Saturday, 27 April 2019

आधुनिक राजस्थान का इतिहास

आधुनिक राजस्थान का इतिहास

पेशवा बाजीराव द्वितीय के होल्करों (एक प्रमुख मराठा कुल) से हारने और दिसम्बर, 1802 में बेसीन की संधि के तहत अंग्रेज़ों का संरक्षण स्वीकार करने से प्रारम्भ हुआ। सिंधिया तथा भोंसले परिवारों ने इस समझौते का विरोध किया, लेकन वे क्रमशः लसपाड़ी व दिल्ली में लॉर्ड लेक और असाय व अरगांव में सर आर्थर वेलेज़ली (जो बाद में वैलिंगटन के ड्यूक बने) के हाथों पराजित हुए। उसके बाद होल्कर परिवार भी इसमें शामिल हो गया और मध्य भारत व राजस्थान के क्षेत्र में मराठा बिल्कुल आज़ाद हो गए।

मराठा जाति

मराठा शब्द का तीन मिलते-जुलते अर्थों में उपयोग होता है-मराठी भाषी क्षेत्र में इससे एकमात्र प्रभुत्वशाली मराठा जाति या मराठों और कुंभी जाति के एक समूह का बोध होता है, महाराष्ट्र के बाहर मोटे तौर पर इससे समूची क्षेत्रीय मराठी भाषी आबादी का बोध होता है, जिसकी संख्या लगभग 6.5 करोड़ है। ऐतिहासिक रूप में यह शब्द मराठा शासक शिवाजी द्वारा 17वीं शताब्दी में स्थापित राज्य और उनके उत्तराधिकारियों द्वारा 18वीं शताब्दी में विस्तारित क्षेत्रीय राज्य के लिए प्रयुक्त होता है।
मराठा जाति के लोग मुख्यतः ग्रामीण किसान, ज़मींदार और सैनिक थे, कुछ मराठों और कुंभियों ने कभी-कभी क्षत्रिय होने का दावा भी किया और इसकी पुष्टि वे अपने कुल-नाम व वंशावली को महाकाव्यों के नायकों, उत्तर के राजपूत वंशों या पूर्व मध्यकाल के ऐतिहासिक राजवंशों से जोड़कर करते हैं, मराठा और कुंभी समूह की जातियाँ तटीय, पश्चिमी पहाड़ियों और दक्कन के मैदान के उपसमूहों में बँटी हुई हैं और उनके बीच आपस में वैवाहिक संबंध कम ही होते हैं। प्रत्येक उप क्षेत्र में इन जातियों के गोत्रों को विभिन्न समाज मंडलों में क्रमशः घटते हुए क्रम में वर्गीकृत किया गया है। सबसे बड़े सामाजिक मंडल में 96 गोत्र शामिल हैं। जिनमें सभी असली मराठा बताए जाते हैं। लेकिन इन 96 गोत्रों की सूचियों में काफ़ी विविधता और विवाद हैं।

