कालीबंगा
कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का एक प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्थल है। यहां हड़प्पा सभ्यता के बहुत दिलचस्प और महत्वपूर्ण अवशेष मिले हैं। काली बंगा एक छोटा नगर था। यहां एक दुर्ग मिला है। प्राचीन द्रषद्वती और सरस्वती नदी घाटी वर्तमान में घग्घर नदी का क्षेत्र में सैन्धव सभ्यता से भी प्राचीन कालीबंगा की सभ्यता पल्लवित और पुष्पित हुई. वर्तमान में हनुमानगढ़ जिले में स्थित कालीबंगा ४००० ईसा पूर्व से भी अधिक प्राचीन मानी जाती हैं. सर्वप्रथम 1952 ई में अमलानंद घोष ने इसकी खोज की. -कालीबंगा निवासी शव को गाडते थे|यहां एक कब्र मिली है -मोहनजोदडो हडप्पा की भांति मात्रशक्ति एवं लिंग आदि मूर्तियॉ यहां नहीं मिली -
कालीबंगा
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विवरण | कालीबंगा एक ऐतिहासिक स्थल है, जहाँ पर प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति केअवशेष मिले हैं। |
राज्य | राजस्थान |
ज़िला | हनुमानगढ़ |
भौगोलिक स्थिति | उत्तर- 29°28′, पूर्व- 74°08 |
मार्ग स्थिति | कालीबंगा हनुमानगढ़ जंक्शन से लगभग 32 किमी की दूरी पर स्थित है। |
प्रसिद्धि | कालीबंगा प्राचीन समय में चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध था। |
कब जाएँ | अक्तूबर से फ़रवरी |
कैसे पहुँचें | हवाई जहाज़, रेल, बस आदि |
भटिंडा हवाई अड्डा और बीकानेर हवाई अड्डा | |
हनुमानगढ़ जंक्शन | |
एस.टी.डी. कोड | 1552 |
गूगल मानचित्र | |
भाषा | हिंदी, राजस्थानी, अंग्रेजी |
अन्य जानकारी | कालीबंगा की खुदाई 1953 में 'बी.बी. लाल' एवं 'बी. के. थापड़' द्वारा करायी गयी। |
अद्यतन |
13:54, 19 नवम्बर 2011 (IST)
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परिचय
कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में घग्घर नदी के बाएं तट पर स्थित है। खुदाई 1953 में 'बी.बी. लाल' एवं 'बी. के. थापड़' द्वारा करायी गयी। यहाँ पर प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं। यह प्राचीन समय में चूडियों के लिए प्रसिद्ध था। ये चूडियाँ पत्थरों की बनी होती थी।
राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के दक्षिण-पश्चिम में स्थित कालीबंगा स्थान पर उखन्न द्वारा (1961 ई. के मध्य किए गए) 26 फ़िट ऊँची पश्चिमी थेड़ी (टीले) से प्राप्त अवशेषों से विदित होता है कि लगभग 45०० वर्ष पूर्व यहाँ सरस्वती नदी के किनारे हड़प्पा कालीन सभ्यता फल-फूल रही थी। कालीबंगा hanumangarh ज़िले में pilibanga के निकट स्थित है। यह स्थान प्राचीन काल की नदी सरस्वती (जो कालांतर में सूख कर लुप्त हो गई थी) के तट पर स्थित था। यह नदी अब घग्घर नदी के रूप में है। सतलज उत्तरी राजस्थान में समाहित होती थी। सूरतगढ़ के निकट नोहर-भादरा क्षेत्र में सरस्वती व दृषद्वती का संगम स्थल था। स्वंय सिंधु नदी अपनी विशालता के कारण वर्षा ॠतु में समुद्र जैसा