राजस्थान का प्राचीन इतिहासराजस्थान के प्राचीन इतिहास का प्रारंभ प्रागैतिहासिक काल से ही शुरू हो जाता है। प्रागैतिहासिक काल के कई महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल प्राप्त होते जैसे- बागोर से प्राचीनतम पशुपालन के साक्ष्य मिले तथा दर, भरतपुर से प्राचीन चित्रित शैलाश्रय मिली है किंतु यहाँ से कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलते हैं जिसके कारण इनका विस्तृत अध्ययन संभव नहीं हो पाया है। प्राचीनतम साहित्य 6वीं सदी ईस्वी पूर्व से प्राप्त होते हैं जो राजस्थान में जनपद युग का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह जनपद चित्तौड़, अलवर, भरतपुर, जयपुर क्षेत्र में विस्तृत थे तथा यह क्रमशः शिवी, राजन्य, शाल्व एवं मत्स्य जनपद के नाम से जाने जाते थे। कालांतर में महाजनपद का काल आया जिसमें राजस्थान के दो महत्त्वपपूर्ण महाजनपद का वर्णन मिलता है, जो निम्न थे- शुरसेन एवं कुरु जो क्रमशः भरतपुर, धौलपुर एवं अलवर क्षेत्र में विस्तृत थे। महाभारत युद्ध के बाद कुरु और यादव जन-पद निर्बल हो गये। महात्मा बुद्ध के समय से अवन्ति राज्य का विस्तार हो रहा था। समूचा पूर्वी राजस्थान तथा मालवा प्रदेश इसके अंतर्गत था। ऐसा लगता है कि शूरसेन और मत्स्य भी किसी न किसी रूप में अवंति के प्रभाव क्षेत्र में थे।
जनपदकालीन राजस्थान के महत्वपूर्ण जनपदों का उल्लेख नीचे दिया गया है।
जनपदकालीन राजस्थान के महत्वपूर्ण जनपदों का उल्लेख नीचे दिया गया है।
जनपदकालीन राजस्थान
मत्स्य जनपद :-
मत्स्य जनपद में अलवर का क्षेत्र, तथा वर्तमान जयपुर शामिल था मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर (बैराठ) थी। वर्तमान में राज्य का ये भाग मत्स्य क्षेत्र कहलाता है। इसमें अलवर, करौली, दौसा एवं भरतपुर जिले का कुछ भाग आता है। मत्स्य शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
मौर्य युग में मत्स्य जनपद का भाग मौर्य शासकों के अधीन आ गया था। इस संदर्भ में अशोक का भाबु्र शिलालेख अति-महत्त्वपूर्ण है, जो राजस्थान में मौर्य शासन तथा अशोक के बौद्ध होने की पुष्टि करता है। इसके अतिरिक्त अशोक के उत्तराधिकारी कुणाल के पुत्र सम्प्रति द्वारा बनवाये गये मंदिर इस वंश के प्रभाव की पुष्टि करते है। यवन-शुंग-कुषाण काल- मौर्यों के अवसान के बाद शुंग वंश का उत्थान हुआ था। पंतजलि के महाभाष्य से ज्ञात होता है कि शुंगों ने यवनों से माध्यमिका की रक्षा की थी। ईस्वी पूर्व की दूसरी शती में यवन शासक मिनाडंर द्वारा माध्यमिका को विजित किया गया था। नलियासर, बैराठ और नगरी से यवन शासकों के सिक्के मिले है। कनिष्क के शिलालेखानुसार राजस्थान के पूर्वी भागों में उसका राज्य था। कुषाण शासकों के सम्पर्क ने राजस्थान के पत्थर और मृण्मय मूर्ति-कला को एक नवीन मोड़ दिया जिसके नमूने अजमेर के नाद की शिव प्रतिमा, साँभर का स्त्री धड़ अश्व तथा अजामुख ह्यग्रीव या अग्नि की मूर्ति अपने आप में कला के अद्वितीय नमूने है।