साम्राज्य विस्तार

जब मुग़ल दक्कन की ओर बढ़ रहे थे, तब अहमदनगर तथा बीजापुर में मराठे प्रशासन तथा सैनिक सेवाओं में महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त थे तथा राज्य के काम-काज में उनका प्रभाव और उनकी शक्ति बढ़ती जा रही थी। दक्कन के सुल्तानों तथा मुग़लों, दोनों ने मराठों का समर्थन प्राप्त करने की चेष्टा की। मलिक अम्बर ने अपनी सेना में बड़ी संख्या में मराठों की भर्ती की। यद्यपि मोरे, घटघे तथा निबालकर जैसे कुछ प्रभाशाली मराठा परिवारों ने कुछ क्षेत्रों में प्रभाव क़ायम कर लिया था तथापि मराठे राजपूतों की तरह बड़े तथा सुसंगठित राज्य स्थापित करने में सफल नहीं हुए थे। साम्राज्य की स्थापना का श्रेय 'शाहजी भोंसले' तथा पुत्र 'शिवाजी' को है। जैसा कि पता चलता है कि कुछ समय तक शाहजी ने मुग़लों को चुनौती दी। अहमदनगर में उसका इतना प्रभाव था कि शासकों कि नियुक्ति में भी उसका ही हाथ होता था। लेकिन 1636 की संधि के अंतर्गत शाहजी को उन क्षेत्रों को छोड़ना पड़ा, जिन पर उसका प्रभाव था। उसने बीजापुर के शासक की सेवा में प्रवेश किया और अपना ध्यान कर्नाटक की ओर लगाया। उस समय की अशांत स्थिति का लाभ उठाकर शाहजी ने बंगलौर में अर्द्ध-स्वायत्त राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया। इसके पहले गोलकुण्डा का एक प्रमुख सरदार मीर जुमला कोरोमंडल तट के एक क्षेत्र पर अपना अधिकार क़ायम करने में सफल हो गया था। इसके अलावा कुछ अबीसीनियाई सरदार पश्चिम तट पर अपना शासन क़ायम करने में सफल हो गये थे। पूना के आस-पास के क्षेत्रों में अपना शासन स्थापित करने के शिवाजी के प्रयासों की यही पृष्ठभूमि थी।

मराठा युद्ध

1775-82, 1803-05, 1817-18

ब्रिटिश सेनाओं और मराठा महासंघ के बीच हुए तीन युद्ध, जिनका परिणाम था महासंघ का विनाश। पहला युद्ध(1775-82) रघुनाथ द्वारा महासंघ के पेशवा (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारम्भ हुआ। जनवरी 1779 में बडगांव में अंग्रेज़ पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ सालबाई की संधि (मई 1782) होने तक युद्ध जारी रखा; इसमें अंग्रेज़ों को बंबई (वर्तमान मुंबई) के पास सालसेत द्वीप पर कब्जे क रूप में एकमात्र लाभ मिला।

दूसरा युद्ध (1803-05)

पेशवा बाजीराव द्वितीय के होल्करों (एक प्रमुख मराठा कुल) से हारने और दिसम्बर, 1802 में बेसीन की संधि के तहत अंग्रेज़ों का संरक्षण स्वीकार करने से प्रारम्भ हुआ। सिंधिया तथा भोंसले परिवारों ने इस समझौते का विरोध किया, लेकन वे क्रमशः लसपाड़ी व दिल्ली में लॉर्ड लेक और असाय व अरगांव में सर आर्थर वेलेज़ली (जो बाद में वैलिंगटन के ड्यूक बने) के हाथों पराजित हुए। उसके बाद होल्कर परिवार भी इसमें शामिल हो गया और मध्य भारत व राजस्थान के क्षेत्र में मराठा बिल्कुल आज़ाद हो गए।

तीसरा युद्ध (1817-18)

ब्रिटिश गवर्नर-जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा पिंडारी दस्युओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के क्रम में मराठा क्षेत्र के अतिक्रमण से प्रारम्भ हुआ। पेशवा की सेनाओं ने भोंसले और होल्कर के सहयोग से अंग्रेज़ों का मुक़ाबला किया (नवम्बर 1817), लेकिन सिंधिया ने इसमें कोई भूमिका नहीं निभाई। बहुत जल्दी मराठे हार गए, जिसके बाद पेशवा को पेंशन देकर उनके क्षेत्र का ब्रिटिश राज्य में विलय कर लिया गया। इस तरह भारत में ब्रिटिश राज्य का आधिपत्य पूर्णरूप से स्थापित हो गया।

