राज कर रहे सफ़वी राजवंश से सत्ता छीन ली और स्वयं को शहनशाह-ए-ईरान घोषित कर लिया हालांकि वह ईरानी मूल का नहीं था। उसके राज में ईरान सासानी साम्राज्य के बाद के अपने सबसे बड़े विस्तार पर पहुँचा। उसका राज उत्तर भारत से लेकर जॉर्जिया तक फैला हुआ था।[1]
नादिर शाह और भारत
भारत में नादिर शाह अपने सन् १७३९ के हमले के लिये जाना जाता है जब उसने अपने से छह गुना बड़ी मुग़ल साम्राज्य की सेना को हराया और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया। लूटपाट में २२ मार्च १७३९ के एक ही दिन में दिल्ली के ३०,००० से अधिक निहत्थे नागरिक मारे गये और जाते-जाते वह प्रसिद्ध मोर सिंहासन (तख़्त-ए-ताऊस) अपने साथ दिल्ली से तेहरान ले गया।[2] मई में जब नादिर शाह की सेना वापस ईरान लौटी, उन्होंने भारत से इतना पैसा, सोना, रत्न, हाथी, घोड़े व अन्य सामान लूट लिया था कि ईरान में तीन वर्षों तक कर और लगान माफ़ कर दिया गया।[3]
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