Saturday, 13 April 2019

कुषाण जाट - इतिहास

कुषाण वंश 

युइशि जाति', जिसे 'यूची क़बीला' के नाम से भी जाना जाता है, का मूल अभिजन तिब्बत के उत्तर-पश्चिम में 'तकला मक़ान' की मरुभूमि के सीमान्त क्षेत्र में था। हूणों के आक्रमण प्रारम्भ हो चुके थे युइशि लोगों के लिए यह सम्भव नहीं था कि वे बर्बर और प्रचण्ड हूण आक्रान्ताओं का मुक़ाबला कर सकते। वे अपने अभिजन को छोड़कर पश्चिम व दक्षिण की ओर जाने के लिए विवश हुए। उस समय सीर नदी की घाटी में शक जाति का निवास था। यूची क़बीले के लोगों ने कुषाण वंश प्रारम्भ किया।
युइशि लोगों के पाँच राज्यों में अन्यतम का कुएई-शुआंगा था। 25 ई. पू. के लगभग इस राज्य का स्वामी कुषाण नाम का वीर पुरुष हुआ, जिसके शासन में इस राज्य की बहुत उन्नति हुई। उसने धीरे-धीरे अन्य युइशि राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया। वह केवल युइशि राज्यों को जीतकर ही संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने समीप के पार्थियन और शक राज्यों पर भी आक्रमण किए। अनेक ऐतिहासिकों का मत है, कि कुषाण किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं था। यह नाम युइशि जाति की उस शाखा का था, जिसने अन्य चारों युइशि राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। जिस राजा ने पाँचों युइशि राज्यों को मिलाकर अपनी शक्ति का उत्कर्ष किया, उसका अपना नाम कुजुल कडफ़ाइसिस था। पर्याप्त प्रमाण के अभाव में यह निश्चित कर सकना कठिन है कि जिस युइशि वीर ने अपनी जाति के विविध राज्यों को जीतकर एक सूत्र में संगठित किया, उसका वैयक्तिक नाम कुषाण था या कुजुल था। यह असंदिग्ध है, कि बाद के युइशि राजा भी कुषाण वंशी थे। राजा कुषाण के वंशज होने के कारण वे कुषाण कहलाए, या युइशि जाति की कुषाण शाखा में उत्पन्न होने के कारण—यह निश्चित न होने पर भी इसमें सन्देह नहीं कि ये राजा कुषाण कहलाते थे और इन्हीं के द्वारा स्थापित साम्राज्य को कुषाण साम्राज्य कहा जाता है।
कुषाण भी शकों की ही तरह मध्य एशिया से निकाले जाने पर क़ाबुल-कंधार की ओर यहाँ आ गये थे। उस काल में यहाँ के हिन्दी यूनानियों की शक्ति कम हो गई थी, उन्हें कुषाणों ने सरलता से पराजित कर दिया। उसके बाद उन्होंने क़ाबुल-कंधार पर अपना राज्याधिकार क़ायम किया। उनके प्रथम राजा का नाम कुजुल कडफ़ाइसिस था। उसने क़ाबुल – कंधार के यवनों (हिन्दी यूनानियों) को हरा कर भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसे हुए पह्लवों को भी पराजित कर दिया। कुषाणों का शासन पश्चिमी पंजाब तक हो गया था। कुजुल के पश्चात् उसके पुत्र विम तक्षम ने कुषाण राज्य का और भी अधिक विस्तार किया। भारत की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति का लाभ उठा कर ये लोग आगे बढ़े और उन्होंने हिंद यूनानी शासकों की शक्ति को कमज़ोर कर शुंग साम्राज्य के पश्चिमी भाग को अपने अधिकार में कर लिया। विजित प्रदेश का केन्द्र उन्होंने मथुरा को बनाया, जो उस समय उत्तर भारत के धर्म, कला तथा व्यापारिक यातायात का एक प्रमुख नगर था।[1]

कुषाण वंश

कुषाण वंश (लगभग 30 ई. से लगभग 225 ई. तक) ई. सन् के आरंभ से शकों की कुषाण नामक एक शाखा का प्रारम्भ हुआ। विद्वानों ने इन्हें युइशि, तुरूश्क (तुखार) नाम दिया है । युइशि जाति प्रारम्भ में मध्य एशिया में थी। वहाँ से निकाले जाने पर ये लोग कम्बोज-बाह्यीक में आकर बस गये और वहाँ की सभ्यता से प्रभावित रहे। हिंदुकुश को पार कर वे चितराल देश के पश्चिम से उत्तरी स्वात और हज़ारा के रास्ते आगे बढ़ते रहे। तुखार प्रदेश की उनकी पाँच रियासतों पर उनका अधिकार हो गया। ई. पूर्व प्रथम शती में कुषाणों ने यहाँ की सभ्यता को अपनाया। कुषाण वंश के जो शासक थे उनके नाम इस प्रकार है-
  1. कुजुल कडफ़ाइसिस: शासन काल (30 ई. से 80 ई तक लगभग)
  2. विम तक्षम: शासन काल (80 ई. से 95 ई तक लगभग)
  3. विम कडफ़ाइसिस: शासन काल (95 ई. से 127 ई तक लगभग)
  4. कनिष्क प्रथम: शासन काल(127 ई. से 140-50 ई. लगभग)
  5. वासिष्क प्रथम: शासन काल (140-50 ई. से 160 ई तक लगभग)
  6. हुविष्क: शासन काल (160 ई. से 190 ई तक लगभग)
  7. वासुदेव प्रथम
  8. कनिष्क द्वितीय
  9. वशिष्क
  10. कनिष्क तृतीय
  11. वासुदेव द्वितीय
इस सूची से अलग भी कुषाण राजा हुए हैं जिनका अधिक महत्त्व नहीं है और इतिहास भी स्पष्ट ज्ञात नहीं