होल्कर

होल्कर अभी तक युद्ध से अलग रहा था। जब उसके प्रतिद्वन्द्वी शिन्दे की शक्ति अंग्रेज़ों ने नष्ट कर दी, तब वह मूर्खतावश 1804 ई. में अकेले अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध में उतर पड़ा। प्रारम्भ में राजपूताना में उसे अंग्रेज़ों के विरुद्ध कुछ सफलता मिली, परन्तु अक्टूबर में वह दिल्ली को न ले सका और नवम्बर 1804 ई. में दीग की लड़ाई में हार गया। भरतपुर का राजा होल्कर की ओर से युद्ध कर रहा था। लॉर्ड लेक ने ग्वालियर का क़िला छीनने की कोशिश की, परन्तु सफल न हो सका। उसकी इस विफलता के फलस्वरूप इंग्लैंड में युद्ध को जारी रखने के विरुद्ध भावना ज़ोर पकड़ती गई और 1805 ई. में लॉर्ड वेलेज़ली को वापस बुला लिया गया। उसके उत्तराधिकारी ने होल्कर से जिन अनुकूल शर्तों पर संधि कर ली, उनकी वह पहले आशा नहीं कर सकता था। होल्कर ने चम्बल नदी के उत्तर में सारे प्रदेश पर अपना दावा छोड़ दिया और अपने राज्य का अधिकांश पुनः प्राप्त कर लिया (1806 ई.)।