मत्स्य जनपद में अलवर का क्षेत्र, तथा वर्तमान जयपुर शामिल था मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर (बैराठ) थी। वर्तमान में राज्य का ये भाग मत्स्य क्षेत्र कहलाता है। इसमें अलवर, करौली, दौसा एवं भरतपुर जिले का कुछ भाग आता है। मत्स्य शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
मौर्य युग में मत्स्य जनपद का भाग मौर्य शासकों के अधीन आ गया था। इस संदर्भ में अशोक का भाबु्र शिलालेख अति-महत्त्वपूर्ण है, जो राजस्थान में मौर्य शासन तथा अशोक के बौद्ध होने की पुष्टि करता है। इसके अतिरिक्त अशोक के उत्तराधिकारी कुणाल के पुत्र सम्प्रति द्वारा बनवाये गये मंदिर इस वंश के प्रभाव की पुष्टि करते है। यवन-शुंग-कुषाण काल- मौर्यों के अवसान के बाद शुंग वंश का उत्थान हुआ था। पंतजलि के महाभाष्य से ज्ञात होता है कि शुंगों ने यवनों से माध्यमिका की रक्षा की थी। ईस्वी पूर्व की दूसरी शती में यवन शासक मिनाडंर द्वारा माध्यमिका को विजित किया गया था। नलियासर, बैराठ और नगरी से यवन शासकों के सिक्के मिले है। कनिष्क के शिलालेखानुसार राजस्थान के पूर्वी भागों में उसका राज्य था। कुषाण शासकों के सम्पर्क ने राजस्थान के पत्थर और मृण्मय मूर्ति-कला को एक नवीन मोड़ दिया जिसके नमूने अजमेर के नाद की शिव प्रतिमा, साँभर का स्त्री धड़ अश्व तथा अजामुख ह्यग्रीव या अग्नि की मूर्ति अपने आप में कला के अद्वितीय नमूने है।
कुरू जनपद :-
वर्तमान उतरी अलवर , दिल्ली इसके प्रमुख क्षेत्र थे। कुरू जनपद की राजधानी इन्द्रपथ थी।
वर्तमान उतरी अलवर , दिल्ली इसके प्रमुख क्षेत्र थे। कुरू जनपद की राजधानी इन्द्रपथ थी।
शूरसेन जनपद :-
इसका क्षेत्र वर्तमान पूर्वी अलवर, धौलपुर, भरतपुर तथा करौली ज्यादातर उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। इसकी राजधानी मथुरा थी। गुप्तकाल- कुषाणों के पतन के उपरान्त प्रयाग और पाटलिपुत्र में गुप्तों का आविर्भाव हुआ जिनमें समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़े प्रसिद्ध थे। जैसा कि प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने यौद्धेय, मालव एवं आभीर जनजातियों को पराजित कर दिया किंतु अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं लाया उसके स्थान पर सर्वकर्मदान प्रणाम आज्ञाकरण की नीति अधिरोपित की। पश्चिम भारत में शको का प्रभाव था किंतु जब चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य शक शासक रूद्र सिंह को पराजित करता है तो पश्चिम भारत में भी गुप्तों का आधिपत्य स्थापित हो जाता है। गुप्तों का सीधा अधिकार तो राजस्थान में नहीं दिख पड़ता, परंतु यह निश्चित है कि राजस्थान में गुप्तों का शासन रहा होगा। उपर्युक्त मत की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि बयाना (भरतपुर) से गुप्तकालीन सिक्कों का विशाल भण्डार मिला है। गुप्तों का राजस्थान में प्रत्यक्ष शासन नहीं होने की वजह से यहाँ पर कुछ जनजातीय राज्यों की उपस्थिति दिखती है। इन राज्यों में वरीके वंश प्रमुख है। 371 ई. के विजयगढ़ (बयाना) प्रस्तर शिलालेख से विष्णुवर्धन नामक वरीक वंश के राजा का उल्लेख मिलता है, जिसके पिता यशोवर्धन थे। संभवतः ये समुद्र गुप्त के सामंत रहे हो। इसी प्रकार 423 ई. का झालावाड़ से एक शिलालेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में औलीकर वंश का शासन था। यह लेख विष्णु वर्मन नामक शासक का है जिसके द्वारा किए गए जनहित कार्यों की जानकारी मिलती है। कुछ विद्वान औलीकर वंश का संबंध वर्धन वंश से भी जोड़ते हैं।