कुजुल कडफ़ाइसिस

कुषाणों के एक सरदार का नाम कुजुल कडफ़ाइसिस था । उसने क़ाबुल और कन्दहार पर अधिकार कर लिया । पूर्व में यूनानी शासकों की शक्ति कमज़ोर हो गई थी, कुजुल ने इस का लाभ उठा कर अपना प्रभाव यहाँ बढ़ाना शुरू कर दिया । पह्लवों को पराजित कर उसने अपने शासन का विस्तार पंजाब के पश्चिम तक स्थापित कर लिया। मथुरा में इस शासक के तांबे के कुछ सिक्के प्राप्त हुए है ।

विम तक्षम

विम तक्षम लगभग 60 ई. से 105 ई. के समय में शासक हुआ होगा। विम बड़ा शक्तिशाली शासक था। अपने पिता कुजुल के द्वारा विजित राज्य के अतिरिक्त विम ने पूर्वी उत्तर प्रदेश तक अपने राज्य की सीमा स्थापित कर ली। विम ने राज्य की पूर्वी सीमा बनारस तक बढा ली। इस विस्तृत राज्य का प्रमुख केन्द्र मथुरा नगर बना। विम के बनाये सिक्के बनारस से लेकर पंजाब तक बहुत बड़ी मात्रा में मिले है।

कनिष्क

कनिष्क कुषाण वंश का प्रमुख सम्राट कनिष्क भारतीय इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान रखता है। कुमारलात की कल्पनामंड टीका के अनुसार इसने भारतविजय के पश्चात् मध्य एशिया में खोतान जीता और वहीं पर राज्य करने लगा। इसके लेख पेशावर, माणिक्याल (रावलपिंडी), सुयीविहार (बहावलपुर), जेदा (रावलपिंडी), मथुराकौशांबी तथा सारनाथ में मिले हैं, और इसके सिक्के सिंध से लेकर बंगाल तक पाए गए हैं। कल्हण ने भी अपनी 'राजतरंगिणी' में कनिष्क, झुष्क और हुष्क द्वारा कश्मीर पर राज्य तथा वहाँ अपने नाम पर नगर बसाने का उल्लेख किया है। इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट कनिष्क का राज्य कश्मीर से उत्तरी सिंध तथा पेशावर से सारनाथ के आगे तक फैला था।

कुषाण जाट -इतिहास

वासिष्क के पश्चात्, कनिष्क का राज्य उससे छोटे पुत्र हुविष्क को मिला। इसने काश्मीर में अपने नाम से हुष्कपुर नामक नगर बसाया जो कि आज कल उस्कपुर कहलाता है। जब ह्नानचांग काश्मीर गया था, तब इसी हुष्कपुर के बिहार में ठहरा था। मथुरा में एक और भी बिहार था। उसके सिक्के कनिष्क के सिक्कों से भी अधिक संख्या में और विविध प्रकार के पाए जाते हैं। उन सिक्कों में यूनानी, ईरानी और भारतीय, तीनों प्रकार के सिक्कों के चित्र हैं। इसने 120 ई. से 140 ई. सन् तक राज्य किया । कुछ लोग कहते हैं कि इसका शासन-काल 162 ई. से 182 ई. तक था। काबुल, काश्मीर और मथुरा के प्रदेश इसके राज्य में शामिल थे। इसके सोने चांदी के सिक्के मिलते हैं। जिन पर ‘हूएरकस’ लिखा रहता है। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज - पृष्ठ 207)

कुषाण जाट


कुषाण - जाट इतिहास लेखक ठाकुर देशराज ने पृ० 168 पर लिखा है कि “पाण्डवों के महाप्रस्थान के समय उनके साथ अनेकों यादव साइबेरिया तक पहुंचे और वहां यादवों ने वज्रपुर बसाया। ये लोग चीनी भाषा में यूची अथवा कुशान कहलाये।” यही लेखक आगे पृ० 197-198 पर लिखते हैं कि “राजतरंगिणी का लेखक इन्हें तुरुष्क और आधुनिक विद्वान् यूहूची व यूचियों की एक शाखा मानते हैं। चीनी इतिहासकारों की एक राय यह भी है कि कुशान लोग ‘हिगनू’ लोग हैं। ये लोग हर हालत में जाट हैं। चौ० रामलाल हाला ने भी कुषाणों को जाट लिखा है। कुषाण वे लोग हैं जो पाण्डवों के साथ महाप्रस्थान में कृष्णवंशियों में से गये थे। कृष्णवंशियों को संस्कृत में कार्ष्णेय तथा कार्ष्णिक कहा है जिसका अपभ्रंश शब्द कुशन बन गया जो जाटों के अन्तर्गत पाये जाने वाले कुशवान या कुशान गोत्र हैं।” आगे यही लेखक पृ० 199 पर लिखते हैं कि “भारतवर्ष में जाट राज्य के लिए ‘जाटशाही’ का प्रयोग किया जाता है और कुशानवंशी राजाओं के लिए भी ‘शाही’ अथवा ‘शहनशाही’ का प्रयोग किया जाता था। देवसंहिता में जाटों को देव या देवताओं के समान लिखा है। कुशानवंशी राजाओं के लेखों में इनकी उपाधि देवपुत्र लिखी हुई मिलती है।”
“मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति”, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार ने पृ० 164 पर लिखा है कि “कुषाणवंशी राजा युइशि (जाट) थे।”
“(जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज” में बी० एस० दहिया ने पृ० XI पर लिखा है कि “कुषाण लोगों का शुद्ध नाम कसवांन है तथा इस गोत्र के जाट आज भी हरयाणा व राजस्थान प्रान्तों में विद्यमान हैं।” आगे इसी लेखक ने पृ० 32 पर लिखा है कि वी. वाई. जेजन्कोव (Y.V. Zezenkova) ने ‘कुषाण स्टड्डीज इन यू. एस. एस. आर.’ के पृ० 150-151 पर लिखा है कि “कुषाण लोग आर्यवंशज हैं।” इन उदाहरणों से सिद्ध हो जाता है कि कुषाण लोग जाट थे।