दूसरे युद्ध के परिणाम

दूसरे अंग्रेज़ मराठा-युद्ध के परिणाम से ने तो किसी मराठा सरदार को संतोष हुआ, न पेशवा को। उन सबको अपनी सत्ता और प्रतिष्ठा छिन जाने से खेद हुआ। पेशवा बाजीराव द्वितीयषड्यंत्रकारी मनोवृत्तिका तो था ही, उसने अविचारपूर्ण रीति से अंग्रेज़ों को जो सत्ता सौंप दी थी, उसे फिर प्राप्त करने की आशा से 1817 ई. में अंग्रेज़ों के विरुद्ध मराठा सरदारों का संगठन बनाने में नेतृत्व किया और इस प्रकार तीसरे मराठा युद्ध (1817-19 ई.) का सूत्रपात किया। परन्तु इस बार गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स के नेतृत्व में भारत की ब्रिटिश सेनाएं बहुत शक्तिशाली सिद्ध हुई। युद्ध के आरंभ में ही उन्होंने सामरिक कौशल का परिचय देते हुए शिन्दे को इस तरह अलग कर दिया कि वह युद्ध में कोई भाग न ले सका। भोंसले को 1817 ई. में सीताबल्डी और नागपुर की लड़ाईयों में और होल्कर को उसी वर्ष महीदपुर की लड़ाई में परास्त किया था। पेशवा को, जिसने युद्ध का सूत्रपात किया था, पहले 1817 ई. में खड़की की लड़ाई में परास्त किया गया। इसके बाद जनवरी 1818 ई. में कोरेगाँव की लड़ाइयों में और एक महीने के बाद आष्टी की लड़ाई में पुनः हराया गया। इस अन्तिम हार के फलस्वरूप पेशवा ने जून 1818 ई. में अंग्रेज़ों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार तीसरे मराठा युद्ध में अंग्रेज़ों की पूर्ण विजय हुई। उन्होंने अब पेशवा का पद तोड़ दिया और बाजीराव द्वितीय को कानपुरके निकट बिठूर में जाकर रहने की इजाजत दे दी। उन्होंने उसकी पेन्शन बाँध दी और उसका सारा साम्राज्य अब अंग्रेज़ों के नियंत्रण में आ गया। भोंसले का नर्मदा नदी से उत्तर का सारा इलाका अंग्रेज़ों ने ले लिया और शेष इलाका रघुजी भोंसले द्वितीय के एक नाबालिग पौत्र के हवाले कर दिया और उसे आश्रित राजा बना लिया गया। इसी प्रकार होल्कर ने नर्मदा के दक्षिण के समस्त ज़िले अंग्रेज़ों को सौंप दिये, राजपूत राज्यों पर अपना समस्त आधिपत्य त्याग दिया, अपने क्षेत्र में एक आश्रित सेना रखना स्वीकार कर लिया और अंग्रेज़ों की कृपा पर राज्य करने लगा। इस प्रकार पंजाब तथा सिंध को छोड़कर समस्त भारत में अंग्रेज़ों की सार्वभौम सत्ता स्थापित हो गयी।
राज्यों द्वारा अंग्रेजी अधीनता स्वीकार करना
ब्रिटिश भारत में रियासतें (अंग्रेजी:Princely states; उच्चारण:"प्रिंस्ली स्टेट्स्") ब्रिटिश राज के दौरान अविभाजित भारत में नाममात्र के स्वायत्त राज्य थे। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में "रियासत", "रजवाड़े" या व्यापक अर्थ में देशी रियासत कहते थे। ये ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा सीधे शासित नहीं थे बल्कि भारतीय शासकों द्वारा शासित थे। परन्तु उन भारतीय शासकों पर परोक्ष रूप से ब्रिटिश शासन का ही नियन्त्रण रहता था।
सन् 1947 में जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ तब यहाँ 565 रियासतें थीं। इनमें से अधिकांश रियासतों ने ब्रिटिश सरकार से लोकसेवा प्रदान करने एवं कर (टैक्स) वसूलने का 'ठेका' ले लिया था। कुल 565 में से केवल 21 रियासतों में ही सरकार थी और मैसूरहैदराबाद तथा कश्मीर नाम की सिर्फ़ 3 रियासतें ही क्षेत्रफल में बड़ी थीं। 15 अगस्त,1947 को ब्रितानियों से मुक्ति मिलने पर इन सभी रियासतों को विभाजित हिन्दुस्तान (भारत अधिराज्य) और विभाजन के बाद बने मुल्क पाकिस्तान में मिला लिया गया।
15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता का अन्त हो जाने पर केन्द्रीय गृह मन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल के नीति कौशल के कारण हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ के अतिरिक्त सभी रियासतें शान्तिपूर्वक भारतीय संघ में मिल गयीं। 26 अक्टूबर को कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो जाने पर वहाँ के महाराजा हरी सिंह ने उसे भारतीय संघ में मिला दिया। पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा से जूनागढ़ में विद्रोह हो गया जिसके कारण प्रजा के आवेदन पर राष्ट्रहित में उसे भारत में मिला लिया गया। वहाँ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। 1948 में सैनिक कार्रवाई द्वारा हैदराबाद को भी भारत में मिला लिया गया। इस प्रकार हिन्दुस्तान से देशी रियासतों का अन्त हुआ।
मुगल तथा मराठा साम्राज्यों के पतन के परिणामस्वरूप भारतवर्ष बहुत से छोटे बड़े राज्यों में विभक्त हो गया। इनमें से राजपूताना के राज्यों में हिन्दू शासक थे। ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सम्बन्ध सर्वप्रथम व्यापार के उद्देश्य से सूरत, कर्नाटक, हैदराबाद, बंगाल आदि समुद्रतट पर स्थित राज्यों से हुए। तदन्तर फ्रांसीसियों के साथ संघर्ष के समय राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को प्रेरणा मिली। इसके फलस्वरूप साम्राज्य निर्माण का कार्य 1757 ईसवी से प्रारम्भ होकर 1856 तक चलता रहा। इस एक शताब्दी में देशी राज्यों के आपसी झगड़ों से लाभ उठाकर कम्पनी ने अपनी कूटनीतिक सैनिक शक्ति द्वारा सारे भारत पर सार्वभौम सत्ता स्थापित कर ली। अनेक राज्य उसके साम्राज्य में विलीन हो गये। अन्य सभी उसका संरक्षण प्राप्त करके कम्पनी के अधीन बन गये। यह अधीन राज्य 'रियासत' कहे जाने लगे। इनकी स्थिति उत्तरोत्तर असन्तोषजनक तथा डाँवाडोल होती गयी। रियासतों की शक्ति क्षीण होती गयी, उनकी सीमाएँ घटती गयीं और स्वतन्त्रता कम होती चली गयी।

1757 से 1856 तक की स्थिति

 भरतपुर ने ब्रिटिश आक्रमणों को विफल बनाने के पश्चात् सन्धि कर ली। इसी समय से रियासतों के शासक अनुत्तरदायी होने लगे तथा उनके आन्तरिक शासन में अनेक बहानों से ब्रिटिश रेजीडेण्ट हस्तक्षेप करने लगे।  