रूप धारण कर लेती थी जो उसके नामकरण से स्पष्ट है। हमारे देश भारत में "सिंधु सभ्यता" का मूलत: उद्भव विकास एवं प्रसार "सप्तसिन्धव" प्रदेश में हुआ तथा सरस्वती उपत्यका का उसमें विशिष्ट योगदान है। सरस्वती उपत्यका (घाटी) सरस्वती एवं दृषद्वती के मध्य स्थित "ब्रह्मवर्त" का पवित्र प्रदेश था जो मनु के अनुसार "देवनिर्मित" था। धनधान्य से परिपूर्ण इस क्षेत्र में वैदिक ऋचाओं का उद्बोधन भी हुआ। सरस्वती (वर्तमान में घग्घर) नदियों में उत्तम थी तथा गिरि से समुद्र में प्रवेश करती थी। ॠग्वेद (सप्तम मण्डल, 2/95) में कहा गया है-"एकाचतत् सरस्वती नदी नाम शुचिर्यतौ। गिरभ्य: आसमुद्रात।।" सतलज उत्तरी राजस्थान में सरस्वती में समाहित होती थी।
सी.एफ. ओल्डन (C.F. OLDEN) ने ऐतिहासिक और भौगोलिक तथ्यों के आधार पर बताया कि घग्घर (पाकिस्तान में हकरा) नदी के घाट पर ॠग्वेद में बहने वाली नदी सरस्वती 'दृषद्वती' थी। तब सतलज व यमुना नदियाँ अपने वर्तमान पाटों में प्रवाहित न होकर घग्घर व हकरा के पाटों में बहती थीं।
महाभारत काल तक सरस्वती लुप्त हो चुकी थी और 13 वीं शती तक सतलज, व्यास में मिल गई थी। पानी की मात्रा कम होने से सरस्वती रेतीले भाग में सूख गई थी। ओल्डन महोदय के अनुसार सतलज और यमुना के बीच कई छोटी-बड़ी नदियाँ निकलती हैं। इनमें चौतंग, मारकंडा, सरस्वती आदि थी। ये नदियाँ आज भी वर्षा ॠतु में प्रवाहित होती हैं। राजस्थान के निकट ये नदियाँ निकल कर एक बड़ी नदी घग्घर का रूप ले लेती हैं। आगे चलकर यह नदी पाकिस्तान में हकरा, वाहिद, नारा नामों से जानी जाती है। ये नदियाँ आज सूखी हुई हैं - किन्तु इनका मार्ग राजस्थान से लेकर करांची और पूर्व कच्छ की खाड़ी तक देखा जा सकता है।
वाकणकर महाशय के अनुसार सरस्वती नदी के तट पर 2०० से अधिक नगर बसे थे, जो हड़प्पाकालीन हैं। इस कारण इसे 'सिंधुघाटी की सभ्यता' के स्थान पर 'सरस्वती नदी की सभ्यता' कहना चाहिए। मूलत: घग्घर-हकरा ही प्राचीन सरस्वती नदी थी जो सतलज और यमुना के संयुक्त गुजरात तक बहती थी जिसका पाट (चौड़ाई) ब्रह्मपुत्र नदी से बढ़कर 8 कि॰मी॰ था। वाकणकर के अनुसार सरस्वती नदी 2 लाख 5० हजार वर्ष पूर्व नागौर, लूनासर, ओसियाँ, डीडवाना होते हुए लूणी से मिलती थी जहाँ से वह पूर्व में कच्छ का रण में नानूरण जल सरोवर होकर लोथल के निकट संभात की काढ़ी में गिरती थी, किंतु 4०,००० वर्ष पूर्व पहले भूचाल आया जिसके कारण सरस्वती नदी मार्ग परिवर्तन कर घग्घर नदी के मार्ग से होते हुए हनुमानगढ़ और सूरतगढ़ के बहावलपुर क्षेत्र में सिंधु नदी के समानान्तर बहती हुई कच्छ के मैदान में समुद्र से मिल जाती थी। महाभारत काल में कौरव-पाण्डव युद्ध इसी के तट पर लड़ा गया। इसी काल में सरस्वती के विलुप्त होने पर यमुना गंगा में मिलने लगी।
कालीबंगा से प्राप्त पुरातात्विक सामग्रियाँ