कुषाणवंश जाटराज्य (सन् 40 ई० से 220 ई० तक)

दलीप सिंह अहलावत ने लिखा है:
कुषाणवंश के प्रकरण में उदाहरण देकर प्रमाणित किया है कि कुषाण लोग जाट थे। इनके राज्य की स्थापना तथा राज्य-विस्तार के विषय में लिखा जाता है।
चीनी इतिहासज्ञ शीकीचेंगा के अनुसार यू-ची (जाट) लोग चीन के प्रान्त कांसू में रहते थे। हिंगनू (जाटवंश) जो बाद में हूण कहलाये, उनके पड़ौसी थे। आरम्भ में जाट बड़े शक्तिशाली थे और हिंगनू लोगों को दुर्बल समझते थे। किन्तु आने वाले समय में जब तोयुमान का पुत्र माऊदून इन हिंगनू (हूणों) लोगों का एक शक्तिशाली शासक बना तब उसने जाटों पर आक्रमण करके हरा दिया। उसने अपनी इस विजय की सूचना एक पत्र द्वारा 176 ई० पू० में चीन के सम्राट् को दी।
हिंगनू (हूणों) के दबाव से जाट लोग दक्षिण और पश्चिम की ओर चले गये। इनके दो बड़े विभाग थे जिनमें से एक का नाम चीनी भाषा में “ता-यूची” तथा यूनानी एवं यूरोपियन भाषा में “मस्सा-गेटाई” था। दोनों का अर्थ शक्तिशाली जाटसंघ है। दूसरे विभाग का नाम चीनी भाषा में “सीऊ-यूची” और यूनानी एवं यूरोपियन भाषा में थीस्सा-गेटाई था। दोनों का अर्थ छोटा जाटसंघ है। थीस्सागेटाई तिब्बत की ओर चले गये और मस्सागेटाई पश्चिम की ओर गये।
मस्सागेटाई लोगों ने बैक्ट्रिया (बल्ख) तथा उसके समीपवर्ती प्रदेशों में पहली सदी ई० पू० में अपने पांच राज्य स्थापित किये। इन राज्यों में एक राज्य कुषाणवंश के जाटों का था। 40 ई० में इस कुषाण राज्य का शासक “कुजुल कफस कदफिसस” नामक वीर पुरुष हुआ। उसने धीरे-धीरे अन्य चार जाटों के राज्यों को जीत लिया और अपने प्रभाव से सब पांचों शाखाओं को एक कर

1. मध्यएशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 92, 93, 94 लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।