1857 की सशस्त्र क्रान्ति

लॉर्ड डलहौज़ी के समय रियासतों पर विशेष प्रकोप आया। उसने नागपुर, सतारा, झाँसी, सम्भलपुर, उदयपुर, जैतपुर, वघात तथा करौली के शासकों को पुत्र गोद लेने के अधिकार से वंचित करके उनके राज्यों को हड़प लिया; हैदराबाद से बरार ले लिया; तथा कुशासन का आरोप लगाकर, अवध को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। इन आपत्तिजनक नीतियों के कारण रियासतों में असन्तोष फैल गया जो 1857 की सशस्त्र क्रान्ति का कारण बना। क्रान्ति के समय स्वार्थ से प्रेरित होकर अधिकांश देशी शासक कम्पनी के प्रति स्वामिभक्त बने रहे।
क्रान्ति के पश्चात् भारत में 562 रियासतें थीं जिनके अन्तर्गत 46 प्रतिशत भूमि थी। इनके प्रति अधीनस्थ सहयोग की नीति अपनायी गयी तथा ये साम्राज्य के मजबूत स्तम्भ समझे जाने लगे। इनके शासकों को पुत्र गोद लेने का अधिकार दिया गया। राज्य-संयोजन नीति को त्यागकर रियासतों को चिरस्थायित्व प्रदान किया गया तथा साम्राज्य की सुरक्षा एवं गठन हेतु उनका सहयोग प्राप्त किया गया। 1859 में गढ़वाल के राजा के मृत्योपरान्त उसके औरस पुत्र को उत्तराधिकारी मानकर तथा 1881 में मैसूर रियासत के पुनःस्थापन द्वारा नई नीति का पुष्टीकरण हुआ। क्रमश: विभिन्न सन्धियों का महत्व जाता रहा और उनके आधार पर सभी रियासतों के साथ एक सी नीति अपनाने की प्रथा चल पड़ी। उनमें छोटे बड़े का भेदभाव सलामियों की संख्या के आधार पर किया गया।

महारानी विक्टोरिया की अधीनता में

1876 में देशी शासकों ने महारानी विक्टोरिया को भारत की सम्राज्ञी मानकर उसकी आधीनता स्वीकार कर ली। तदन्तर ब्रिटिश शासन की ओर से उन्हें उपाधियाँ दी जाने लगीं। प्रेस, रेल, तार तथा डाक द्वारा वे ब्रिटिश सरकार के निकट आते गये। चुंगी, व्यापार, आवपाशी, मुद्रा, दुर्भिक्ष तथा यातायात सम्बन्धी उनकी नीतियाँ ब्रिटिश भारत की नीतियों से प्रभावित होने लगी। उनकी कोई अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति ही न रही। कुशासन, अत्याचार, राजद्रोह तथा उत्तराधिकार सम्बन्धी झगड़ों को लेकर रियासतों में ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप बढ़ गया। इस नीति के निम्नलिखित कुछ उदाहरण ही पर्याप्त हैं -
1) उसी वर्ष टोंक के नवाब का पदच्युत होना तथा उसके उत्तराधिकारी की सलामी की संख्या घटाना;
(2) 1870 में अलवर के राजा को शासन से वंचित करना;

