Saturday, 16 March 2019

गुर्जर प्रतिहार राजवंश का इतिहास

गुर्जर प्रतिहार राजवंश

                                                गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य
                                                                6ठीं शताब्दी–1036 ई०
प्रतिहार साम्राज्य अपने स्वर्णकाल में।
गुर्जर प्रतिहार वंश या प्रतिहार वंश मध्यकाल के दौरान मध्य-उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में राज्य करने वाला राजवंश था, जिसकी स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने ७२५ ई॰ में की थी। इस राजवंश के लोग स्वयं को राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज मानते थे, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होती है। अपने स्वर्णकाल में प्रतिहार साम्राज्य पश्चिम में सतलुज नदी से उत्तर में हिमालय की तराई और पुर्व में बंगाल-असम से दक्षिण में सौराष्ट्र और नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। सम्राट मिहिर भोज, इस राजवंश का सबसे प्रतापी और महान राजा थे। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल बताते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि प्रतिहार राजवंश ने भारत को अरब हमलों से लगभग ३०० वर्षों तक बचाये रखा था, इसलिए प्रतिहार (रक्षक) नाम पड़ा।
प्रतिहारों ने उत्तर भारत में जो साम्राज्य बनाया, वह विस्तार में हर्षवर्धन के साम्राज्य से भी बड़ा और अधिक संगठित था। देश के राजनैतिक एकीकरण करके, शांति, समृद्धि और संस्कृति, साहित्य और कला आदि में वृद्धि तथा प्रगति का वातावरण तैयार करने का श्रेय प्रतिहारों को ही जाता हैं। प्रतिहारकालीन मंदिरो की विशेषता और मूर्तियों की कारीगरी से उस समय की प्रतिहार शैली की संपन्नता का बोध होता है।

इतिहास

प्रारंभिक शासक

ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से इस वंश के बारे में कई महत्वपूर्ण बाते ज्ञात होती है।[1][2][3] नागभट्ट प्रथम (७३०-७५६ ई॰) को इस राजवंश का पहला राजा माना गया है। आठवीं शताब्दी में भारत में अरबों का आक्रमण शुरू हो चुका था। सिन्ध और मुल्तान पर उनका अधिकार हो चुका था। फिर सिंध के राज्यपाल जुनैद के नेतृत्व में सेना आगे मालवा, जुर्ज और अवंती पर हमले के लिये बढ़ी, जहां जुर्ज पर उसका कब्जा हो गया। परन्तु आगे अवंती पर नागभट्ट ने उन्हैं खदैड़ दिया। अजेय अरबों कि सेना को हराने से नागभट्ट का यश चारो ओर फैल गया।[4] अरबों को खदेड़ने के बाद नागभट्ट वहीं न रुकते हुए आगे बढ़ते गये। और उन्होंने अपना नियंत्रण पूर्व और दक्षिण में मंडोर, ग्वालियर, मालवा और गुजरात में भरूच के बंदरगाह तक फैला दिया। उन्होंने मालवा में अवंती (उज्जैन) में अपनी राजधानी की स्थापना की, और अरबों के विस्तार को रोके रखा, जो सिंध में स्वयं को स्थापित कर चुके थे। मुस्लिम अरबों से हुए इस युद्ध (७३८ ई॰) में नागभट्ट ने गुर्जर-प्रतिहारों का एक संघीय का नेतृत्व किया।[5][6] नागभट्ट के बाद दो कमजोर उत्तराधिकारी आये, उनके बाद आये वत्सराज (७७५-८०५ई॰) ने साम्राज्य का और विस्तार किया।[7]