दिया। तभी से वे सब जाट शाखायें कुषाण कहलाने लगीं। उसने हिन्दुकुश पर्वतमाला को पार करके काबुलकन्धार पर आक्रमण किए और वहां से पार्थियन (पल्लव जाट) लोगों के शासन का अन्त कर दिया। इस तरह से इसका राज्य बैक्ट्रिया और फारस की सीमा से अफगानिस्तान तक फैल गया1
कुजुल कफस कट्फिसस (सन् 40 से 78 ईस्वी तक) -
इस सम्राट् ने भारतवर्ष से बाहिर मध्यएशिया में सन् 40 ई० में कुषाण साम्राज्य की नींव रखी और इसका विस्तार किया। उस समय में कुषाणवंश अन्य सब जातियों से प्रसिद्ध हो गया। इस सम्राट् के अधीन बैक्ट्रिया आ गया जहां पर राजधानी बनाकर आक्रमण आरम्भ कर किए। इसने बोखारा, बलोचिस्तान, सिंध नदी और ईरान की सीमा के बीच के सब प्रदेश जीत लिये और पार्थियन (पल्लव जाट) राज्य को समाप्त कर दिया। इसने सूर्य, शिवि, नन्दी सहित देवता, बुद्ध मूर्ति और खड़े होकर आहुति देने के अपने चित्र सहित तांबे और कांशी के सिक्के प्रचलित किए। कई सिक्के जो काबुलगाजीपुर (यू० पी०), कच्छ काठियावाड़ आदि से प्राप्त हुए उनमें खरोष्ठी लिपि में लिखा हुआ मिला है - “कुजुल कफ्सस सचध्रमदिसस”, “कुषनम युवस कुजुल कफसस सचध्रमदिसस।” एक सिक्के पर उसके नाम के साथ ‘महरजस’, ‘रय रयस’ और ‘देवपुत्रस’ विशेषण भी दिए गए हैं, जो कि संकेत करता है कि उसने बौद्धधर्म को अपना लिया था। इस नरेश का 80 वर्ष की आयु में सन् 78 ईस्वी में स्वर्गवास हो गया।
विम कदफिसस द्वितीय (सन् 78 से 110 ईस्वी तक) -
कुजुल कफस कदफिसस की मृत्यु होने पर उसका पुत्र विम कदफिसस द्वितीय राजगद्दी पर बैठा। इसने पंजाब में कई यूनानी और शक (जाट) राजाओं को जीत लिया। इसने उत्तरी भारत में बनारस तथा दक्षिण में नर्मदा नदी तक अपने कुषाण साम्राज्य को बढ़ाया।
इस नरेश ने चीनी सम्राट् की राजकुमारी से विवाह करने का प्रस्ताव भेजा। परन्तु चीनियों ने इसके दूतों को अपमानित किया। इसी कारण इस सम्राट् ने अपने 70 सहस्र सैनिक भेजकर चीनी सम्राट् की राजकुमारी छीनने के लिए चढ़ाई कर दी। चीन की सेना के शूरवीर सेनापति पान-छाओ ने कुषाण सेना को असफल कर दिया। इसके बाद चीन-भारत के आपसी सम्बन्ध बिगड़ गए।
इस नरेश ने अन्य देशों तथा रोम साम्राज्य के साथ भारतीय व्यापार स्थापित करके भारत की माली हालत को उन्नत किया। इसने सोने एवं चांदी के सिक्के प्रचलित किए। इसके सिक्कों पर लेख इस प्रकार के हैं - “महरशस रजयिरस सब लोग ईश्वरस महिश्वरस विम कथफिशस भरतस”। मथुरा में इस राजा की एक मूर्ति मिली है जिस पर लिखा है “महाराजो राजाधिराजो देवपुत्रो कुषाण पुत्रो वेम”। इसके कुछ सिक्कों पर शिव तथा नन्दी की प्रतिमाएं तथा त्रिशूल अंकित हैं। इस सम्राट् की सन् 110 ई० में मृत्यु हो गई।

1. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 25, 26, 27 लेखक बी० एस० दहिया, जाट इतिहास पृ० 199, लेखक ठा० देशराज, जाटों का उत्कर्ष, पृ० 345, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री, हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 256-257, मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 57, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।



सम्राट् कनिष्क (सन् 120 से सन् 162 ईस्वी तक) -
विम कदफिसस द्वितीय की मृत्यु के 10 वर्ष बाद सम्राट् कनिष्क इस कुषाण साम्राज्य का शासक बना। इस 10 वर्ष के शासन के विषय में भिन्न-भिन्न राय हैं।
  • (1) कनिष्क, कुषाणों की दूसरी शाखा के राजा बाझेष्क के पुत्र थे। (जाट इतिहास, पृ० 200, ठा० देशराज)।
  • (2) कनिष्क से पहले देवपुत्र तुरुष्क का शासन 10 वर्ष तक रहा जिसका उत्तराधिकारी कनिष्क हुआ (जाटों का उत्कर्ष पृ० 346, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।
  • (3) कुछ इतिहसकारों का मत है कि कनिष्क सन् 78 ई० में राजगद्दी पर बैठा। किन्तु इतिहासज्ञ डा० वेन्सन्ट स्मिथ, सर जॉन मार्शिल, प्रो० कोनोव आदि का मत है कि वह सन् 120 ई० में राजा बना। यह ठीक तौर से ज्ञात नहीं है कि उसके हाथ शासन की बागडोर कैसे आई। इस सम्राट् ने सन् 120 से सन् 162 तक 42 वर्ष शासन किया जिसकी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी।
सम्राट् कनिष्क सिकन्दर महान् की तरह महत्त्वाकांक्षी एवं विजेता था। उसकी प्रसिद्धि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक के समान मानी जाती है। वास्तव में वह कुषाण साम्राज्य का सबसे महान्, प्रसिद्ध और जनताप्रेमी सम्राट् था।
सम्राट् कनिष्क की विजयें - यह बड़ा शूरवीर और युद्धप्रिय सम्राट् था। इसने कश्मीर को जीतकर वहां कनिष्कपुर नगर बसाया। उत्तरी भारत तथा दक्षिणी मालवा उज्जैन से शक क्षत्रपों (राज्यपालों या गवर्नरों) को जीत लिया और वहां अपना शासन स्थिर किया। इसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया और मगध राज्य का कुछ भाग जीत लिया।
इसने चीनी तुर्किस्तान (सिंगकियांग) के काशगरयारकन्दखोतन और तारिम नदी की घाटी में आबाद अनेक प्रान्तों को चीन के कब्जे से छुड़ा लिया और अपने साम्राज्य में मिला लिया। (देखो इसी अध्याय में चीन के साथ सम्राट् कनिष्क का युद्ध प्रकरण)।
पाटलिपुत्र से मध्य एशिया तक इस विशाल कुषाण साम्राज्य का केन्द्रबिन्दु गान्धार देश था जहां पर सम्राट् कनिष्क ने पुरुषपुर (पेशावर) में अपनी राजधानी बनाई। इसने अपने साम्राज्य को कई प्रान्तों में बांट रखा था जिसमें बैक्ट्रिया(बल्ख), यारकन्दखोतनकाशगरअफगानिस्तानपंजाबसिन्धकश्मीर और मथुरा प्रसिद्ध व महत्त्वपूर्ण प्रान्त थे। इन प्रान्तों पर क्षत्रप (राज्यपाल) शासक नियुक्त किये गये थे।
डा० राय चौधरी के शब्दों में “कनिष्क की प्रसिद्धि एक विजेता के तौर पर इतनी नहीं है जितनी कि धर्म के फैलाने व कलापूर्ण भवनों का निर्माण कराने में है। कनिष्क ने बौद्ध-धर्म को भारत के अतिरिक्त चीन, जापान, तिब्बत और मध्यएशिया में फैलाया।”
इसने कश्मीर में चौथी बौद्धसभा का आयोजन किया (देखो लल्ल गठवाला मलिक प्रकरण तृतीय अध्याय)। यह सभा कश्मीर में ‘कुंडलवन’ के स्थान पर हुई थी।



