Wednesday, 10 April 2019

मत्स्य महाजनपद

मत्स्य महाजनपद  



मत्स्य / मच्छ महाजनपद
मत्स्य महाजनपद
मत्स्य 16 महाजनपदों में से एक है। इसमें राजस्थान के अलवरभरतपुर तथा जयपुर ज़िले के क्षेत्र शामिल थे। महाभारत काल का एक प्रसिद्ध जनपद जिसकी स्थिति अलवर-जयपुर के परिवर्ती प्रदेश में मानी गई है। इस देश में विराट का राज था तथा वहाँ की राजधानी उपप्लव नामक नगर में थी। विराट नगर मत्स्य देश का दूसरा प्रमुख नगर था।

दिग्विजय यात्रा

  • सहदेव ने अपनी दिग्विजय-यात्रा में मत्स्य देश पर विजय प्राप्त की थी[1]
  • भीम ने भी मत्स्यों को विजित किया था।[2]
  • अलवर के एक भाग में शाल्व देश था जो मत्स्य का पार्श्ववती जनपद था।
  • पांडवों ने मत्स्य देश में विराट के यहाँ रह कर अपने अज्ञातवास का एक वर्ष बिताया था।[3]
शतपथ ब्राह्मण[5] में मत्स्य-नरेश ध्वसन द्वैतवन का उल्लेख है, जिसने सरस्वती के तट पर अश्वमेध यज्ञ किया था। इस उल्लेख से मत्स्य देश में सरस्वती तथा द्वैतवन सरोवर की स्थिति सूचित होती है। गोपथ ब्राह्मण[6] में मत्स्यों को शाल्वों और कौशीतकी उपनिषद[7] में कुरु-पंचालों से सम्बद्ध बताया गया है।

महाभारत में उल्लेख

'कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पंचाला शूरसेनका: एष ब्रह्मर्षि देशो वै ब्रह्मवतदिनंतर:|'[9]
  • उड़ीसा की भूतपूर्व मयूरभंज रियासत में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार मत्स्य देश सतियापारा (ज़िला मयूरभंज) का प्राचीन नाम था। उपर्युक्त विवेचन से मत्स्य की स्थिति पूर्वोत्तर राजस्थान में सिद्ध होती है किन्तु इस किंवदंती का आधार शायद तह तथ्य है कि मत्स्यों की एक शाखा मध्य काल के पूर्व विजिगापटम (आन्ध्र प्रदेश) के निकट जा कर बस गई थी[10]। उड़ीसा के राजा जयत्सेन ने अपनी कन्या प्रभावती का विवाह मत्स्यवंशीय सत्यमार्तड से किया था जिनका वंशज 1269 ई. में अर्जुन नामक व्यक्ति था। सम्भव है प्राचीन मत्स्य देश की पांडवों से संबंधित किंवदंतियाँ उड़ीसा में मत्स्यों की इसी शाखा द्वारा पहुँची हो[11]

अधिराज

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...अधिराज (AS, p.19): महाभारत सभा पर्व [31,3] के अनुसार सहदेव ने अपनी दिग्विजय-यात्रा के प्रसंग में इस देश के राजा दंतवक्र को पराजित किया था- 'अधिराजाधिपं चैव दंतवक्रं महाबलम्, जिगाय करदं जैव कृत्वा राज्ये न्यवेशयत्'। अधिराज का उल्लेख मत्स्य के पश्चात् होने से सूचित होता है कि यह देश मत्स्य (जयपुर का परवर्ती प्रदेश) के निकट ही रहा होगा। किंतु श्री नं. ला. डे का मत है कि यह रीवा का परवर्ती प्रदेश था।