१९२२ ई. में राखलदास बनर्जी एवं दयाराम साहनी के नेतृत्व में मोहन-जोदड़ो एवं हड़प्पा (अब पाकिस्तान में लरकाना जिले में स्थित) के उत्खनन द्वारा हड़प्पा या सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष मिले थे जिनसे ४५०० वर्ष पूर्व की प्राचीन सभ्यता का पता चला था। बाद में इस सभ्यता के लगभग १०० केन्द्रों का पता चला जिनमें राजस्थान का कालीबंगा क्षेत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है।मोहन-जोदड़ो व हड़प्पा के बाद हड़प्पा संस्कृति का कालीबंगा तीसरा बड़ा नगर सिद्ध हुआ है। जिसके एक टीले के उत्खनन द्वारा निम्नांकित अवशेष स्रोत के रूप में मिले हैं जिनकी विशेषताएँ भारतीय सभ्यता के विकास में उनका योगदान स्पष्ट करती हैं -हड़प्पा एवं मोहनजोदाड़ो की भांति यहाँ पर सुरक्षा दीवार से घिरे दो टीले पाए गए हैं। कुछ विद्धानों का मानना है कि यह सैंधव सभ्यता की तीसरी राजधानी रही होगी। पूर्वी टीले की सभ्यता प्राक्-हड़प्पाकालीन थी। कालीबंगा में सिन्धु-पूर्व सभ्यता की यह बस्ती कच्ची ईंटों की किलेबन्दी से घिरी थी। किलेबन्दी के उत्तरी भाग में प्रवेश मार्ग था। जिससे सरस्वती नदी तक पहुँच सकते थे। मिट्टी के खिलौनों, पहियों तथा मवेशियों की हड्डियाँ के अंवेषण से बैलगाड़ी के अस्तित्व का अप्रत्यक्ष साक्ष्य प्राप्त होता है। कालीबंगा के दुर्ग टीले के दक्षिण भाग में मिट्टी और कच्चे ईटों के बने हुए पाँच चबूतरे मिले हैं, जिसके शिखर पर हवन कुण्डों के होने के साक्ष्य मिले हैं।
ताँबे के औजार व मूर्तियाँ
कालीबंगा में उत्खन्न से प्राप्त अवशेषों में ताँबे (धातु) से निर्मित औज़ार, हथियार व मूर्तियाँ मिली हैं, जो यह प्रकट करती है कि मानव प्रस्तर युग से ताम्रयुग में प्रवेश कर चुका था। इसमें मिली तांबे की काली चूड़ियों की वजह से ही इसे कालीबंगा कहा गया। ध्यातव्य है कि पंजाबी में 'वंगा' का अर्थ चूडी होता है, इसलिए काली वंगा अर्थात काली चूडियाँ।
अंकित मुहरें
कालीबंगा से सिंधु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता की मिट्टी पर बनी मुहरें मिली हैं, जिन पर वृषभ व अन्य पशुओं के चित्र व र्तृधव लिपि में अंकित लेख है जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। वह लिपि दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी। एक सील पर किसी अराध्य देव की आकृति है। यहाँ से प्राप्त मुहरें 'मेसोपोटामियाई' मुहरों के समकक्ष थी। कालीबंगा की प्राक्-सैंधव बस्तियों में प्रयुक्त होने वाली कच्ची ईटें 30x20x10 से.मी. आकार की होती थी। यहाँ से मिले मकानों के अवशेषों से पता चलता है कि सभी मकान कच्ची ईटों से बनाये गये थे, पर नाली और कुओं में पक्की ईटों का प्रयोग किया गया था। यहाँ पर कुछ ईटें अलंकृत पायी गयी हैं। कालीबंगा का एक फर्श पूरे हड़प्पा का एक मात्र उदाहरण है जहाँ अलंकृत ईटों का प्रयोग किया गया है। इस पर प्रतिच्छेदी वृत का अलंकरण हैं।
ताँबे या मिट्टी की बनी मूर्तियाँ, पशु-पक्षी व मानव कृतियाँ
मिली हैं जो मोहनजोद़ो व हड़प्पा के समान हैं। पशुओं में बैल, बंदर व पक्षियों की मूर्तियाँ मिली हैं जो पशु-पालन, व कृषि में बैल का उपयोग किया जाना प्रकट करता है।