इस सभा में देश-विदेशों से 500 बौद्ध साधु तथा अन्य धर्म के 500 पण्डित आये थे। इस सम्मेलन के सभापति विश्वमित्र तथा उपसभपति अश्वघोष बनाये गये। इन विद्वानों ने समस्त बौद्ध ग्रन्थों का सार संस्कृत भाषा के एक लक्ष श्लोकों में ‘सूत्र पिटक’, ‘विनय पिटकि’ और ‘अभिधर्म पिटक’ नामक तीन महाभाष्यों में रचा। वे सब ताम्रपत्र नकल करके एक स्तूप में दबाये गये जो कि कनिष्क ने इसीलिए बनवाया था। यदि खुदाई करके इनको खोज लिया जाए तो संसार के इतिहास का नक्शा ही बदल जाय।
कनिष्क बौद्ध होकर भी यज्ञप्रथा का समर्थक और स्वयं कट्टर याज्ञिक था। शिव के प्रति आस्था का भी परिचय इसके सिक्कों से प्राप्त हुआ है। यह सभी धर्मों का आदर करता था। इसके दरबार में बड़े-बड़े विद्वान्, दार्शनिक, वैज्ञानिक, वैद्य आदि थे जिनमें अश्वघोष, विश्वमित्र, नागार्जुन और आचार्य चरक प्रसिद्ध हैं।
कनिष्क ने पेशावर में विशाल बौद्धस्तूप, कश्मीर, तक्षशिला, मथुरा, सारनाथ आदि में अनेक कलापूर्ण भवनों का निर्माण कराया। इसने शक संवत् की स्थापना की।
कनिष्क ने “राजात् राजस्य देवपुत्र शाही” की उपाधि धारण की जिसे उसके पुत्रों ने भी प्रचलित रखा। इन राजाओं के शिलालेखों पर इनके नामों के साथ “देव पुत्रस्य राजात् राजस्य शाहे” लिखा मिलता है। इलाहाबाद के स्तम्भ पर भी “देवपुत्र शाही-शाहनशाही” लिखा हुआ है। इस स्तम्भ पर समुद्रगुप्त के साथ शाही वंश के राजा की सन्धि का उल्लेख है।
सम्राट् कनिष्क ने भारतवर्ष के व्यापार को बड़ा उन्नत किया। इसने रोम, आंध्र, चीन और पार्थियन आदि बड़े-बड़े साम्राज्यों के साथ समुद्री तथा हवाई मार्गों से व्यापार करके भारत की आर्थिक दशा को बढ़ाकर इसे धनाढ्य बना दिया। इस सम्राट् ने पेशावर में लकड़ी का एक 400 फुट ऊंचा स्तूप बनवाया जो अपनी सुन्दरता में अद्वितीय था। कनिष्क ने 78 A.D. में शक संवत् प्रचलित किया।
सम्राट् कनिष्क एक ऊंचा विशालकाय योद्धा था जिसने 42 वर्ष तक शासन किया और जिसे 105 वर्ष की आयु में उसके सेनापतियों ने 162 ई० में धोखे से मार दिया। इस सम्राट् के दो पुत्र वासिष्क व हुविष्क थे।
वासिष्क - कनिष्क के मरने के बाद उसका पुत्र वासिष्क शासक बना। यह पिता की अनुपस्थिति में भी राज्य कार्य सम्भालता था। कुछ इतिहासज्ञों का कहना है कि इसका राज्य-काल कनिष्क के राज्य-काल के अन्तर्गत था। मथुरा के पास ईसापुर में इसका एक लेख पत्थर के यज्ञ-स्तम्भ पर लिखा मिला है जोकि अब मथुरा के अजायबघर में है। उस पर इसे “महाराज राजाधि राज देवपुत्र शाही वासिष्क” लिखा हुआ है।
हुविष्क - वासिष्क के बाद कनिष्क का राज्य उसके छोटे पुत्र हुविष्क को मिला। इसका शासन सन् 162 ई० से 182 ई० तक रहा। इसने अपने विशाल साम्राज्य को सुरक्षित रखा। इसने कश्मीर में अपने नाम पर हुष्कपुर नामक नगर बसाया। जब ह्वानचांग कश्मीर गया तब इसी नगर के विहार में ठहरा था। इसके सोने, चांदी के सिक्के मिलते हैं जिन पर यूनानी, ईरानी और भारतीय, तीनों प्रकार के सिक्कों के चित्र हैं। इन सिक्कों पर ‘हूएरकस’ लिखा मिलता है।
वासुदेव - हुविष्क की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र वासुदेव राजगद्दी पर बैठा। इसका शासन