मत्स्य जनपद: दलीप सिंह अहलावत

दलीप सिंह अहलावत[4] ने लिखा है... मत्स्य जनपद अति प्राचीनकाल से विद्यमान था। इस जनपद के उत्तर में दशार्ण, दक्षिण में पांचाल, नवराष्ट्र (नौवार), मल्ल (मालव) आदि और शाल्व, शूरसेनों से घिरा हुआ था। सुग्रीव वानरों को सीता जी की खोज के लिये दक्षिण दिशा के देशों में अन्य देशों के साथ मत्स्य देश में जाने का भी आदेश देता है (वा० रा० किष्कन्धाकाण्ड, 41वां सर्ग)। पाण्डवों की दिग्विजय में सहदेव ने दक्षिण दिशा में सबसे पहले शूरसेनियों को जीतकर फिर मत्स्यराज विराट को अपने अधीन कर लिया (महाभारत सभापर्व, 31वां अध्याय)। महाभारत विराट पर्व के लेख अनुसार

1. ठा० देशराज जाट इतिहास पृ० 702, इस मालवा नाम से पहले इस प्रदेश का नाम अवन्ति था।
  • . नोट - कोली व शाक्य जाट वंश हैं।


भरतपुर, अलवर, जयपुर की भूमि पर मत्स्य जनपद बसा हुआ था। इसकी राजधानी विराट या वैराट नगर थी, जो जयपुर से 40 मील उत्तर की ओर अभी भी स्थित है। यहां का नरेश महाभारत युद्ध के समय वृद्ध था। इसने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सुवर्णमालाओं से विभूषित 2000 मतवाले हाथी उपहार के रूप में दिये थे (महाभारत सभापर्व, 52वां अध्याय; श्लोक 26वां)। यह विराट नरेश वृद्ध होते हुए भी महाभारत युद्ध में पाण्डवों की ओर होकर लड़ा था (महाभारत भीष्मपर्व 52वां अध्याय)। यह विराट नरेश अत्यन्त शूरवीर योद्धा था। इसी के नाम पर महाभारत का एक अध्याय ‘विराट पर्व’ विख्यात है।
इस विराट नरेश की महारानी सुदेष्णा, कीचक की बहिन थी। इसी मत्स्यराज विराट के यहां अज्ञातवास के दिनों पांचों पाण्डव द्रौपदी सहित गुप्तवेश में आकर रहे थे। इसी नरेश की कन्या उत्तरा का विवाह अर्जुनपुत्र अभिमन्यु से हुआ था। इन्हीं दोनों का पुत्र परीक्षित हस्तिनापुर राज्य का उत्तराधिकारी बना था। राजा विराट का भाई शतानीक था। विराट के दो पुत्र उत्तर और श्वेत नामक थे। महाभारत युद्ध में मद्रराज शल्य ने उत्तर को और भीष्म ने श्वेत को मार था। बौद्धकाल के 16 महाजनपदों में से एक मत्स्य जनपद भी था। इस गणराज्य की ध्वजा का चिह्न मछली था।
15 अगस्त सन् 1947 ई० को भारतवर्ष स्वतन्त्र होने पर भारत सरकार ने राजपूताना की रियासतों में से अलवरभरतपुरधौलपुर और करौली को मिलाकर ‘मत्स्य संघ’ बनाया और शेष रियासतों को मिलाकर ‘राजस्थान’ बनाया। जून 1949 ई० में मत्स्य संघ की चारों रियासतें भी राजस्थान में मिला दी गयीं।
मत्स्यवंश (माथुर) की सत्ता जाटों में पाई जाती है। भरतपुर राज्य की ओर से मत्स्यवंशज जाट धीरज माथुर एवं नत्था माथुर को दिल्ली के पास करालापंसालीपूंठ खुर्दकिराड़ीहस्तसार नामक पांच गांव का शासक बनाकर कचहरी करने के लिए नियत किया था। इस कचहरी के खण्डहर अभी तक कराला में पड़े हुए हैं। इस गांव से ही ककाना गांव (गोहाना के पास) जाकर बसा। इसके अतिरिक्त मत्स्य-मत्सर या माछर जाट बिजनौर के पुट्ठा और उमरपुरगांवों में निवास करते हैं। राजस्थान के जिला सीकर में खेतड़ी गांव मत्स्य या माछर गोत्र के जाटों का है।