कन्नौज पर विजय और आगे विस्तार

हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कन्नौज को शक्ति निर्वात का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप हर्ष के साम्राज्य का विघटन होने लगा। जोकि अंततः लगभग एक सदी के बाद यशोवर्मन ने भरा। लेकिन उसकी स्थिति भी ललितादित्य मुक्तपीड के साथ गठबंधन पर निर्भर थी। जब मुक्तापीदा ने यशोवर्मन को कमजोर कर दिया, तो शहर पर नियंत्रण के लिए त्रिकोणीय संघर्ष विकसित हुआ, जिसमें पश्चिम और उत्तर क्षेत्र से प्रतिहार साम्राज्य, पूर्व से बंगाल के पाल साम्राज्य और दक्षिण में दक्कन में आधारभूतराष्ट्रकूट साम्राज्य शामिल थे।[8][9] वत्सराज ने कन्नौज के नियंत्रण के लिए पाल शासक धर्मपाल और राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग को सफलतापूर्वक चुनौती दी और पराजित कर दो राजछत्रों पर कब्जा कर लिया।[10][11]
७८६ के आसपास, राष्ट्रकूट शासक ध्रुव धारवर्ष (७८०-७९३) नर्मदा नदी को पार कर मालवा पहुंचा और वहां से कन्नौज पर कब्जा करने की कोशिश करने लगा। लगभग ८०० ई० में वत्सराज को ध्रुव धारवर्षा ने पराजित किया और उसे मरुदेश (राजस्थान) में शरण लेने को मजबुर कर दिया। और उसके द्वार गौंड़राज से जीते क्षेत्रों पर भी अपना कब्जा कर लिया।[12] वत्सराज को पुन: अपने पुराने क्षेत्र जालोन से शासन करना पडा, ध्रुव के प्रत्यावर्तन के साथ ही पाल नरेश धर्मपाल ने कन्नौज पर कब्जा कर, वहा अपने अधीन चक्रायुध को राजा बना दिया।[7]
गुर्जर प्रतिहार के सिक्कों मेवराह (विष्णु अवतार), ८५०–९०० ई० ब्रिटिश संग्रहालय
वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (805-833) राजा बना, उसे शुरू में राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय (793-814) ने पराजित किया था, लेकिन बाद में वह अपनी शक्ति को पुन: बढ़ा कर राष्ट्रकूटों से मालवा छीन लिया। तदानुसार उसने आन्ध्र, सिन्ध, विदर्भ और कलिंग के राजाओं को हरा कर अपने अधीन कर लिया। चक्रायुध को हरा कर कन्नौज पर विजय प्राप्त कर लिया। आगे बढ़कर उसने धर्मपाल को पराजित कर बलपुर्वक आनर्त, मालव, किरात, तुरुष्क, वत्स और मत्स्य के पर्वतीय दुर्गो को जीत लिया।[13] शाकम्भरी के चाहमानों ने कन्नोज के गुर्जर प्रतीहारों कि अधीनता स्वीकार कर ली।[14] उसने प्रतिहार साम्राज्य को गंगा के मैदान में आगे ​​पाटलिपुत्र (बिहार) तक फैला दिया। आगे उसने पश्चिम में पुनः मुसलमानों को रोक दिया। उसने गुजरात में सोमनाथ के महान शिव मंदिर को पुनः बनवाया, जिसे सिंध से आये अरब हमलावरों ने नष्ट कर दिया था। कन्नौज, गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का केंद्र बन गया, अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष (८३६-९१०) के दौरान अधिकतर उत्तरी भारत पर इनका अधिकार रहा।
८३३ ई० में नागभट्ट के जलसमाधी लेने के बाद[15], उसका पुत्र रामभद्र या राम गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का अगला राजा बना। रामभद्र ने सर्वोत्तम घोड़ो से सुसज्जित अपने सामन्तो के घुड़सवार सैना के बल पर अपने सारे विरोधियो को रोके रखा। हलांकि उसे पाल साम्राज्य के देवपाल से कड़ी चुनौतिया मिल रही थी। और वह गुर्जर प्रतीहारों सेकलिंजर क्षेत्र लेने मे सफल रहा।