सन् 182 से 220 ईस्वी तक रहा। इसके जो लेख मिलते हैं उनमें इसकी उपाधि “महाराजा राजाधिराज देवपुत्र शाही वासुदेव” मिलती है। इसके सिक्के सोने, चांदी, तांबे के मिलते हैं जिन पर एक ओर इसकी मूर्ति और दूसरी ओर शिव मूर्ति बनी हुई होती है। इसके समय में कुषाण साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लग गया था1
कुषाण साम्राज्य का अन्त -
वासुदेव के उत्तराधिकारी बड़े दुर्बल थे जो कि इस विशाल साम्राज्य को सम्भालने में असफल रहे। भारत में गंगा-यमुना एवं मध्य प्रदेश के क्षेत्रों से भारशिव-नागवंश (जाटवंश) के राजाओं ने कुषाणों के शासन का अन्त कर दिया औरसातवाहनों (शातकर्णी जाटवंश) ने दक्षिण पथ से कुषाणों को उखाड़ दिया। राजस्थान में मालव गण (जाटवंश) तथा पंजाब, हरयाणा में यौधेय (जाटवंश) तथा कुणिन्द गणों ने स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली जिसके कारण वहां से भी कुषाणों के प्रभुत्व का अन्त हो गया। पर अफगानिस्तान तथा उत्तर पश्चिमी भारत इस समय भी कुषाणों की अधीनता में रहे और उनके “देवपुत्र शाहिशाहानुशाही” राजाओं का शासन वहां कायम रहा। सम्राट् समुद्रगुप्त (335 ई० से 375 ई०धारण गोत्र के जाट) ने अपनी दिग्विजय द्वारा इन कुषाण राजाओं को जीतकर, कर (टैक्स) लगाया। समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारियों में चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (380 से 413 ई०) ने गांधार, कम्बोज (अफगानिस्तान तथा उसके परे का प्रदेश) तथा वाह्लीक (बल्ख) के प्रदेशों को कुषाणों से जीतकर अपने राज्य की सीमा को अमू दरिया तक विस्तृत किया। परन्तु गुप्तवंश के शासक इन प्रदेशों को देर तक अपने अधीन नहीं रख सके, हूणों ने इनको जीत लिया।
इसी समय ईरान में सासानी वंश के राजाओं ने अपने शक्ति बढ़ा ली और मध्य एशिया के कई कुषाण प्रदेशों को विजय कर लिया। मध्य एशिया के प्रदेशों से कुषाणों के शासन का अन्त करने में प्रधान कर्तृत्व ज्वान-ज्वान या जू-जुन लोगों का था। (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 45 पर बी० एस० दहिया ने जन्जौ-जनजौन जाटवंश लिखा है)।
कुषाणों की निर्बलता से लाभ उठाकर उन्होंने मध्यएशिया में दूर-दूर तक आक्रमण किए, और सुग्ध देश को विजय कर बल्ख में भी प्रवेश किया। यह देश उस समय (चौथी सदी में) ईरान के सासानी सम्राट् के अधीन था। जू-जुन लोगों से उसके अनेक युद्ध हुये। अन्त में जू-जुन लोगों का शासन वहां पर हो गया। इस प्रकार मध्य एशिया से कुषाणों का शासन पूर्ण रूप से उठ गया। पर अफगानिस्तान और पश्चिमी गांधार बाद में भी उनके हाथों में रहे। पांचवीं सदी में हूणों ने ये जीत लिये2
नोट - जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 14 पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि कुषाण जाटों

1. कुषाण जाट राज्य के आधार लेख - (1) ठा० देशराज लिखित जाट इतिहास पृ० 199 से 203; (2) जाटों का उत्कर्ष पृ० 345-46, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 256, 275; (3) भारत का इतिहास पृ० 67-69, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी; (4) मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति, पृ० 12, 57-59, 80-82, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकर।
2. मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति पृ० 81, ले० सत्यकेतु विद्यालंकार।