  1.  ‘मत्स्यराजं च कौरव्यो वशे चके बलाद्बली’ महाभारत सभापर्व 31,2
  2.  ‘ततो मत्स्यान् महातेजा मलदांश्च महाबलान्’ महाभारत, सभापर्व 30,9
  3.  महाभारत, उद्योगपर्व
  4.  पुरोला इत्तुर्वशो यक्षुरासीद्राये मत्स्यासोनिशिता अपीव, श्रुष्ट्रिञ्चकु भृगवोद्रुह्यवश्च सखा सखायामतरद्विषूचो: ऋग्वेद 7,18,6
  5.  शतपथ ब्राह्मण 13,5,4,9
  6.  गोपथ ब्राह्मण (1-2-9
  7.  उपनिषद 14, 1
  8.  ‘सहजश्चेदिमत्स्यानां प्रवीराणां वृषध्वज:’ महाभारत, उद्योगपर्व 74-16
  9.  मनुस्मृति 2,19
  10.  दिब्बिड़ ताम्रपत्र, एपिग्राफिका इंडिया, 5,108
  11.  अपर मत्स्य

अलवर जिला

अरावली की पहाड़ियों की गोद में बसा अलवर जिला भारत के इतिहास के कई सुनहरे पन्नों का साक्षी रहा है। जब भारत में १६ महाजनपद थेतब उनमें से एक महाजनपद था,मत्स्य जनपदजिसकी राजधानी बैराठ(जयपुर) थी। वर्तमान अलवर जिले का संपूर्ण क्षेत्र इस महाजनपद में शामिल था। अन्य क्षेत्रों में वर्तमान जयपुरदौसा और भरतपुर जिले थे। भौगोलिक द्रष्टि से बाणगंगा नदी के पूर्व का क्षेत्र ही मत्स्य महाजनपद कहलाता था। इसके उत्तर-पूर्व में कुरु महाजनपद थाजिसकी राजधानी-इन्द्रप्रस्थ या वर्तमान दिल्ली थी,तो दक्षिण पूर्व में सुरसेन महाजनपद थाजिसकी राजधानी मथुरा थी। साल्वों का मत्स्यकौरवों का कुरु और यदुवंशियों का सुरसेन। यमुना और बाणगंगा के बीच के इन क्षेत्रों को आप ऐसे समझें और यह भी ध्यान दें कि महाभारत के काल में राजा विराट(मत्स्य),कौरवों और कृष्ण के राज्य कैसे एक दूसरे से जुड़े थे। इस मत्स्य जनपद के लोगों को तब साल्व कहते थेजैसे अवंति(मालवा) जनपद के लोगों को माल्व कहते थे। इन साल्वों के नाम पर यह क्षेत्र साल्वर कहलाता थाजो कालांतर में सल्वर और अपभ्रंशित होते-होतेअलवर बन गया।
मत्स्य जनपद में पहाड़ियों के बीच बीच में उपजाऊ मैदान थेजो उस समय के शासनों की मजबूती के लिए आवश्यक थे। बाणगंगा और रूपारेल नदियां इन मैदानों को सींचती थीं। यहाँ के लोग मछली (मत्स्य) को अपने वंश का चिह्न मानते थेजैसे अन्य लोग नाग को,चन्द्रमा को, सूर्य को या अग्नि को मानते थे। इसी कारण इन्हें बाद में मीना या मीणा भी कहा जाने लगा था। जी हाँआज के मीणा ही मत्स्य जनपद के शासकों के वंशज हैं। मध्यकाल के इतिहासकारों ने तथ्यों को इतना तोड़ा मरोड़ा है कि लगता ही नहीं कि मीणा ही यहाँ के मूल शासक थे। ऐसा लगभग पूरे भारत के इतिहास में किया गया है लेकिन गलत धारणाओं को दोहराते रहने से और शोध की कमी से सच पर से कभी पर्दा ही नहीं उठा।