गुर्जर-प्रतिहार वंश का चरमोत्कर्ष

रामभद्र के बाद उसका पुत्र मिहिरभोज या भोज प्रथम ने गुर्जर प्रतिहार की सत्ता संभाली। मिहिरभोज का शासनकाल प्रतिहार साम्राज्य के लिये स्वर्णकाल माना गया है। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल [16][17] बताते हैं। मिहिरभोज के शासनकाल मे कन्नौज के राज्य का अधिक विस्तार हुआ। उसका राज्य उत्तर-पश्चिम में सतुलज, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में पाल साम्राज्य कि पश्चिमी सीमा, दक्षिण-पूर्व में बुन्देलखण्ड और वत्स की सीमा, दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र, तथा पश्चिम में राजस्थान के अधिकांश भाग में फैला हुआ था। इसी समय पालवंश का शासक देवपाल भी बड़ा यशस्वी था। अतः दोनो के बीच में कई घमासान युद्ध हुए। अन्त में इस पाल-प्रतिहार संघर्स में भोज कि विजय हुई।
दक्षिण की ओर मिहिरभोज के समय अमोघवर्ष और कृष्ण द्वितीय राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे। अतः इस दौर में गुर्जर प्रतिहार-राष्ट्रकूट के बीच शान्ति ही रही, हालांकि वारतो संग्रहालय के एक खण्डित लेख से ज्ञात होता है कि अवन्ति पर अधिकार के लिये भोज और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय (878-911 ई०) के बीच नर्मदा नदी के पास युद्ध हुआ था। जिसमें राष्ट्रकुटों को वापस लौटना पड़ा था।[18] अवन्ति पर गुर्जर प्रतिहारों का शासन भोज के कार्यकाल से महेन्द्रपाल द्वितीय के शासनकाल तक चलता रहा। मिहिर भोज के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम ई॰) नया राजा बना, इस दौर में साम्राज्य विस्तार तो रुक गया लेकिन उसके सभी क्षेत्र अधिकार में ही रहे। इस दौर में कला और साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। महेन्द्रपाल ने राजशेखर को अपना राजकवि नियुक्त किया था। इसी दौरान "कर्पूरमंजरी" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया। गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य अब अपने उच्च शिखर को प्राप्त हो चुका था।

पतन

महेन्द्रपाल की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी का युद्ध हुआ, और राष्ट्रकुटों कि मदद से महिपाल का सौतेला भाई भोज द्वितीय (910-912) कन्नौज पर अधिकार कर लिया हलांकि यह अल्पकाल के लिये था, राष्ट्रकुटों के जाते ही महिपाल प्रथम (९१२-९४४ ई॰) ने भोज द्वितीय के शासन को उखाड़ फेंका। गुर्जर-प्रतिहारों की अस्थायी कमजोरी का फायदा उठा, साम्राज्य के कई सामंतवादियों विशेषकर मालवा के परमारबुंदेलखंड के चन्देलमहाकोशल का कलचुरिहरियाणा के तोमर और चौहान स्वतंत्र होने लगे। राष्ट्रकूट वंश के दक्षिणी भारतीय सम्राट इंद्र तृतीय (९९९-९२८ ई॰) ने ९१२ ई० में कन्नौज पर कब्जा कर लिया। यद्यपि गुर्जर प्रतिहारों ने शहर को पुनः प्राप्त कर लिया था, लेकिन उनकी स्थिति 10वीं सदी में कमजोर ही रही, पश्चिम से तुर्को के हमलों, दक्षिण से राष्ट्रकूट वंश के हमलें और पूर्व में पाल साम्राज्य की प्रगति इनके मुख्य कारण थे। गुर्जर-प्रतिहार राजस्थान का नियंत्रण अपने सामंतों के हाथ खो दिया और चंदेलो ने ९५० ई॰ के आसपास मध्य भारत के ग्वालियर के सामरिक किले पर कब्जा कर लिया। १०वीं शताब्दी के अंत तक, गुर्जर-प्रतिहार कन्नौज पर केन्द्रित एक छोटे से राज्य में सिमट कर रह गया। कन्नौज के अंतिम गुर्जर-प्रतिहार शासक यशपाल के १०३६ ई. में निधन के साथ ही इस साम्राज्य का अन्त हो गया।