बीसवीं सदी के प्रारम्भ से स्वाधीनता प्राप्ति तक

नरेन्द्रमण्डल (चेम्बर ऑफ प्रिंसेज़ ; १९४१)
1899 में लॉर्ड कर्जन ने रियासतों को साम्राज्य का अविभाज्य अंग घोषित किया तथा कड़े शब्दों में शासकों को उनके कर्तव्यों की ओर ध्यान दिलाया। इससे कुछ शासक शंकित भी हुए। उनकी स्थिति समृद्ध सामन्तों के तुल्य हो गयी। 1906 में तीव्र राष्ट्रवाद के वेग की रोकने में रियासतों के सहयोग के लिये लॉर्ड मिण्टो ने उनके प्रति मित्रतापूर्ण सहयोग की नीति अपनायी तथा साम्राज्य सेवार्थ सेना की संख्या में वृद्धि करने के लिये आदेश दिया। इसके एवज़ में प्रथम विश्वयुद्ध में रियासतों ने ब्रिटिश सरकार को महत्वपूर्ण सहायता दीया। बीकानेरजोधपुरकिशनगढ़पटियाला आदि के शासकों ने रणक्षेत्र में अपना युद्धकौशल दिखाया।
1919 के अधिनियमानुसार 1921 में नरेशमण्डल (या नरेन्द्रमण्डल) बना जिसमें रियासतों के शासकों को अपने सामान्य हितों पर वार्तालाप करने तथा ब्रिटिश सरकार को परामर्श देने का अधिकार मिला। 1926 में लार्ड रीडिंग ने ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता पर बल देते हुए देशी शासकों को ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदायी घोषित किया जिससे वे अप्रसन्न भी हुए। इसलिए 1929 में बटलर कमेटी रिपोर्ट में सार्वभौम सत्ता की सीमाएँ निश्चित कर दी गयीं। 1930 में नरेशमण्डल के प्रतिनिधि गोलमेज सम्मलेन में सम्मिलित हुए। 1935 के संवैधानिक अधिनियम में रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित करने की अनुचित व्यवस्था रखी गयी परन्तु वह कार्यान्वित न हो सकी। रियासतों में अनवरत रूप से निरंकुश शासन चलता रहा। केवल मैसूर, ट्रावणकोर, बडोदा, जयपुर आदि कुछ रियासतों में ही प्रजा परिषद के आन्दोलन से कुछ प्रतिनिधि शासन संस्थाएँ बनीं। मगर अधिकांश रियासतें प्रगतिहीन एवं अविकसित स्थिति में ही रहीं। द्वितीय विश्वयुद्ध में भी इन रियासतों ने इंग्लैण्ड को यथाशक्ति सहायता दी।
15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता का अन्त हो जाने पर केन्द्रीय गृह मन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल के नीति कौशल के कारण हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ के अतिरिक्त सभी रियासतें शान्तिपूर्वक भारतीय संघ में मिल गयीं। 26 अक्टूबर को कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो जाने पर वहाँ के महाराजा हरी सिंह ने उसे भारतीय संघ में मिला दिया। पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा से जूनागढ़ में विद्रोह हो गया जिसके कारण प्रजा के आवेदन पर राष्ट्रहित में उसे भारत में मिला लिया गया। वहाँ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। 1948 में पुलिस कार्रवाई द्वारा हैदराबाद भी भारत में मिल गया। इस प्रकार रियासतों का अन्त हुआ और पूरे देश में लोकतन्त्रात्मक शासन चालू हुआ। इसके एवज़ में रियासतों के शासकों व नवाबों को भारत सरकार की ओर से उनकी क्षतिपूर्ति हेतु निजी कोष (प्रिवी पर्स) दिया गया।
राजस्थान एकीकरण के चरण
1. पहला चरण- 18 मार्च 1948 को
✍ नाम- मत्स्य संघ
✍ शामिल रियासत- अलवर, भरतपुर, करौली, धौलपुर
✍ ठिकाना- निमराणा (अलवर)
✍ राजधानी- अलवर
✍ उद्घाटन- भरतपुर के लौहागढ़ दुर्ग मे
✍ उद्घाटन कर्ता- N.V. गोडगिल/गोडविल (नरहरी विष्णु गोडगिल)
✍ राज प्रमुख- धौलपुर नरेश उदयभान सिंह
✍ उपराज प्रमुख- करौली के महारावल गणेशपाल
✍ प्रधानमंत्री- शोभाराम कुमावत (अलवर)
✍ उप प्रधानमंत्री- युगल किशोर चतुर्वेदी (राजस्थान का नेहरू)
✍ मत्स्य संघ नाम देने वाला- K.M. मुंशी (कन्हैया लाल माणिक्य लाल मुंशी