साल्वों और अन्य जनपदों के सम्बन्ध अच्छे रहे थे और इसी कारण कुरु जनपद के पांडव अज्ञातवास के दौरान इस क्षेत्र में खूब घूमे थे। पांडवों के इस क्षेत्र में निवास के कई चिह्न आज भी मौजूद हैं ,जो जन मानस में छाये हुए हैं। उनको लेकर कई कथाएँ भी हैं।पांडुपोल और ताल वृक्ष उसी दौर की कहानियों से अटे पड़े हैं। वहीँ माल्व जनपद के भ्रर्थरीकी भी तपोभूमि यहाँ रही है। अवंति के न्याय प्रिय शासक विक्रमादित्य के भाई भ्रर्थरी ने शासन का त्याग कर ऐसा उदाहरण दिया कि उनके नाम पर बने नाटक जनता में हरिश्चंद्र के नाटकों के बराबर लोकप्रिय हुए। भ्रर्थरी ने यहीं पर नीति शतक श्रृंगार शतकऔर वैराग्य शतक रचे थे।
मगध में मौर्यों के शासन के समय बौद्ध धर्म को यहाँ भी सम्मान दिया गया था और ऐसा बैराठ(अब जयपुर जिला) में मिले अवशेषों से ज्ञात होता है। गुप्तों और वर्धनों के शासन के बाद जब प्रतिहार शासन कन्नौज(उ.प्र.) से भीनमाल और मंडोर तक फैला थातो मीनों ने उनका साथ दिया था। दिल्ली में अर्जुन के वंशज तोमरों(तंवरों) से भी इनके मधुर सम्बन्ध रहे। इसके बाद जब चौहान सत्ता दिल्ली तक फैलीतब मीने उनके भी सहयोगी बने थे। इस समय एक तरफ से नागवंशी प्रतिहार और चौहानतो दूसरी तरफ से सूर्यवंशी तोमर और चंद्रवंशी यादवमत्स्य क्षेत्र के मैदानी भागों पर नियंत्रण करने में लगे थे। इनके वंशज गुर्जरजाट और यादवों के रूप में अपने शासन मैदानों में स्थापित करने लगे थे। मीने अरावली और विन्ध्य की पहाड़ियों में सिमटने लगे थे। फिर भी इन सब में एक स्वस्थ समन्वय था। दौसा का दोहरा शासन (गुर्जर+मीणा) इसका सशक्त उदाहरण था।
   इस सामाजिक-राजनैतिक समन्वय पर पर तभी एक नई ताकत ने वार किया। जयपुर के पास खो गंग के मीणा शासक अलंसी को धोखे से नरवर(म.प्र.) से उसकी शरण में आये दूल्हा कछवाह ने मार दिया। एक एक कर कच्छवाह सभी मीनों से शासन छिनते गए और इससे अलवर का दक्षिणी क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा। तभी दिल्ली में बड़ा तख्ता पलट हुआ और वहाँ पश्चिम से आये सुल्तानों का राज कायम हो गया।
सल्तनत के समय यह क्षेत्र भी दिल्ली के अधीन हो गया। फिरोजशाह के समय जब स्थानीय मूल शासक जातियों को धर्म परिवर्तन करने पर राज में हिस्सा देने की पेशकश हुई तो इस क्षेत्र के यादवों ने पहल की और मेव बनकर राज पा ही लिया। येखानजादेकहलाये। मीने तो तब तक शासन से हट ही चुके थे।उनका शासन अब जयपुर के आसपास ही बच गया था। इस क्षेत्र के मीने खेती में लग गए थे और जागीरदार बन गए।सल्तनत खत्म हुई तो मुग़ल आ गए। लेकिन इसी बीच मेवाड़ के राना सांगा ने भारत में स्थानीय शासन के लिए एक आखिरी कोशिश की। तब अलवर के हसन खां मेवाती ने उनका साथ दिया था और खानवा के युद्ध(१५२७) में वे भी शहीद हुए थे। उन्होंने इस जिहाद में भी धर्म के स्थान पर राष्ट्र को अधिक महत्व दिया था।