इसका क्षेत्र वर्तमान पूर्वी अलवर, धौलपुर, भरतपुर तथा करौली ज्यादातर उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। इसकी राजधानी मथुरा थी। गुप्तकाल- कुषाणों के पतन के उपरान्त प्रयाग और पाटलिपुत्र में गुप्तों का आविर्भाव हुआ जिनमें समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़े प्रसिद्ध थे। जैसा कि प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने यौद्धेय, मालव एवं आभीर जनजातियों को पराजित कर दिया किंतु अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं लाया उसके स्थान पर सर्वकर्मदान प्रणाम आज्ञाकरण की नीति अधिरोपित की। पश्चिम भारत में शको का प्रभाव था किंतु जब चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य शक शासक रूद्र सिंह को पराजित करता है तो पश्चिम भारत में भी गुप्तों का आधिपत्य स्थापित हो जाता है। गुप्तों का सीधा अधिकार तो राजस्थान में नहीं दिख पड़ता, परंतु यह निश्चित है कि राजस्थान में गुप्तों का शासन रहा होगा। उपर्युक्त मत की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि बयाना (भरतपुर) से गुप्तकालीन सिक्कों का विशाल भण्डार मिला है। गुप्तों का राजस्थान में प्रत्यक्ष शासन नहीं होने की वजह से यहाँ पर कुछ जनजातीय राज्यों की उपस्थिति दिखती है। इन राज्यों में वरीके वंश प्रमुख है। 371 ई. के विजयगढ़ (बयाना) प्रस्तर शिलालेख से विष्णुवर्धन नामक वरीक वंश के राजा का उल्लेख मिलता है, जिसके पिता यशोवर्धन थे। संभवतः ये समुद्र गुप्त के सामंत रहे हो। इसी प्रकार 423 ई. का झालावाड़ से एक शिलालेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में औलीकर वंश का शासन था। यह लेख विष्णु वर्मन नामक शासक का है जिसके द्वारा किए गए जनहित कार्यों की जानकारी मिलती है। कुछ विद्वान औलीकर वंश का संबंध वर्धन वंश से भी जोड़ते हैं।
शिवि जनपद :-
मेवाड़ प्रदेश (चितौड़गढ) नामकरण की दृष्टि से द्वितीय शताब्दी में शिव जनपद (राजधानी माध्यमिका) के नाम से प्र्रसिद्ध था। बाद में ‘प्राग्वाट‘ नाम का प्रयोग हुआ। कालान्तर में इस भू भाग को ‘मेदपाट‘ नाम से सम्बोधित किया गया। इस जनपद का उल्लेख पाणिनी कृत अष्टाध्यायी से मिलता है। उतरी राजस्थान में यौद्धेय जाति का जनपद स्थापित हुआ।
कुमारपाल प्रबंध तथा अन्य जैन ग्रन्थों से अनुमानित है कि चित्तौड़ का किला व एक चित्रांग तालाब मौर्य राजा चित्रांग का बनवाया गया है। चित्तौड़ से कुछ दूर मानसरोवर नामक तालाब पर मौर्यवंशी राजा मान का शिलालेख मिला है। जी.