के राज्य से व्यापारी चीनी व शीशे की वस्तुएं लेकर पांचवीं सदी में चीन के सम्राट् ताईवी (425-451 ई०) के दरबार में पहुंचे और उसको सूचना दी कि महान् जाटों ने अपने नेता किदार के नेतृत्व में पेशावर व गांधार पर अधिकार कर लिया है। (Paul Peliot Op, cit, PP. 42-43)।
श्वेत हूण या हेफताल जाट राज्य -
पिछले पृष्ठों पर इसी अध्याय के श्वेत हूण या हेफताल प्रकरण में प्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि ये लोग जाट थे। कुछ इतिहासकारों का मत है कि ये लोग शक (जाटवंश) जाति के थे, पर हूणों के सम्पर्क में रहने से उनके रहन-सहन तथा संस्कृति पर हूणों का बहुत प्रभाव हो गया था।
कुषाणों का शासन अन्त करने में जू-जुन (जन्जौ जाट) लोगों का बड़ा योगदान था। इन लोगों ने कुषाणों को हराकर मध्यएशिया के कई प्रदेशों पर अपना शासन स्थापित कर लिया। मध्यएशिया के अन्य देशों पर कई अन्य जातियों का राज्य था।
पांचवीं सदी के प्रारम्भ काल में इन शक्तिशाली श्वेत हूणों ने मध्यएशिया के प्रायः सभी प्रदेशों पर आक्रमण शुरु कर दिये। ये लोग तिएनशान पर्वतमाला के उत्तर से होते हुए पश्चिमी मध्यएशिया पहुंच गए, और फिर ताशकन्द से दक्षिण की ओर मुड़कर सिर नदी को पार करके सुग्ध (या सोग्डियान) तथा बल्ख पर अधिकार कर लिया। इस समय बल्ख ईरान के सासानी सम्राटों की अधीनता स्वीकार करता था। अतः इन सम्राटों ने श्वेत हूणों की बाढ़ को रोकने के लिए उनके विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा जो कि लगभग एक सदी तक चलता रहा। श्वेत हूणों से युद्ध करते हुए दो सासानी सम्राट् होरमुज़्द 454 ईस्वी में और फिरोज 484 ईस्वी में मारे गये। अब श्वेत हूण मध्यएशिया की प्रधान राजनैतिक शक्ति बन गये थे। सासानियों को परास्त कर उन्होंने अफ़गानिस्तान पर आक्रमण किया और वहां से पंजाब होते हुए वे भारत के मध्यदेश तक चले आये। स्कन्दगुप्त (धारण गोत्र का जाट सन् 455-467 ई०) ने हूणों का सामना करने में अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित किया और उनसे अपने साम्राज्य की रक्षा की। पर इस समय मध्यएशिया पर श्वेत हूणों का प्रभुत्व भलीभांति स्थापित हो गया था जिनकी राजधानी बोखारा के समीप थी। श्वेत हूणों के केवल दो राजाओं के नाम तोरमान और मिहिरकुल भारत में उपलब्ध हुए हैं। इनका वर्णन भारतवर्ष में जाट राज्य के प्रकरण में लिखा जाएगा1। भारत और ईरान की उन्नत सभ्यताओं के सम्पर्क में आकर श्वेत हूण भी अच्छे सभ्य व सुसंस्कृत हो गये थे और घुमन्तु जीवन का परित्याग कर नगरों में रहने लग गये थे। पर अपने पूर्ववर्ती ऋषिक-तुषारशक आदि जाटों के समान वे भी देर तक मध्यएशिया में शान्तिपूर्वक निवास न कर सके। तुर्क लोगों ने इनकी शक्ति का अन्त कर दिया।
तुर्कों का राज्य -
पिछले पृष्ठों पर तुर्किस्तान एवं तुर्क की परिभाषा की गई है जिसका सारांश यह है - चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पुत्र तुर्वसु के शासित देश का नाम तुर्किस्तान-तुर्की पड़ा तथा तुर्वसु

1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति पृ० 82, ले० सत्यकेतु विद्यालंकार।



के नाम पर तंवर-तोमर जाटवंश प्रचलित हुआ। इस देश में बसे चन्द्रवंशी आर्यों का नाम उनके सौन्दर्य के कारण ‘तुर्वसु’ तथा भाषाभेद से बाद में तुर्की पड़ा। अतः तुर्क लोग जाट हैं*
(जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 4 पर लिखा है कि “तुरवंश (तंवर) की प्रधानता के कारण इस विशाल भूमिखण्ड का नाम तुर्किस्तान पड़ा। जब यहां तातराण (जाटवंश) वंश की प्रधानता हुई तब यह देश तातारी कहलाया।” इसी लेखक ने पृ० 29 पर लिखा है कि “तुर्क शब्द छठी-सातवीं शताब्दियों में प्रचलित हुआ। कुषाणों के शासन काल में यह शब्द प्रचलित नहीं था। मंगोलिया में अल्ताई पर्वत के क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों को सन् 551 ई० में चीनियों ने तुकियू तथा दूसरों ने तुर्क कहा। 551 ई० में पहले इस तुर्क शब्द का प्रयोग नहीं था।”
सत्यकेतु विद्यालंकार की लिखित पुस्तक “मध्यएशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति” के आधार पर –
“चीन के उत्तर पश्चिम में निवास करनेवाली हूण जाति का एक कबीला तुर्क था, जिसका पुराना नाम अस्सेना था। इस कबीले के लोग नुकीली टोपी पहना करते थे, जिसके कारण वे दुर-पो कहलाने लगे। दुर-पो ही आगे बिगड़कर तिर्क या तुर्क हो गया। इस तुर्क कबीले में एक वीर पुरुष बूमिन नामक हुआ। मध्य एशिया से कुषाणों की शक्ति का अन्त करने का प्रधान कर्तृत्व ज्वान-ज्वान (जन्जौ जाट) लोगों का था। समयान्तर में जब इनकी शक्ति भी क्षीण हो गयी, तो तुर्कों ने बूमिन के नेतृत्व में ज्वान-ज्वान लोगों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। उसे परास्त कर बूमिन ने अपने को खागान, कगान या खान घोषित कर दिया। तुर्क लोग राजा के लिए इसी शब्द का प्रयोग करते थे। (पृ० 82-83)।”
जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 67 पर लिखा है कि “खान मुस्लिम पदवी नहीं है। यह मुसलमानों से पहले मध्यएशिया में बौद्ध-धर्मी राजाओं ने अपनाई थी। यह खाकन/कागन/खान शब्द से खान पदवी बनी। भारतवर्ष में यह खान पदवी 14वीं सदी में प्रयोग में लाई गई।”
522 ई० में जब बूमिन की मृत्यु हुई, तब तुर्क कबीला बहुत शक्तिशाली हो चुका था। तुर्कों ने अब शकों, युइशियों तथा श्वेत हूणों (तीनों जाटवंश) के मार्ग का अनुसरण कर पश्चिम की ओर अपनी शक्ति का विस्तार प्रारम्भ किया और कुछ ही समय में तकला मकान मरुभूमि के उत्तर तथा पश्चिम के मध्यएशिया के सब प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इनके साम्राज्य की पश्चिमी सीमा कालासागर तक पहुंच गई।
मध्यएशिया के तुर्क राजाओं (खानों) में तोबा खान का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है। उसका शासनकाल सन् 569 ई० 580 ई० तक था। उसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण यह है कि उसने बौद्ध-धर्म को स्वीकारा और तुर्कों में बौद्ध-धर्म के प्रचार के लिए बहुत कार्य किए।
स्यान-पी हूणों की एक शाखा का वंश था, जिसके नेतृत्व में यह जाति इसिककुल झील के

  • - जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 119 पर लेखक बी० एस० दहिया ने लिखा है कि तुर या तातरान को मध्य एशिया में तुर्क तातार कहा गया जो कि जाट गोत्र है, जिनका छठी सदी एवं बाद में भी अमू दरिया घाटी में शक्तिशाली शासन रहा।



समीपवर्ती प्रदेशों से होती हुई अरल सागरकाला सागर तथा डेन्यूब नदी तक जा पहुंची थी।
तोबा-खान की बौद्ध-धर्म में इतनी रुचि हो गई थी कि उसने अनेक स्तूपों का भी निर्माण करवाया और बौद्ध-धर्म को फैलाया। मध्यएशिया के सुविस्तृत प्रदेशों पर शासन करनेवाले ये तुर्क कबीले उसी प्रकार भारतीय धर्म तथा संस्कृति के प्रभाव में आ गये जैसे कि उससे पहले की यूइशि, शक आदि (जाट) जातियां आई थीं।
तोबा खान के पश्चात् मध्यएशिया का विशाल साम्राज्य दो भागों में विभक्त हो गया। तोबा खान के पुत्र शेतू शेबोलियो (582-587 ई०) ने साम्राज्य के पूर्वी प्रदेशों पर अपना शासन स्थापित किया और भतीजे दालोब्यान ने पश्चिमी प्रदेशों में। इसी के वंशज तुन-शेखू खान के शासनकाल में चीनी यात्री ह्यु-एन-त्सांग पश्चिमी तुर्क साम्राज्य में भी गया था और वहां उसने इस तुर्क राजा से भेंट की थी। ह्यु-एन-त्सांग लिखता है कि तुन-शेखू खान अग्निपूजक था। पर पूर्वी तुर्कों ने बौद्ध-धर्म अपना लिया था। मध्यएशिया के पश्चिमी प्रदेशों का सम्पर्क ईरानियों और यूरोपियन लोगों के साथ भी था। उन दिनों ईरान में पारसी (जरदुस्थी) धर्म का प्रचार था और यूरोप में इसाई धर्म का। पश्चिमी तुर्क इन धर्मों के सम्पर्क में भी आये। इसीलिए मध्यएशिया के पश्चिमी प्रदेशों में बौद्ध-धर्म के साथ साथ पारसी तथा ईसाई धर्म भी पनपने लग गये थे (पृ० 83-84)।

कुषाण साम्राज्य में जाट

डॉ धर्मचंद विद्यालंकार [22] लिखते हैं कि कुषाणों का साम्राज्य मध्य-एशिया स्थित काश्गर-खोतानचीनीतुर्किस्तान (सिकियांग प्रान्त) से लेकर रूस में ताशकंद और समरकंद-बुखारा से लेकर भारत के कपिशा और काम्बोज से लेकरबैक्ट्रिया से पेशावर औए मद्र (स्यालकोट) से मथुरा और बनारस तक फैला हुआ था. उस समय मथुरा का कुषाण क्षत्रप हगमाश था. जिसके वंशज हगा या अग्रे जाट लोग, जो कि कभी चीन की हूगाँ नदी तट से चलकर इधर आये थे, आज तक मथुरा और हाथरस जिलों में आबाद हैं. आज भी हाथरस या महामाया नगर की सादाबाद तहसील में इनके 80 गाँव आबाद हैं. (पृ.19 )
कुषाणों अथवा युचियों से रक्त सम्बन्ध रखने वाले ब्रज के जाटों में आज तक हगा (अग्रे), चाहरसिनसिनवारकुंतलगांधरे (गांधार) और सिकरवार जैसे गोत्र मौजूद हैं. मथुरा मेमोयर्स के लेखक कुक साहब ने लिखा है कि मथुरा जिले के कुछ जाटों ने अपना निकास गढ़-गजनी या रावलपिंडी से बताया है. कुषाण साम्राज्य के अधिकांश क्षेत्र में जाटों की सघन जन संख्या उनको कुषाण वंसज होना सिद्ध करती है.(पृ.20)

1 comment:

  1. Aara gu samrat kanisk gujjar tha gobar kuch pata ha ne itihas ka tana

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