शासन प्रबन्ध

शासन का प्रमुख राजा होता था। गुर्जर प्रतिहार राजा असीमित शक्ति के स्वामी थे। वे सामन्तों, प्रान्तीय प्रमुखो और न्यायधीशों कि नियुक्ति करते थे। चुकि राजा सामन्तो की सेना पर निर्भर होता था, अत: राजा कि मनमानी पर सामन्त रोक लगा सकते थे। युद्ध के समय सामन्त सैनिक सहायता देते थे और स्वयं सम्राट के साथ लड़ने जाते थे।
प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायता मंत्रिपरिषद करता था, जिसके दो अंग थे "बहिर उपस्थान" और "आभयन्तर उपस्थान"। बहिर उपस्थान में मंत्री, सेनानायक, महाप्रतिहार, महासामन्त, महापुरोहित, महाकवि, ज्योतिषी और सभी प्रमुख व्यक्ति सम्मलित रहते थे, जबकि आभयन्तरीय उपस्थान में राजा के चुने हुए विश्वासपात्र व्यक्ति ही सम्मिलित होते थे। मुख्यमंत्री को "महामंत्री" या "प्रधानमात्य" कहा जाता था।

प्रान्तीय शासन

गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य अनेक भागों में विभक्त था। ये भाग सामन्तों द्वारा शासित किये जाते थे। इनमें से मुख्य भागों के नाम थे:
  1. शाकम्भरी (सांभर) के चाहमान (चौहान)
  2. दिल्ली के तौमर
  3. मंडोर के गुर्जर प्रतिहार
  4. बुन्देलखण्ड के कलचुरि
  5. मालवा के परमार
  6. मेदपाट (मेवाड़) के गुहिल
  7. महोवा-कालिजंर के चन्देल
  8. सौराष्ट्र के चालुक्य
शेष उत्तरी भारत केन्द्रीय राजधानी कन्नौज से सीधे प्रशासित होता था। "मण्डल" जिला के बराबर होता था, अभिलेखों में कालिजंर, श्रीवस्ती, सौराष्ट्र तथा कौशाम्बी मण्डल के प्रमुख स्थान थे। "विषय" आधुनिक तहसील के बराबर थे, विषय से छोटे ग्रामों के समुह आते थे, जिसमें 84 ग्रामों के समुह को "चतुरशितिका" और 12 ग्रामों को "द्वादशक" कहते थे। दुर्गो कि व्यवस्था के 'कोट्टपाल' या बलाधिकृत' करते थे। व्यापार संबन्धी कर व्यवस्था मोर्यकालिन प्रतित होती है।

शिक्षा तथा साहित्य

शिक्षा

शिक्षा का प्रारंभ उपनयन संस्कार से होता था। उपनयन के पश्चात बालक को गुरुकुल भेजा जाता था। ब्राम्हण बालक को चौदह विद्याओं के साथ कर्मकाण्ड का अध्ययन कराया जाता था। क्षत्रिय बालक को बहत्तर कलाएं सिखाई जाती थी। किन्तु उसे अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुणता प्राप्त करना आपश्यक होता था। विद्यार्थी को गुरुकुल में ही रह कर विद्या अध्ययन करना होता था। यहाँ आवास और भोजन की व्यवस्था नि:शुल्क थी। अधिकांश अध्ययन मौखिक होता था।
बडी-बडी सभाओं में प्रश्नोत्तरों और शास्त्रार्थ के द्वारा विद्वानों कि योग्यता कि पहचान की जाती थी। विजेता को राजा की ओर से जयपत्र प्रदान किया जाता था, और जुलुस निकाल कर उसका सम्मान किया जाता था। इसके अलवा विद्वान गोष्ठियों में एकत्र हो कर साहित्यक चर्चा करते थे। पुर्व मध्यकाल में कान्यकुब्ज (कन्नौज) विद्या का सबसे बड़ा केन्द्र था। राजशेखर ने कन्नौज में कई गोष्ठियों का वर्णन किया है। राजशेखर ने "ब्रम्ह सभा" की भी चर्चा की हैं। ऐसी सभा उज्जैन और पाटलिपुत्र में हुआ करती थी। इस प्रकार की सभाएं कवियों कि परीक्षा के लिये उपयोगी होती थी। परीक्षा में उत्तीर्ण कवि को रथ और रेशमी वस्त्र से सम्मानित किया जाता था। उपर्युक्त वर्णन से प्रमाणित होता है कि सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भी उत्तर भारत से विद्या का का वातावरण समाप्त नहीं हुआ था। गुर्जर प्रतिहार शासक स्वयं विद्वान थे और वे विद्वानों को राज्याश्रय भी प्रदान करते थे।[19]