एच. ओझा ने उदयपुर राज्य के इतिहास में लिखा है कि चित्तौड़ का किला मौर्य वंश के राजा चित्रांगद ने बनाया था, जिसे आठवीं शताब्दी में बापा रावल ने मौर्य वंश के अंतिम राजा मान से यह किला छिना था। हूण- गुप्तवंशी सम्राट स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा तो की थी, परंतु इनके आक्रमणों ने इनके साम्रांज्य की नींव को जर्जरित कर दिया। हूण राज्य तोरमाण ने 503 ई. में राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़ आदि भागों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया। तोरमाण के मिट्टिरकुल का भी राजस्थान के कई भागों पर अधिकार बना रहा। मिहिरकुल ने बडौली में शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। हूणों ने माध्यमिका पर भी आक्रमण किया था तथा गुहिल नरेश अल्लट द्वारा हूण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया तथा उस रानी ने हर्षपुर गाँव भी बसाया था। गुप्तों के पतन और हूणों द्वारा अराजकता पैदा करने की स्थिति से लाभ उठाकर मालवा के यशोवर्मन ने 532 ई. के आस-पास मिहिरकुल को परास्त कर हूणों की शक्ति को निर्बल बना दिया। वे अपने अधिकारों को बनाये रखने के लिए यत्र-तत्र कई राजाओं से लड़ते रहते, परन्तु अन्त में उनको यहाँ की लडाकू जातियों जैसे कुनबी कुषकों के साथ विलय के लिए बाध्य होना पड़ा। आबू क्षेत्र में रहने वाला 'कुनबी' या कलबी (Kalbi) समुदाय स्वयं को हूणों का वंशज मानते है तथा 'हूण' को उज्जमकर, की तरह उपयोग करते हैं। हूण जाति यहीं पर बस गई थी तथा उसे समाज में स्थान भी दिया गया। जैसे- कान्हड देव प्रबंध में हूणों को राजपूत की 36 शाखाओं में शामिल किया गया है, तथा अल्लट का हरियादेवी से विवाह।यह भी माना जाता है बिजौलिया (विंध्यवली) की स्थापना हूणों ने ही की थी। यशोवर्मन ने राजस्थान में व्यवस्था बनाए रखने हेतु राजस्थानीय (Governor) के रूप में अभयदत्त को नियुक्त किया। इसके प्रभाव क्षेत्र में अरावली पर्वत श्रेणी से नर्बदा नदी तक का प्रदेश सम्मिलित है जिसमें मन्दसौर तथा मध्यमिका भी सम्मिलित थे। कुछ समय के लिए राजस्थान में सुख और शांति स्थापित हो सकी।
परंतु यह शांति क्षणिक थी। यशोवर्मन की मृत्यु के बाद पुनः अव्यवस्था का दौर आरम्भ हुआ। इधर तो राजस्थान में यशोवर्मन के अधिकारी, जो राजस्थानीय कहलाते थे, अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र होने की चेष्टा कर रहे थे, तो उधर प्राचीन गणतंत्र की बिखरी हुई जातियाँ, जो अलग-अलग समूह में रहती थी, पुनः अपने प्राबल्य के लिए संघर्षोन्मुख हो गयी। किसी केन्द्रीय शक्ति के अभाव में यहाँ क्षेत्रीय संघर्षबढ़ा। इस समय उत्तर भारत में प्रमुख शक्ति के रूप में पुष्यभूति वंश का शासक हर्षवर्धन शासन कर रहा था। हर्षवर्धन एवं राजस्थान के संबंधों को लेकर ठोस जानकारी का अभाव है। संभवतः हर्षवर्धन ने भी मौर्य व गुप्तों के शासन राजस्थान पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित न किया हों। किंतु इस समय कई क्षेत्रीय राज्यों की जानकारी मिलती है। इसमें से एक प्राचीन राजपूत जाति है चावड़ा, इस जाति का शासन आबू एवं भीनमाल पर था। इसकी जानकारी रज्जिल के 625 ई. के बसंतगढ़ लेख में मिलती है, इसमें पता चलता है कि आबू प्रदेश पर वर्मलात का शासन था। भीनमाल के रहने वाले कवि माघ के शिशुपाल वध से ज्ञात होता है कि उसके पितामह सुप्रभदेव वर्मलाल के मंत्री थे। इसी प्रकार भीनमाल के अन्य