2. दुसरा चरण- 25 मार्च 1948
✍ नाम- पूर्व राजस्थान
✍ शामिल रियासत- कोटा, झालावाड़, बूंदी, टोंक, किशनगढ़, शाहपुरा, बासवाड़ा, डूँगरपुर, प्रतापगढ़
✍ ठिकाना- लावा (जयपुर), कुशलगढ़
✍ राजधानी- कोटा
✍ उद्घाटन कर्ता- N.V. गोडगिल (यह प्रथम आंगल भारतीय था)
✍ राज प्रमुख- भीमसिंह (कोटा)
✍ उपराज प्रमुख- बूंदी नरेश बहादुर सिंह
✍ प्रधानमंत्री- गोकुल लाल असवा (शाहपुरा)

3. तीसरा चरण- 18 अप्रेल 1948
✍ नाम- संयुक्त राजस्थान
✍ शामिल रियासत- पूर्व राजस्थान व उदयपुर
✍ राजधानी- उदयपुर (मेवाड़)
✍ उद्घाटन कर्ता- भीमसिंह
✍ राज प्रमुख- भूपाल सिंह
✍ उपराज प्रमुख- भीमसिंह (कोटा)
✍ प्रधानमंत्री- माणिक्य लाल वर्मा

4. चौथा चरण- 30 मार्च 1949
✍ नाम- वृहद राजस्थान
✍ शामिल रियासत- संयुक्त राजस्थान, जोधपुर, जयपुर, जैसलमेर, बीकानेर
✍ राजधानी- जयपुर
✍ उद्घाटन कर्ता- सरदार वल्लभ भाई पटेल
✍ राज प्रमुख- सवाई मानसिंह द्वितिय (जयपुर)
✍ प्रधानमंत्री- हिरा लाल शास्त्री
✍ 30 मार्च को ही राजस्थान दिवस मनाया जाता है इसी चरण मे जीवन पर्यन्त महाराज प्रमुख भूपाल सिंह को बनाया गया व राजस्थान के प्रथम मनोनित मुख्यमंत्री हिरा लाल शास्त्री को बनाया गया।
✍ सत्य नारायण समिति कि सिफारिस पर भोगोलिक एंव पेयजल कि दृष्टि से जयपुर को राजधानी बनाने कि सिफारिस  कि गयी।
✍ सत्य नारायण समिति कि अन्य सिफारिस उच्च न्यायालय (जोधपुर), कृषि विभाग (भरतपुर), खनिज विभाग (उदयपुर), शिक्षा विभाग (बीकानेर), वन विभाग (कोटा) को बनाया।

5. पाँचवा चरण- 15 मई 1949
✍ नाम- संयुक्त वृहद राजस्थान
✍ शामिल रियासत- वृहद राजस्थान व मत्स्य संघ
✍ राजधानी- जयपुर
✍ उद्घाटन कर्ता- सरदार पटेल
✍ राज प्रमुख- सवाई मानसिंह द्वितिय
✍ प्रधानमंत्री- हिरा लाल शास्त्री
✍ शंकर राय देव समिति कि सिफारिस पर वृहद राजस्थान को पाँचवे चरण मे शामिल किया गया।

6. छठा चरण- 26 जनवरी 1950
✍ नाम- राजस्थान संघ
✍ शामिल रियासत- संयुक्त वृहद राजस्थान व सिरोही (आबू तथा देलवाड़ा को छोड़कर)
✍ आबू व देलवाड़ा को गोकुल भाई भट्ट के प्रयासो से राजस्थान मे मिलाया गया।
✍ गोकुल भाई भट्ट को राजस्थान का गाँधी कहा जाता है।

7. सातवा चरण- 1 नवम्बर 1956
✍ नाम- राजस्थान
✍ शामिल रियासत- राजस्थान संघ, आबू, देलवाड़ा, सुमेल टप्पा व अजमेर
✍ सुमेल टप्पा मध्यप्रदेश के मंदसोर जिले कि भानुपुरा तहसिल से लेकर झालावाड़ मिलाया गया।
✍ कोटा के सिरोज उपखण्ड को मध्यप्रदेश मे मिलाया गया।
✍ राजस्थान को A श्रेणी का दर्जा दिया गया व राज्यपाल कि नियुक्ति जारी कि गई और प्रथम राज्यपाल गुरुमुख निहाल सिंह बने।

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