साहित्य

साहित्य के क्षेत्र में भिल्लमाल (भीनमाल) एक बड़ा केन्द्र था। यहाँ कई महान साहित्यकार हुए। इनमें "शिशुपालवध" के रचयिता माघ का नाम सर्वप्रथम है। माघ के वंश में सौ वर्षो तक कविता होती रही और संस्कृत और प्राकृत में कई ग्रंथ रचे गये। विद्वानो ने उसकी तुलना कालिदासभारवि, तथा दण्डित से की है। माघ के ही समकालिन जैन कवि हरिभद्र सूरि हुए। उनका रचित ग्रंथ "धुर्तापाख्यान", हिन्दू धर्म का बड़ा आलोचक था। इनका सबसे प्रशिध्द प्राकृत ग्रंथ "समराइच्चकहा" है। हरिभद्र के शिष्य उद्योतन सूरि ने ७७८ ई० में जालोन में "कुवलयमाला" की रचना की।
भोज प्रथम के दरबार में भट्ट धनेक का पुत्र वालादित्य रहता था। जिसने ग्वालियर प्रशस्ति जैसे प्रशिध्द ग्रंथ की रचना की थी। इस काल के कवियों में राजशेखर कि प्रशिध्दि सबसे अधिक थी। उसकी अनेक कृतियाँ आज भी उपलब्ध है। कवि और नाटककार राजशेखर सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम का गुरु था। राजशेखर बालकवि से कवि और फिर कवि से राजकवि के पद से प्रतिष्ठित हुआ। इसी दौरान "कर्पूरमंजरी" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया।
इससे पता चलता है कि प्रतिहार काल में संस्कृतप्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं में साहित्य कि रचना हुई। किन्तु प्राकृत दिनो-दिन कम होती गई और उसकी जगह अपभ्रंश लेती रही। ब्राम्हणों की तुलना में जैनों द्वार रचित साहित्यों कि अधिकता हैं। जिसका कारण जैन ग्रंथों का भण्डार में सुरक्षित बच जाना जबकि ब्राम्हण ग्रंथो का नष्ट हो जाना हो सकता है।