विद्वान ब्रह्मगुप्त ने अपनी पुस्तक ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त में 628 ई. व्याघ्रमुख नामक चंपा वंशी राजा का उल्लेख मिलता है। ह्वेनसांग 661 ई. के आसपास भीनमाल आया था तब यहाँ चावड़ों का ही शासन था। अरब आक्रमण से चावड़ों का राज्य कमजोर हो गया और उनके राज्य को प्रतिहारों ने अपने अधिकार में कर लिया। संस्कृत लेखों में चावड़ों के लिए चाप, चापोत्कत, चावोटक आदि नामों को काम में लिया गया है। 914 ई. के धरणीवराह के दानपत्र में शंकर के चाप से उत्पन्न होने के कारण चाप कहा गया है। सम्भवतः चाप, चापा या चम्पक नाम का इस वंश का इनका कोई आदि पुरुष रहा हो जिसके नाम से इस वंश को चावड़ा वंश कहा गया है। कर्नल टॉड ने इन्हें सीथियन कहा है।
मेवाड़ प्रदेश (चितौड़गढ) नामकरण की दृष्टि से द्वितीय शताब्दी में शिव जनपद (राजधानी माध्यमिका) के नाम से प्र्रसिद्ध था। बाद में ‘प्राग्वाट‘ नाम का प्रयोग हुआ। कालान्तर में इस भू भाग को ‘मेदपाट‘ नाम से सम्बोधित किया गया। इस जनपद का उल्लेख पाणिनी कृत अष्टाध्यायी से मिलता है। उतरी राजस्थान में यौद्धेय जाति का जनपद स्थापित हुआ।
कुमारपाल प्रबंध तथा अन्य जैन ग्रन्थों से अनुमानित है कि चित्तौड़ का किला व एक चित्रांग तालाब मौर्य राजा चित्रांग का बनवाया गया है। चित्तौड़ से कुछ दूर मानसरोवर नामक तालाब पर मौर्यवंशी राजा मान का शिलालेख मिला है। जी.एच. ओझा ने उदयपुर राज्य के इतिहास में लिखा है कि चित्तौड़ का किला मौर्य वंश के राजा चित्रांगद ने बनाया था, जिसे आठवीं शताब्दी में बापा रावल ने मौर्य वंश के अंतिम राजा मान से यह किला छिना था। हूण- गुप्तवंशी सम्राट स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा तो की थी, परंतु इनके आक्रमणों ने इनके साम्रांज्य की नींव को जर्जरित कर दिया। हूण राज्य तोरमाण ने 503 ई. में राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़ आदि भागों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया। तोरमाण के मिट्टिरकुल का भी राजस्थान के कई भागों पर अधिकार बना रहा। मिहिरकुल ने बडौली में शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। हूणों ने माध्यमिका पर भी आक्रमण किया था तथा गुहिल नरेश अल्लट द्वारा हूण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया तथा उस रानी ने हर्षपुर गाँव भी बसाया था। गुप्तों के पतन और हूणों द्वारा अराजकता पैदा करने की स्थिति से लाभ उठाकर मालवा के यशोवर्मन ने 532 ई. के आस-पास मिहिरकुल को परास्त कर हूणों की शक्ति को निर्बल बना दिया। वे अपने अधिकारों को बनाये रखने के लिए यत्र-तत्र कई राजाओं से लड़ते रहते, परन्तु अन्त में उनको यहाँ की लडाकू जातियों जैसे कुनबी कुषकों के साथ विलय के लिए बाध्य होना पड़ा। आबू क्षेत्र में रहने वाला 'कुनबी' या कलबी (Kalbi) समुदाय स्वयं को हूणों का वंशज मानते है तथा 'हूण' को उज्जमकर, की तरह उपयोग करते हैं। हूण जाति यहीं पर बस गई थी तथा उसे समाज में स्थान भी दिया गया। जैसे- कान्हड देव प्रबंध में हूणों को राजपूत की 36 शाखाओं में शामिल किया गया है, तथा अल्लट का हरियादेवी से विवाह।यह भी माना जाता है बिजौलिया (विंध्यवली) की स्थापना हूणों ने ही की थी। यशोवर्मन ने राजस्थान में व्यवस्था बनाए रखने हेतु राजस्थानीय (Governor) के रूप में अभयदत्त को नियुक्त किया। इसके प्रभाव क्षेत्र में अरावली पर्वत श्रेणी से नर्बदा नदी तक का प्रदेश सम्मिलित है जिसमें मन्दसौर तथा मध्यमिका भी सम्मिलित थे। कुछ समय के लिए राजस्थान में सुख और शांति स्थापित हो सकी।