मुगलिया शासन में इस क्षेत्र पर मेव मुगलों के अधीन राज करते रहे। लेकिन मुगलों के कमजोर पड़ने पर कुछ समय के लिए यहाँ पर जाटों का शासन स्थापित हो गया। जाटों ने जयपुर के शासक माधोसिंह कच्छवाहा प्रथम के समय उनके दरबार से बेदखल किये गए माचेडी के प्रताप सिंह नरूका को अपने यहाँ शरण दे दी। नरूका (नरवरका यानि नरवर का) कछवाहों के ही वंशज थे। नरूका ने समय देखकर पाला बदल लिया और जयपुर के शासकों की मदद से १७७५ में अलवर का राज पाने में कामयाब हो गए। ध्यान रहे कि प्रतापसिंह नरूका ने १७७५ में अलवर में अपना शासन स्थापित किया थान कि अलवर की स्थापना की थी। अलवर तो प्राचीन समय से ही स्थापित था। मेवों के राज में भी यहाँ पर बाला किला बन चुका था।
नरुकों का राज ठीक से जमा ही नहीं था कि मराठे राजस्थान का नाप तौल करने करने लगे थे।घबराये नरुकों ने १८०३ में अंग्रेजों से परस्पर मित्रता की संधि कर ली। राजस्थान में अंग्रेजों की यह पहली संधि थे। बाद में भरतपुर ने १८०५ में संधि की थी। १८१७ में नरुकों ने अंग्रेजों की अधीनता ही स्वीकार कर ली थी। और फिर निश्चिन्त होकर इन शासकों ने जमकर मौज मस्ती की। बख्तावर सिंह की मूसी रानी और विनय सिंह का वेश्याओं के चित्र बनवाना इस मौज के प्रमाण बने। लेकिन परदे के पीछे मेव दीवान ही अंग्रेजों के इशारे पर वास्तविक राज करते थे। फिर भी इन नरुकों ने देश आजाद होने तक अंग्रेजों की खूब सेवा और खुशामद की थी।
१४ मई १९२५को नीमूचना कांड में यहाँ पर पुलिस की गोली से ९५ राजपूत किसान मरे तोजलियांवाला बाग कांड की यादें ताज़ा ही गयीं। १९३२-३३ में तो यहाँ के अय्याश शासक जयसिंह को अंग्रेजों ने कुप्रबंध के कारण देश निकाला ही दे दिया। जयसिंह पेरिस में शराब के अधिक सेवन के कारण चल बसे थे। इसके एक दशक बाद राजस्थान में देश की आज़ादी की गर्मी भी अलवर ने ही सबसे पहले महसूस की,जब फरवरी १९४८ में यहाँ के शासक तेजसिंह को दिल्ली में नजरबन्द कर उनसे विलय की संधि पर हस्ताक्षर करवा लिए गए। फिर १८ मार्च १९४८ को अलवर में ही मत्स्य संघ का उद्घाटन हो गया। कन्हैया लाल मुंशी ने अलवर क्षेत्र के प्राचीन महत्व को देखते हुए यह नाम रखा था। राजस्थान के एकीकरण का यह पहला चरण था। मत्स्य संघ में अलवर के साथ भरतपुर,धौलपुरकरौली रियासतें और नीमराना ठिकाना शामिल थे। केंद्रीय मंत्री वी.एन. गाडगिल ने इस संघ का उद्घाटन किया था। शोभाराम कुमावत इस संघ के प्रधानमंत्री बने थेजबकि धौलपुर के शासक उदयभान सिंह को संघ का राज प्रमुख बनाया गया था। मई १९४९ में मत्स्य संघ का राजस्थान में विलय हो गया। अलवर अब एक जिला बन गया।
यहाँ के स्वतंत्रता सेनानियों में प्रमुख थे- पंडित सालगरामइन्द्रसिंह आजादलक्ष्मण स्वरुप त्रिपाठीपंडित भोलानाथ,हरिनारायण शर्मानथुराम मोदी,कुंजबिहारी लाल मोदी,शोभाराम कुमावतकृपादयाल माथुर और रामचंद्र उपाध्याय।

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