धर्म और दर्शन

काशीपुर से प्राप्त ११वीं शताब्दी की प्रतिहार कालीन विष्णु त्रिविक्रमा के पत्थर की मूर्ति, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में रखी गईं।काशीपुर से प्राप्त ११वीं शताब्दी की प्रतिहार कालीन विष्णु त्रिविक्रमा के पत्थर की मूर्ति, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में रखी गईं।
काशीपुर से प्राप्त ११वीं शताब्दी की प्रतिहार कालीन विष्णु त्रिविक्रमा के पत्थर की मूर्ति,राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में रखी गईं।
तेली का मंदिर, ८-९वीं शताब्दी में प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज द्वारा निर्मित एक हिंदू मंदिर है।[20]
भारतीय संस्कृति धर्ममय है, और इस प्रकार गुर्जर प्रतिहारों का धर्ममय होना कोई नई बात नहीं है। पूरे समाज में हिन्दू धर्म के ही कई मान्यताओं के मानने वाले थे लेकिन सभी में एक सहुष्णता की भावना मौजुद थी। समाज में वैष्णव और शैव दोनों मत के लोग थे। गुर्जर प्रतिहार राजवंश में प्रत्येक राजा अपने ईष्टदेव बदलते रहते थे। भोज प्रथम के भगवती के उपासक होते हुए भी उन्होंने विष्णु का मंदिर बनवाया था। और महेन्द्रपाल के शैव मतानुयायी होते हुए भी वट-दक्षिणी देवी के लियी दान दिया था
गुर्जर प्रतिहार काल का मुख्य धर्म पौराणिक हिन्दू धर्म था, जिसमें कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म का सिद्धान्त का गहारा असर था। विष्णु के अवतारों कि पुजा की जाती थी। और उनके कई मन्दिर बनवाये गये थे। कन्नौज में चतुर्भुज विष्णु और विराट विष्णु के अत्यन्त सुंदर प्रतिमाएं प्रतिष्ठित थी। कन्नौज के सम्राट वत्सराज, महेन्द्रपाल द्वतीय, और त्रिलोचनपाल शिव के उपासक थे। उज्जैन में महाकाल का प्रशिद्ध मंदिर था। बुन्देलखंड़ में अनेक शिव मन्दिर बनवाये गये थे।
साहित्य और अभिलेखों से धर्म की काफी लोकप्रियता जान पडती है। ग्रहणश्राद्ध, जातकर्म, नामकरणसंक्रान्तिअक्षय तृतीया, इत्यादि अवसरों पर लोगगंगायमुना अथवा संगम (प्रयाग) पर स्नान कर दान देते थे। धर्माथ हेतु दिये गये भुमि या गांव पर कोई कर नहीं लगाया जाता था।
पवित्र स्थलों में तीर्थयात्रा करना सामान्य था। तत्कालिन सहित्यों में दस प्रमुख तीर्थों का वर्णन मिलता है। जिसमें गयावाराणसीहरिद्वारपुष्कर, प्रभास, नैमिषक्षेत्र केदार, कुरुक्षेत्रउज्जयिनी तथा प्रयाग आदि थे। नदियों को प्राकृतिक या दैवतीर्थ होने के कारण अत्यन्त पवित्र माना जाता था। सभी नदियों में गंगाको सबसे अधिक पवित्र मान जाता था।

बौद्ध धर्म

गुर्जर प्रतीहारकालिन उत्तरभारत में बौद्धधर्म का प्रभाव समाप्त था। पश्चिम कि ओर सिन्ध प्रदेश में और पूर्व में दिशा में बिहार और बंगाल में स्थिति संतोषजनक थी। जिसका मुख्य कारण था, गुप्तकाल के दौरान ब्राम्हण मतावलम्बियों ने बौद्धधर्म के अधिकांश सिद्धान्त अपना कर बुद्ध को भगवान विष्णु काअवतार मान लिया था।

जैन धर्म

बौद्ध धर्म कि तुलना में जैन धर्म ज्यादा सक्रिय था। मध्यदेश, अनेक जैन आचार्यों का कार्यस्थल रहा था। वप्पभट्ट सुरि को नागभट्ट द्वितीय का अध्यात्मिक गुरु माना गया है। फिर भी यह यहाँ जेजाकभुक्ति (बुन्देलखंड़) और ग्वालियर क्षेत्र तक में ही सिमित रह गया था। लेकिन पश्चिमी भारत के राजस्थान, गुजरात, मालवा और सौराष्ट्र जैनधर्म के विख्यात केन्द्र थे, जिसका श्रेय हरिभद्र सूरि जैसे जैन साधुओं को जाता है। हरिभद्र ने विद्वानों और सामान्यजन के लिये अनेक ग्रन्थों कि रचना की। गुर्जर राजाओं ने जैनों के साथ उदारता का व्यवहार किया। नागभट्ट द्वितीय ने ग्वालियर में जैन मन्दिर भी बनवाया था।

प्रतिहारकालीन स्थापत्यकला

गुर्जर-प्रतिहार कला के अवशेष हरियाणा और मध्यभारत के एक विशाल क्षेत्र में देखे जा सकते हैं। इस युग में प्रतीहारों द्वारा निर्मित मंदिर स्थापत्य और कला की सबसे बड़ी विशेषता इसकी अलंकरण शैली है। इसी दौरान राजस्थानी स्थापत्य शैली का जन्म हुआ। जिसमें सज्जा और निर्माण शैली का पुर्ण समन्वय देखने को मिलता है। अपने पुर्ण विकसित रूप में प्रतिहार मन्दिरों में मुखमण्ड़प, अन्तराल, और गर्भग्रह के अतरिक्त अत्यधिक अल्ंकृत अधिष्ठान, जंघा और शिखर होते थे। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में बटेश्वर हिन्दू मंदिर इसी साम्राज्य काल के दौरान बनाया गया था।[21] कालान्तर में स्थापत्यकला की इस विधा को चन्देलों, परमारों, कच्छपघातों, तथा अन्य क्षेत्रीय राजवंशों ने अपनाया। लेकिन चन्देलों ने इस शैली को पूर्णता प्रदान की, जिसमें खजुराहो स्मारक समूह प्रशिद्ध है।[22]