परंतु यह शांति क्षणिक थी। यशोवर्मन की मृत्यु के बाद पुनः अव्यवस्था का दौर आरम्भ हुआ। इधर तो राजस्थान में यशोवर्मन के अधिकारी, जो राजस्थानीय कहलाते थे, अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र होने की चेष्टा कर रहे थे, तो उधर प्राचीन गणतंत्र की बिखरी हुई जातियाँ, जो अलग-अलग समूह में रहती थी, पुनः अपने प्राबल्य के लिए संघर्षोन्मुख हो गयी। किसी केन्द्रीय शक्ति के अभाव में यहाँ क्षेत्रीय संघर्षबढ़ा। इस समय उत्तर भारत में प्रमुख शक्ति के रूप में पुष्यभूति वंश का शासक हर्षवर्धन शासन कर रहा था। हर्षवर्धन एवं राजस्थान के संबंधों को लेकर ठोस जानकारी का अभाव है। संभवतः हर्षवर्धन ने भी मौर्य व गुप्तों के शासन राजस्थान पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित न किया हों। किंतु इस समय कई क्षेत्रीय राज्यों की जानकारी मिलती है। इसमें से एक प्राचीन राजपूत जाति है चावड़ा, इस जाति का शासन आबू एवं भीनमाल पर था। इसकी जानकारी रज्जिल के 625 ई. के बसंतगढ़ लेख में मिलती है, इसमें पता चलता है कि आबू प्रदेश पर वर्मलात का शासन था। भीनमाल के रहने वाले कवि माघ के शिशुपाल वध से ज्ञात होता है कि उसके पितामह सुप्रभदेव वर्मलाल के मंत्री थे। इसी प्रकार भीनमाल के अन्य विद्वान ब्रह्मगुप्त ने अपनी पुस्तक ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त में 628 ई. व्याघ्रमुख नामक चंपा वंशी राजा का उल्लेख मिलता है। ह्वेनसांग 661 ई. के आसपास भीनमाल आया था तब यहाँ चावड़ों का ही शासन था। अरब आक्रमण से चावड़ों का राज्य कमजोर हो गया और उनके राज्य को प्रतिहारों ने अपने अधिकार में कर लिया। संस्कृत लेखों में चावड़ों के लिए चाप, चापोत्कत, चावोटक आदि नामों को काम में लिया गया है। 914 ई. के धरणीवराह के दानपत्र में शंकर के चाप से उत्पन्न होने के कारण चाप कहा गया है। सम्भवतः चाप, चापा या चम्पक नाम का इस वंश का इनका कोई आदि पुरुष रहा हो जिसके नाम से इस वंश को चावड़ा वंश कहा गया है। कर्नल टॉड ने इन्हें सीथियन कहा है।
जांगल देश :-
बीकानेर और जोधपुर जिलों को महाभारत काल में जांगल कहा जाता है।
बीकानेर और जोधपुर जिलों को महाभारत काल में जांगल कहा जाता है।
मालव जनपद :-
मालव लोगों का मूल स्थान रवि चिनाब का संगम क्षेत्र था।बाद में आक्रमण से तृप्त होकर ये लोग टोंक और उसके आस पास के क्षेत्र में आ गये। और उन्होंने नगर (टोंक) को अपनी राजधानी बनाया। टोंक जिले में रेढ़ नमक स्थान में मालव जनपद की सिक्कों का भंडार मिला है। इसके अतिरिक्त कोटा के कणसवा गाँव से मौर्य राजा धवल का शिलालेख मिला है जो बताता है कि राजस्थान में मौर्य राजाओं एवं उनके सामंतों का प्रभाव रहा होगा।