तोलने के बाट
पत्थर से बने तोलने के बाट का उपयोग करना मानव सीख गया था।
बर्तन
मिट्टी के विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े बर्तन भी प्राप्त हुए हैं जिन पर चित्रांकन भी किया हुआ है। यह प्रकट करता है कि बर्तन बनाने हेतु 'चारु' का प्रयोग होने लगा था तथा चित्रांकन से कलात्मक प्रवृत्ति व्यक्त करता है।
आभूषण
अनेक प्रकार के स्री व पुरुषों द्वारा प्रयुक्त होने वाले काँच, सीप, शंख, घोंघों आदि से निर्मित आभूषण भी मिलें हैं जैसे कंगन, चूड़ियाँ आदि।
नगर नियोजन
मोहन-जोदड़ो व हड़प्पा की भाँति कालीबंगा में भी सूर्य से तपी हुई ईटों से बने मकान, दरवाज़े, चौड़ी सड़कें, कुएँ, नालियाँ आदि पूर्व योजना के अनुसार निर्मित हैं जो तत्कालीन मानव की नगर-नियोजन, सफ़ाई-व्यवस्था, पेयजल व्यवस्था आदि पर प्रकाश डालते हैं। मोहनजोदडो. के विपरीत कालीबगाँ के घर कचची ईंटो के बने थे।
कृषि-कार्य संबंधी अवशेष
कालीबंगा से प्राप्त हल से अंकित रेखाएँ भी प्राप्त हुई हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि यहाँ का मानव कृषि कार्य भी करता था। इसकी पुष्टि बैल व अन्य पालतू पशुओं की मूर्तियों से भी होती हैं। बैल व बारहसिंघ की अस्थियों भी प्राप्त हुई हैं। बैलगाड़ी के खिलौने भी मिले हैं। कालीबंगा में 'प्राक् सैंधव संस्कृति' की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि एक जुते हुए खेत का साक्ष्य है जिसके कुंडों के बीच का फासला पूर्व में पश्चिम की ओर 30 से.मी. है और उत्तर से दक्षिण 1.10 मीटर है। कम दूरी के खांचों में चना एवं अधिक दूरी के खाचों में सरसों बोई जाती थी।
खिलौने
धातु व मिट्टी के खिलौने भी मुअन जो दड़ो व हड़प्पा की भाँति यहाँ से प्राप्त हुए हैं जो बच्चों के मनोरंजन के प्रति आकर्षण प्रकट करते हैं। यहाँ पर लघु पाषाण उपकरण, मणिक्य एवं मिट्टी के मनके, शंख, कांच एवं मिट्टी की चूड़ियां, खिलौना गाड़ी के पहिए, सांड की खण्डित मृण्मूर्ति, सिलबट्टे आदि पुरावशेष मिले हैं। यहाँ से प्राप्त शैलखड़ी की मुहरें (सीलें) और मिट्टी की छोटी मुहरे (सीले) महत्त्वपूर्ण अभिलिखित वस्तुएं थी। मिट्टी की मुहरों पर सरकण्डे के छाप या निशान से यह लगता है कि इनका प्रयोग पैकिंग के लिए किया जाता रहा होगा।
धर्म संबंधी अवशेष
मुअन जो दड़ो व हड़प्पा की भाँति कालीबंगा से मातृदेवी की मूर्ति नहीं मिली है। इसके स्थान पर आयाताकार वर्तुलाकार व अंडाकार अग्निवेदियाँ तथा बैल, बारसिंघे की हड्डियाँ यह प्रकट करती है कि यहाँ का मानव यज्ञ में पशु-बलि भी देता था।
दुर्ग (किला)
सिंधु घाटी सभ्यता के अन्य केन्द्रो से भिन्न कालीबंगा में एक विशाल दुर्ग के अवशेष भी मिले हैं जो यहाँ के मानव द्वारा अपनाए गए सुरक्षात्मक उपायों का प्रमाण है। अन्य हड़प्पा कालीन नगरों की भांति कालीबंगा दो भागों नगर दुर्ग (या गढ़ी) और नीचे दुर्ग में विभाजित था। नगर दुर्ग समनान्तर चतुर्भुजाकार था। यहाँ पर भवनों के अवशेष से स्पष्ट होता है कि यहाँ भवन कच्ची ईटों के बने थे।