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

  • आर. सी. मजुमदार : प्रतिहार;
  • आर. एस. त्रिपाठी : कन्नौज का इतिहास।
  • ग्वालियर प्रशस्ति
  • प्रतिहार राजपूतों का इतिहास : रामलखन सिंह

सन्दर्भ

  1.  आर. सी. मजूमदार शिवदान सिंह चौहान (1984). श्रेया यूग शास्त्रीय युग का हिन्दी अनुवाद. मोतीलाल बनारसीदास पब्लिश. पपृ॰ 245–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-2288-7.
  2.  प्राचीन भारत में सूर्य पूजा (अंग्रेज़ी में). मोतीलाल बनारसीदास. 2006. पृ॰ 80.
  3.  "बॉम्बे (भारत:राज्य) (1901) बॉम्बे प्रेसिडेंसी के गैजेटियर". सरकारी सेंट्रल प्रेस. 1901. नामालूम प्राचल|part= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  4.  ग्वालियर प्रशस्ति, श्लो० ४
  5.  एपिक इण्डिया खण्ड १२, पेज १९७ से
  6.  इलियट और डाउसन, हिस्ट्री ऑफ इण्डिया पृ० १ से १२६
  7. ↑ इस तक ऊपर जायें:  गुप्ता, डॉ॰ मोहन लाल. "जालौर के प्रतिहार"राजस्थान में प्रतिहारों के दुर्ग (सजिल्द) (प्रथम संस्करण). जोधपुर: शुभदा प्रकाशन. ISBN 938681384X, 9789386813848. |id= में 5 स्थान पर horizontal tab character (मदद)
  8.  चोपड़ा, प्राण नाथ (2003). प्राचीन भारत का व्यापक इतिहास (अंग्रेज़ी में). स्टर्लिंग पब्लिशर्स. पपृ॰ 194–195. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-207-2503-4.
  9.  कुलके, हरमनरोदरमंड, डायटमार (2004) [1986]. भारत का एक इतिहास (4था संस्करण). रूटलेज. पृ॰ 114. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-415-32920-0.
  10.  एपिक इण्डिया खण्ड ६, पेज २४८
  11.  एपिक इण्डिया खण्ड ६, पेज १२१, १२६
  12.  राधनपुर अभिलेख, श्लोक ८
  13.  एपिक इण्डिया खण्ड १८, पेज १०८-११२, श्लोक ८ से ११
  14.  बही० जिल्द २, पृ० १२१-२६
  15.  चन्द्रपभसूरि कृत प्रभावकचरित्र, पृ० १७७, ७२५वाँ श्लोक
  16.  बक्शी, एस.आर.; गजरानी, एस.; सिंग, हरी, संपा॰ (2005). प्रारंभिक आर्यों से स्वराज. नई दिल्ली: सरुप एंड संस. पपृ॰ 319–320. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7625-537-8.
  17.  राजस्थान की नई छवि. सार्वजनिक संबंध निदेशालय, सरकार राजस्थान. 1966. पृ॰ 2.
  18.  एपिक इण्डिया खण्ड़ १९, पृ० १७६ पं० ११-१२
  19.  गुर्जर-प्रतिहाराज पृ० १२५-१२८
  20.  K. D. Bajpai (2006). History of Gopāchala. Bharatiya Jnanpith. पृ॰ 31.आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-263-1155-2.
  21.  "ASI to resume restoration of Bateshwar temple complex in Chambal"Hindustan Times. 21 May 2018.
  22.  बहि० पृ० २०९

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