योद्धेय जनपद :-
राजस्थान का उत्तरी भाग वर्तमान के गंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिले के क्षेत्र योद्धेय जनपद के अंतर्गत आते थे।राजस्थान में राजपूतों की उत्पत्ति के इतिहासकारों में बहुतेरे तर्क (अवधारणाएं) दिए है, इनमे से कुछ इस प्रकार है –
पृथ्वीराज रासो के अनुसार वशिष्ठ मुनि ने आबू के यज्ञकुंड से परमार, चालुक्य (सोलंकी), प्रतिहार, तथा चौहानों को उत्पन्न किया। मुहणोत ननैणसी तथा सूर्यमल्ल मिश्रण की साहित्यों में भी यही उल्लेख मिलता है।
पिंगल सूत्र नाम के प्राचीन ग्रन्थ के अनुसार ब्राह्मणों से राजपूतों की उत्पत्ति हुई। इतिहासकार बिजौलियां के शिलालेख से अनुसार भी इस तथ्य को सही मानते है। डॉ. डी. आर भंडारकर चौहानों को गौत्रीय ब्राह्मण बताते हैं।
राजस्थान का उत्तरी भाग वर्तमान के गंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिले के क्षेत्र योद्धेय जनपद के अंतर्गत आते थे।राजस्थान में राजपूतों की उत्पत्ति के इतिहासकारों में बहुतेरे तर्क (अवधारणाएं) दिए है, इनमे से कुछ इस प्रकार है –
पृथ्वीराज रासो के अनुसार वशिष्ठ मुनि ने आबू के यज्ञकुंड से परमार, चालुक्य (सोलंकी), प्रतिहार, तथा चौहानों को उत्पन्न किया। मुहणोत ननैणसी तथा सूर्यमल्ल मिश्रण की साहित्यों में भी यही उल्लेख मिलता है।
पिंगल सूत्र नाम के प्राचीन ग्रन्थ के अनुसार ब्राह्मणों से राजपूतों की उत्पत्ति हुई। इतिहासकार बिजौलियां के शिलालेख से अनुसार भी इस तथ्य को सही मानते है। डॉ. डी. आर भंडारकर चौहानों को गौत्रीय ब्राह्मण बताते हैं।
राजस्थान में राजपूतों की उत्पत्ति
हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक अस्थिरता फैल जाती है जिसका लाभ उठाकर कई क्षेत्रीय क्षत्रप स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर देते हैं। ऐसी की शक्तियों में से एक थे- गुर्जर-प्रतिहारों ने आठवी से दसवीं शताब्दी तक राजस्थान ही नहीं अपितु उत्तर भारत के बड़े भू-भाग पर शासन किया और इसी के साथ 'राजपूत युग' नामक एक नवीन युग का सूत्रपात होता है।
वैदिक क्षेत्रियों से राजपूतों की उत्पत्ति
मनुस्मृति के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति ब्रह्मा से हुई है वहीँ ऋग्वेद के अनुससार ब्रह्मा की बाहों से राजपूत उत्पन्न हुए।
कुछ इतिहासकार्रों (श्री गौरीशंकर हीराचंद ओझा एवं श्री सी.एम वैद्य) ने राजपूतों को वैदिक आर्यों की संतान बताया है।
अग्निकुण्ड से राजपूतों की उत्पत्ति
ब्राह्मणों से राजपूतों की उत्पत्तिविदेशी वंशों से राजपूतों की उत्पत्ति
– कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार राजपूत विदेशी जातियों जैसे शक एवं सीथियन के वंशज है।
– वी.ए. स्मिथ ने राजपूतों को हूणों की संतान कहा है।
– विलियम स्मिथ के अनुसार राजपूतों के कई वंशों का उद्भव शक एवं कुषाण आक्रमण के समय हुआ।
राजस्थान का इतिहास, राजस्थान सामान्य ज्ञान का एक महत्वपूर्ण भाग है, प्राचीन समय में राजस्थान में जनपद हुआ करते थे इस समय राजस्थान में जनपदीय व्यवस्था थी इनका उल्लेख बौद्ध एवं जैन साहित्य में मिलता है। कुल 16 महाजनपदों का उल्लेख इन साहित्यों में मिलता है। इन जनपदों का विस्तार राजस्थान में विभिन्न हिसों में था।