उपर्युक्त अवशेषों के स्रोतों के रूप में कालीबंगा व सिंधु-घाटी सभ्यता में अपना विशिष्ट स्थान है। कुछ पुरातत्वेत्ता तो सरस्वती तट पर बसे होने के कारण कालीबंगा सभ्यता को 'सरस्वती घाटी सभ्यता' कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं क्योंकि यहाँ का मानव प्रागैतिहासिक काल में हड़प्पा सभ्यता से भी कई दृष्टि से उन्नत था। खेती करने का ज्ञान होना, दुर्ग बना कर सुरक्षा करना, यज्ञ करना आदि इसी उन्नत दशा के सूचक हैं। वस्तुत: कालीबंगा का प्रागैतिहासिक सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में यथेष्ट योगदान रहा है।
- प्राप्त क़ब्रिस्तान
कालीबंगा के दक्षिण-पश्चिम में क़ब्रिस्तान स्थित था। यहाँ से शव विसर्जन के 37 उदाहरण मिले हैं। यहाँ अन्त्येष्टि संस्कार की तीन विधियां प्रचलित थी -
- पूर्व समाधीकरण
- आंशिक समाधिकरण
- दाह संस्कार
यहाँ पर बच्चे की खोपड़ी मिले है जिसमें 6 छेद हैं, इसे 'जल कपाली' या 'मस्तिष्क शोध' की बीमारी का पता चलता है। यहाँ से एक कंकाल मिला है जिसके बाएं घुटने पर किसी धारदार कुल्हाड़ी से काटने का निशान है।
- भूकम्प के साक्ष्य
यहाँ से भूकम्प के प्राचीनतम साक्ष्य के प्रमाण मिलते हैं। सम्भवतः घग्घर नदी के सूख जाने से कालीबंगा का विनाश हो गया।
- पहला टीला
- प्राप्त साक्ष्य
इस सिन्धु-पूर्व सभ्यता मैं सामान्यता मकान में एक आँगन होता था और उसके किनारे पर कुछ कमरे बने होते थे आँगन में खाना पकाने का साक्ष्य भी प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँ भूमि के ऊपर और नीचे दोनों प्रकार के तन्दूर मिले हैं। हल के प्रयोग का साक्ष्य मिला है, क्योंकि इस स्तर पर हराई के निशान पाये गये हैं। हल चलाने के ढंग से संकेत मिलता है कि एक ओर के खाँचे पूर्व-पश्चिम की दिशा में बनाये जाते थे और दूसरी ओर के उत्तर-दक्षिण दिशा में। इस युग में पत्थर और ताँबे दोनों प्रकार के उपकरण प्रचलित थे परंतु पत्थर के उपकरणों का प्रयोग अधिक होता था। यहाँ से दैनिक जीवन प्रयुक्त होने वाली वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कालीबंगा के इस चरण का जीवन 3000 ई.पू. के आस-पास रहा होगा।
- दूसरा टीला
दूसरे बड़े टीले से जो वस्तुएँ मिली हैं, वे हड़प्पा सभ्यता के समानुरुप हैं। कालीबंगा के इस टीले में कुछ अग्नि कुण्ड भी मिले हैं। कालीबंगा से मिट्टी के बर्तनों के कुछ ऐसे टुकड़े मिले हैं, जिनसे यह निश्चय होता है कि सिन्धु सभ्यता की लिपि दाहिनी ओर से बायीं ओर लिखी जाती थी। कालीबंगा में मोहनजोदड़ो जैसी उच्च-स्तर की जल निकास व्यवस्था का आभास नहीं होता है। भवनों का निर्माण कच्ची ईंटों से किया जाता था, किंतु नालियों, कुओं तथा स्नानागारों में पकाई ईंटों प्रयुक्त की गई हैं।
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