327 ई. पू. सिकन्दर के आक्रमण के कारण पंजाब के कई जनों ने उसकी सेना का सामना किया। अपनी सुरक्षा और व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए ये कई कबीले राजस्थान की ओर बढ़े जिनमें मालव, शिवी, अर्जुनायन, योधेय आदि मुख्य थे। इन्होंने क्रमशः टोंक, चित्तौड़, अलवर-भरतपुर तथा बीकानेर पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया। मालव जनपद में श्री सोम नामक राजा हुआ जिसने 225 ई. में अपने शत्रुओं को परास्त करने के उपलक्ष में एकषष्ठी यज्ञ का आयोजन किया। ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के काल तक वे स्वतंत्र बने रहे।
हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक अस्थिरता फैल जाती है जिसका लाभ उठाकर कई क्षेत्रीय क्षत्रप स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर देते हैं। ऐसी की शक्तियों में से एक थे- गुर्जर-प्रतिहारों ने आठवी से दसवीं शताब्दी तक राजस्थान ही नहीं अपितु उत्तर भारत के बड़े भू-भाग पर शासन किया और इसी के साथ 'राजपूत युग' नामक एक नवीन युग का सूत्रपात होता है।
वैदिक क्षेत्रियों से राजपूतों की उत्पत्ति
मनुस्मृति के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति ब्रह्मा से हुई है वहीँ ऋग्वेद के अनुससार ब्रह्मा की बाहों से राजपूत उत्पन्न हुए।
कुछ इतिहासकार्रों (श्री गौरीशंकर हीराचंद ओझा एवं श्री सी.एम वैद्य) ने राजपूतों को वैदिक आर्यों की संतान बताया है।
अग्निकुण्ड से राजपूतों की उत्पत्ति
ब्राह्मणों से राजपूतों की उत्पत्तिविदेशी वंशों से राजपूतों की उत्पत्ति
– कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार राजपूत विदेशी जातियों जैसे शक एवं सीथियन के वंशज है।
– वी.ए. स्मिथ ने राजपूतों को हूणों की संतान कहा है।
– विलियम स्मिथ के अनुसार राजपूतों के कई वंशों का उद्भव शक एवं कुषाण आक्रमण के समय हुआ।
राजस्थान का इतिहास, राजस्थान सामान्य ज्ञान का एक महत्वपूर्ण भाग है, प्राचीन समय में राजस्थान में जनपद हुआ करते थे इस समय राजस्थान में जनपदीय व्यवस्था थी इनका उल्लेख बौद्ध एवं जैन साहित्य में मिलता है। कुल 16 महाजनपदों का उल्लेख इन साहित्यों में मिलता है। इन जनपदों का विस्तार राजस्थान में विभिन्न हिसों में था।
327 ई. पू. सिकन्दर के आक्रमण के कारण पंजाब के कई जनों ने उसकी सेना का सामना किया। अपनी सुरक्षा और व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए ये कई कबीले राजस्थान की ओर बढ़े जिनमें मालव, शिवी, अर्जुनायन, योधेय आदि मुख्य थे। इन्होंने क्रमशः टोंक, चित्तौड़, अलवर-भरतपुर तथा बीकानेर पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया। मालव जनपद में श्री सोम नामक राजा हुआ जिसने 225 ई. में अपने शत्रुओं को परास्त करने के उपलक्ष में एकषष्ठी यज्ञ का आयोजन किया। ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के काल तक वे स्वतंत्र बने रहे।
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